Author: कविता बहार

  • उन बातों को मत छेड़िये

    उन बातों को मत छेड़िये

    सारी बातें बीत गई उन बातों को मत छेड़िये,
    जो तुम बिन गुजरी उन रातों को मत छेड़िये।

    तुम मिलो न मिलो हमसे रूबरू होकर कभी,
    लाखो शिकायते हैं उन हालातों को मत छेड़िये।

    एक नजर भर देखा था हमने  तुमको यूँही कही,
    छूकर जो तुम्हें उठे उन ख्यालातों को मत छेड़िये।

    अकेले ही सफर करना हैं अब तेरी यादों से,
    प्रीत की जो मिली उन सौगातों को मत छेड़िये।

    मेरी धड़कनों की चाहत बस इतनी सी रही,
    जीने के लिए “इंदु”दिल के तारों को मत छेड़िये।

    रश्मि शर्मा “इन्दु”

  • जुल्मी-अगहन

    जुल्मी-अगहन

    HINDI KAVITA || हिंदी कविता
    HINDI KAVITA || हिंदी कविता

    जुलुम ढाये री सखी,
    अलबेला अगहन!
    शीत लहर की कर के सवारी,
    इतराये चौदहों भुवन!!
    धुंध की ओढ़नी ओढ़ के धरती,
    कुसुमन सेज सजाती।
    ओस बूंद नहा किरणें उषा की,
    दिवस मिलन सकुचाती।


    विश्मय सखी शरमाये रवि- वर,
    बहियां गहे न धरा दुल्हन!!जुलूम…..
    सूझे न मारग क्षितिज व्योम-
    पथ,लथपथ पड़े कुहासा।


    प्रकृति के लब कांपे-
    न बूझे,वाणी की परिभाषा।
    मन घबराये दुर्योग न हो कोई-
      मनुज निसर्ग से अलहन!!जुलुम….


    बैरी”पेथाई”दंभी क्रूर ने-
    ऐसा कहर बरपाया।
    चहुं दिशि घुमर-घुमर-
    आफत की, बारिश है बरसाया।

    नर- नारी भये त्रस्त,मुए ने-
    लई चतुराई बल हन!! …..
    माथ धरे मोरे कृषक सखा री,
    कीट पतंगा पे रोये।


    अंकुर बचे किस विधि विधाता-
    मेड़-खार भर बोये।
    शीत चपेट पड़ जाये न पाला-
    आस फसल मोरी तिलहन!!जुलुम….
    अंखिया अरोय समय अड़गसनी,

    असवन निकली सुखाने।
    सरहद प्रहरी पिय के किंचित-
    दरश हों इसी बहाने।
    झांकती रजनी चांदनी चिलमन-
    शकुन ठिठुर गइ विरहन!!जुलुम….
     
    @शकुन शेंडे
    छत्तीसगढ़

  • चेहरे पर कविता

    चेहरे पर कविता

    सुनो
    कुछ चेहरों
    के भावों को पढ़ना
    चाहती हूॅ
    पर नाकाम रहती हूॅ शायद
    खिलखिलाती धूप सी
    हॅसी उनकी
    झुर्रियों की सुन्दरता
    बढ़ते हैं
    पढ़ना चाहती हूॅ
    उस सुन्दरता के पीछे
    एक किताब
    जिसमें कितने
    गमों के अफसाने लिखे हैं
    ना जाने कितने अरमान दबे हैं
    ना जाने कितने फाँके लिखे हैं चेहरा जो अनुभव के तेज
    से प्रकाशित सा दिखता है
    उस तेज के पीछे छिपी
    रोजी के पीछे के संघर्षो
    को पढ़ना चाहती हूॅ
    पर नाकाम रहती हूॅ
    चंद सिक्को के बचाने
    के लिए अंतस की
    चाह दबाने वाले
    चेहरे का तेज
    बार बार कपड़ो पर
    रफू करके भरते छेदों
    के पीछे की कांति
    जो दिखती नही
    नकली बनावटी
    चेहरे पर
    पर हाॅ अहसास
    होता है अब
    जब उस संघर्ष से
    गुजरती हूॅ आज
    रफ्ता रफ्ता मैं
    देखती हूॅ उन
    झुर्रियों की लकीरे
    हर लकीर एक कहानी
    बयां करती है कि
    हमारी खुशी के लिए
    पालक हमारे कितनी
    कुर्बानी देते
    उफ तक ना करते
    सब हॅसकर सहते
    ताकि हमारे चेहरे
    खिलते रहे हमेशा
    *******************

    18/12/2018
    स्नेहलता ‘स्नेह’सरगुजा छ0ग0

  • इन्तजार पर कविता

    इन्तजार पर कविता

    विसंगति छाई संसृति में
    करदे समता का संचार।
    मुझे ,उन सबका इन्तजार…।

    जीवन की माँ ही है, रक्षक
    फिर कैसे बन जाती भक्षक ?
    फिर हत्या, हो कन्या भ्रूण की
    या कन्या नवजात की ।
    रक्षा करने अपनी संतान की
    जो भरे माँ दुर्गा सा हुँकार
    मुझे, उस माँ का इन्तजार….।

    गली गली और मोड़ मोड़ पर
    होता शोषण छोर छोर पर,
    नहीं सुरक्षित नारी संज्ञिका
    शिशु, बालिका या नवयौवना
    इस दरिंदगी का  जो
    कर दे पूर्ण संहार ।
    मुझे, उस पुरुषार्थ का इन्तजार….।

    हमारा अध्यात्म निवृत्ति परायण
    करता आत्मदर्शन निरूपण,
    संचय से कोसों है दूर
    शांति संदेशों से भरपूर।
    जड. से उखाड़ फेंके
    छद्म वेशी,  बाबाओं का
    बाजार।
    मुझे, उस मानव का इन्तजार….।

    गरीबी, बेबसी और लाचारी
    भूखे सोने की मजबूरी,
    पढ लिख कर भी बेकारी,
    प्रतिभा फिरती मारी मारी।
    इस विषमता की खाई को,
    पाटने हित, हो जो बेकरार।
    मुझे, उस समाज सेवी का इन्तजार…..।

    देश एक पर विविध छटा है,
    क्षेत्र धर्म जाति में बँटा है।
    अर्थ हीन होते जा रहे, संवाद।
    बिन बात बढते जा रहे
    विवाद।
    इस भेद भाव को मिटा
    बसा दे, समता का संसार।
    मुझे ,उस लोक सेवक का
    इन्तजार…।
    मुझे, उन सब का इन्तजार…।

    पुष्पा शर्मा”कुसुम”

  • संस्कार पर कविता

    संस्कार पर कविता

    अहो,युधिष्ठिर हार गया है,दयूत् क्रीड़ा में नारी को,
    दुःसाशन भी खींच रहा है,संस्कारों की हर साड़ी को।


    अपनी लाज बचाने जनता,
    सिंहासन से भीड़ जाओ तुम,
    भीख नही अधिकार मांगने,
    कली काल से लड़ जाओ तुम,
    विपरित काल घोर कलयुग है,ना याद करो गिरधारी को।


    अहो,युधिष्ठिर….
    सदियों को संस्कार सिखाकर,
    हम अब तक सीना ताने हैं।
    अपनाओ न पाश्चात्य सभ्यता,
    रिश्ते उनके बेगाने हैं।
    ढोना लोगो बंद करो अब,विलायती की लाचारी को।


    अहो; युधिष्ठिर……
    लोकतंत्र के नासूर बने,
    जो घांव नही वो पलने दो,
    सदियों से तुम छले गए हो,
    अब और न खुद को छलने दो।
    शीश विच्छिन्न अब कर डालो,तोड़ो तलवार दुधारी को।


    अहो,युधिष्ठिर…..

            शीतल प्रसाद
             उकवा,बालाघाट(म.प्र.)