ज्योति पर्व नवरात पर दोहे
जगमग-जगमग जोत से,ज्योतित है दरबार।
धरती से अंबर तलक,मां की जय-जयकार।।
मनोकामना साथ ले,खाली झोली हाथ।
माँ के दर पे टेकते,कितने याचक माथ।।
धन-दौलत संतान सुख,पद-प्रभुता की चाह।
माता जी से मांगकर,लौटें अपनी राह।।
छप्पन भोगों का चढ़ा माँ को महाप्रसाद।
इच्छाओं के बोझ को मन में राखा लाद।।
घी का दीपक मैं जला,करने लगा पुकार।
माता नित फूले-फले,मेरा कारोबार।।
माता ने हँसकर कहा,पहले माँगो आँख।
अंधा क्या समझे भला,क्या हीरा क्या राख।।
पास खड़ी दरबार में,दीख पड़ी तब भक्ति।
माँ ने पावन प्रेम की,उसमें उतरी शक्ति।।
हृदय बना दरबार था,ज्योति कलश सद्भाव।
आदि-शक्ति आराधना,सच से प्रेम लगाव।
उसकी ही नवरात का,सिद्ध हुआ त्यौहार।
राग-द्वेष को दूर कर,बाँटे जग में प्यार।।
——-R.R.Sahu