Author: मनीभाई नवरत्न

  • मनीभाई के हाइकु अर्द्धशतक भाग 4

    मनीभाई के हाइकु अर्द्धशतक भाग 4

    हाइकु

    हाइकु अर्द्धशतक

    १५१/ शांत तालाब
    पाहन की चोट से
    बिखर चला।

    १५२/ मुस्कुरा गई
    नव वधु के लब
    मैका आते ही।


    १५३/ बच्चे मायुस
    बिजली आते उठी
    खुशी लहर।

    १५४/ अपनी सीमा
    कमजोरी तो नहीं
    प्रभाव जमा।

    १५५/ बाल संवारे
    दीदी आज भाई का
    सहज प्रेम

    १५६/ भूले बिसरे
    यादों में झिलमिल
    असल पूंजी।

    १५७/ आकाश गंगा
    तारों की टिमटिम
    तम की आस।

    १५८/ भीषण शीत
    लब गुंजित करे
    शास्त्रीय गीत।

    १५९/ मुड़ा भास्कर
    उत्तरायण गति 
    हुई संक्रांति।

    १६०/ उत्तरायणी
    हो चला दिनकर
    राशि मकर।


    १६१/ किया तर्पण
    भगीरथ गंगा से
    संक्रांति दिन।


    १६२/ संक्रांति तिथि
    शरीर परित्याग
    महान  भीष्म।

    १६३/ ये तो खराबी~
    औंधे मुंह राह पे
    गिरा शराबी।


    १६४/ जानो, ना मानो
    खुदा को पहचानो
    जग सयानो।


    १६५/ रजत वर्षा
    बिखरे धरा पर
    प्रभात काल


    १६६/ पीले व धानी
    वस्त्र ओढ़ है सजी
    बसंती रानी ।

    १६७/  बाल संवारे~
    कांधे लटका थैला
    स्कूल को चलें।

    १६८/ दीपक की लौ
    जलती रात भर
    तम में आस।

    १६९/ पिय के बिन
    अधुरी है पूनम
    तन्हा है चांद।

    १७०/ कैसा आलाप!
    झरना झर रहे
    वन विलाप….

    १७१/ बूंद टपका
    नेत्र बना झरना
    धुलता मन।


    १७२/  नैनों ने जाना
    धडकनों ने माना
    हो गया प्यार।

    १७३/ शांत वन में~
    बहे अशांत होके
    निर्झर गाथा।

    १७४/ खिले सुमन
    बिखरते सौरभ
    उड़े तितली।

    १७५/ झोपड़ी तांके
    महल की ऊंचाई
    देख ना पाये।


    १७६/ मेघ गरजे~
    अटल महीधर
    शांत व स्थिर


    १७७/  मेघ गरजे~
    अटल महीधर
    सहता रहा।


    १७८/ उड़ता धुंआ
    जलते महीधर
    पतझड़ में।


    १७९/  दूर क्षितिज
    रंगीन नभ बीच
    बुझता रवि।


    १८०/ नभ सागर
    गोता लगाये रवि
    पूर्व पश्चिम।

    १८१/ तन घोंसला
    उड़ जाये रे पंछी
    कौन सा देश?

    १८२/ निभाता फर्ज~
    बुनता है मुखिया
    प्यारा घोंसला।

    १८३/ वजूद खोती
    कदमों के निशान
    सागर तट।


    १८४/ उठा सुनामी~
    सागर हुआ भूखा
    खाये किनारा।

    १८५/ उथला टापू~
    बेबस दिख रहा
    सागर बीच।

    १८६/ दूर सागर~
    दिखता दिनकर
    सिंदूरी लाल।


    १८७/  हवा हिलोरे
    हिले पुष्प डालियां
    महके वादी।


    १८८/ टूट चुका है
    जड़ के धंसते ही
    रूखा चट्टान।

    १८९/ टूट जाता है~
    चट्टान का दिल भी
    व्यंग्यकारों से।


    १९०/ हर कदम
    आशीष हो गुरू का
    शुभ जीवन ।  

    १९१/ छुपा के रखे~
    चट्टान सा पुरूष
    नरम दिल।


    १९२/ खुशी व गम~
    प्रतीक्षा है करता
    खेल मैदान।

    १९३/ खेल मैदान~
    सबक है सिखाता
    जीवन अंग।


    १९४/ प्रौढ़ जीवन~
    डाल में लटकी है
    वो लाल बेर।

    १९५/ अतुल्य प्रेम~
    बेर चख शबरी
    भोग लगाये।


    १९६/ बारिश बूंदें~
    उगी है मशरूम
    छतरी ताने।


    १९७/ राजसी शान~
    मशरूम आसन
    बैठा मेढ़क।

    १९८/ कैद हो गया~
    मेरा गेहूँ का दाना
    बारदाने में।

    १९९/ धरती सजी~
    गेहूं का आभूषण
    स्वर्ण जड़ित।


    २००/ गेहूं के खेत~
    कंचन बिछा रखा
    आ मिलो प्रिये।

  • मनीभाई के हाइकु अर्द्धशतक भाग 3

    मनीभाई के हाइकु अर्द्धशतक भाग 3

    हाइकु

    हाइकु अर्द्धशतक

    १०१/ विकासशील
    जगत का नियम
    हरेक पल

    १०२/अनुकूलन
    अस्तित्व का बचाव
    कर पहल


    १०३/वातावरण
    करता प्रभावित
    चल संभल

    १०४/ बच्चों के संग
    मिल जाती खुशियाँ
    अपरम्पार।  

    १०५/ जीवन कम
    समय फिसलता
    ख्वाब हजार।

    १०६/ सूक्ष्म शरीर
    मन की चंचलता
    चांद के पार।

    १०७/ सर्वसमता
    नेकी बदी की छाया
    हरेक द्वार।

    १०८/ शहर शोर
    हो जुदा तू कर ले
    मौन विहार।

    १०९/ स्वर्ण बिछौना 
    बिछाये धरा पर
    रवि की रश्मि।

    ११०/ आ चढ़ा जाये
    अस्तित्व की हाजिरी
    अल्प जीवन ।

    १११/ जन विस्फोट
    अस्तित्व को खतरा
    होगी तबाही ।

    १०२/ शेष रहेंगे
    प्लास्टिक की थैलियाँ
    सृष्टि अंत में ।  

    १०३/ गुरू की दिशा
    अमृत समतुल्य
    पानी दे सदा।

    १०४/ किस दौड़ में ?
    घिसते कलपुर्जे
    मानव यंत्र।

    १०५/ जीवन चक्र
    बिस्तर से बिस्तर
    क्यूँ तुझे डर

    १०६/ हो जा बेफिक्र
    जलती दुनिया में
    हो तेरा जिक्र ?


    १०७/ नीचा दिखाये
    तरस खा उनपे
    तू ऊपर है।

    १०८/ मृत्यु भोज है
    दावत का पर्याय
    क्या यह न्याय?

    १०९/ दिल जज्बाती
    पिघलता मोम सा
    ना दीया बाती


    ११०/ दूर क्षितिज
    रंगीन नभ बीच
    बुझता रवि।  

    १११/ नभ सागर
    गोता लगाये रवि
    पूर्व पश्चिम।

    ११२/ तन घोंसला
    उड़ जाये रे पंछी
    कौन सा देश?

    ११३/ निभाता फर्ज~
    बुनता है मुखिया
    प्यारा घोंसला।

    ११४/ वजूद खोती
    कदमों के निशान
    सागर तट।

    ११५/ उठा सुनामी~
    सागर हुआ भूखा
    खाये किनारा।

    ११६/ उथला टापू~
    बेबस दिख रहा
    सागर बीच।


    ११७/ घुमड़े घन
    गरजता सागर
    दोनों में पानी

    ११८/ दूर सागर~
    दिखता दिनकर
    सिंदूरी लाल।  

    ११९/ मेघ गरजे~
    अटल महीधर
    शांत व स्थिर

    १२०/ झोपड़ी तांके
    भवन की ऊंचाई
    देख ना पाये।

    १२१/ पुष्प शर्माते
    मधुकर हर्षाते
    फल को पाते

    १२२/ सजा प्रकृति
    रस रंग स्वाद से
    साक्षात स्वर्ग।

    १२३/
    ग्रंथ महान
    भारत संविधान
    करें सम्मान

    १२४/ विश्वास पूंजी
    पति पत्नी के बीच
    रिश्तों की डोरी

    १२५/ चिन्तन में है
    हर प्रश्न का हल
    कर मनन।

    १२६/ भावी दम्पति
    मंडप पे सजता
    पवित्र रिश्ता

    १२७/ पीले व धानी
    वस्त्र ओढ़ है सजी
    बसंती रानी ।

    १२८/ लो तन गई
    चादर की झोपड़ी
    बाल संसार।

    १२९/ शेर  बंदर
    मुखौटे सर पर
    बाल संसार

    १३०/ आ करीब आ
    प्यार से तन भिगा
    मुझे तू खिला

    १३१/ दुनिया छोटी
    थोड़ी सी है जिन्दगी
    प्यार के आगे।

    १३२/ दुनिया गोल
    प्यार है अनमोल
    मीठा तू बोल ।

    १३३/ घन के सेज
    नीले आसमां तले
    कौन बिछाये?

    १३४/ मुड़ा भास्कर
    उत्तरायण गति 
    हुई संक्रांति।

      १३५/ उत्तरायणी
    हो चला दिनकर
    राशि मकर।

    १३६/ किया तर्पण
    भगीरथ गंगा से
    संक्रांति दिन।

    १३७/ संक्रांति तिथि
    शरीर परित्याग
    महान  भीष्म।


    १३८/ संक्रांति पर्व
    तिल लड्डू, पतंग
    नदी संगम।

    १३९/ संक्रांति रंग
    कटती हैं पतंग
    जीवन ढंग।

    १४०/ तिल के लड्डू
    सर्दियों का अमृत
    बचाये शीत।

    १४१/ गुफा मंदिर~
    रहस्यों का खजाना
    दबाये हुये।

    १४२/ अमर छाप~
    गुफा में रेखांकित
    विकास यात्रा।  

    १४३/ खुशी व गम~
    प्रतीक्षा है करता
    खेल मैदान।

    १४४/ खेल मैदान~
    सबक है सिखाता
    जीवन अंग।

    १४५/ छुपा के रखे~
    चट्टान सा पुरूष
    नरम दिल।

    १४६/ छुपा के रखे~
    चट्टान सा पुरूष
    नरम दिल।

    १४७/ तपती धरा~
    दिन में रेगिस्तान
    धुप है खरा।

    १४८/ शीतल भरा~
    रात में रेगिस्तान
    ठंड गहरा।

    १४९/ सूरज चढ़ा
    दूर पनिहारिन
    घड़े पे घड़ा

    १५०/ मुर्गे की बांग
    कानों में रस घोली
    अंखियां खुली।  

  • मनीभाई के हाइकु अर्द्धशतक भाग 2

    मनीभाई के हाइकु अर्द्धशतक भाग 2

    हाइकु

    हाइकु अर्द्धशतक

    ५१/ बिखरे पुष्प
    बंसत सुगंधित
    भ्रमर गीत।

    ५२/ कबूल
    फूल हो चाहे धुल
    प्यार है मूल।

    ५३/ प्यार जीवन
    मिट्टी की दुनिया में
    बाकी कफन।

    ५४/ पत्थर दिल
    पिघलता प्यार से
    नहीं मुश्किल। 

    ५५/ मुड़ा भास्कर
    उत्तरायण गति 
    हुई संक्रांति।

    ५६/ उत्तरायणी
    हो चला दिनकर
    राशि मकर।  

    ५७/ किया तर्पण
    भगीरथ गंगा से
    संक्रांति दिन।

    ५८/ संक्रांति तिथि
    शरीर परित्याग
    महान  भीष्म।


    ५९/ बाल संवारे~
    कांधे लटका थैला
    स्कूल को चलें।


    ६०/ वो बेसहारे

    करते है जो कर्म

    बिना विचारे

    ६१/ चार दिनों में ~
    दो दिन हँसना है

    दो दिन रोना

    ६२/ अति तनाव
    विनाश का कारण
    विकास बाधा।

    ६३/ ना मकान है
    आसमान बसेरा
    क्या खोना मेरा?

    ६४/ मनाने चला ~

    खट्टी मीठी यादो को

    भुलाने चला  

    ६५/ शब्द लकीर~
    ये बताने चला है
    दिल का पीर।

    ६६/ हर निवाला
    ईश्वर का प्रसाद
    आनंद भोग।

    ६७/ सहनशील
    होता महान गुण
    देवत्व प्राप्ति।


    ६८/ मताधिकार
    लोकतंत्र की जान
    दे पहचान।

    ६९/ है शर्मनाक
    कन्या भ्रूण की हत्या~
    विचारणीय।

    ७०/ हैलो नमस्ते
    मधुर सम्बन्ध के
    भाव जताते

    ७१/ ऊर्जा संचय
    प्रकृति का संरक्षण
    भावी सुरक्षा।

    ७२/ स्वतंत्र होना
    मानव अधिकार
    प्राथमिकता।  

    ७३/ सीखता चल
    संकट हर पल
    भाग्य बदल


    ७४/ बेशर्म नेता
    राष्ट्र के हिटलर
    लुटी अस्मिता

    ७५/ बिन योग्यता
    बन जाते हैं नेता
    देश दुर्दशा ।

    ७६/ जिंदगी मौत
    किया जो बेसहारा
    कौन हमारा?


    ७७./ अति अवज्ञा
    अति परिचय से
    गर हो त्रुटि


    ७८/ की बांग
    कानों में रस घोली
    अंखियां खुली।

    ७९/ शांत तालाब
    पाहन की चोट से
    बिखर चला।

    ८०/ मुस्कुरा गई
    नव वधु के लब
    मैका आते ही।  

    ८१/ बच्चे मायुस
    बिजली आते उठी
    खुशी लहर।


    ८२/ भूले बिसरे
    यादों में झिलमिल
    असल पूंजी।


    ८३/ बिछड़ा वर्ष
    यादों की झरोखा दे
    शुभ विदाई ।

    ८४/ विदा ले साल
    किये कई कमाल
    वक्त की चाल

    ८५/ चीक से देखे
    वो पड़ोसन मेरी
    हाय ! शर्माये।

    ८६/ सौ चोट सहे
    हिले डुले डबरा
    फिर संभलें।

    ८७/ खोज ली चींटी
    छान पत्थर मिट्टी
    अजब दीठि।

    ८८/ पौष पूर्णिमा
    कृषक अन्न दाता
    विश्व विधाता।  

    ८९/ माया गठरी
    बांध चला मनुवा
    ढूंढे ठिकाना।

    ९०/ दादी कहानी
    जो किताबी हो चली
    होती रूहानी।

    ९१/ अभ्यास गुरू
    करो मार्ग आसान
    बनो सुजान।

    ९२/ आकाश गंगा
    तारों की टिमटिम
    तम की आस।

    ९३/ छटा निखरी
    ताल में स्वर्ण थाल
    आभा बिखरी

    ९४/ अंधे की लाठी
    निज सपूत कांधा
    विश्वास बांधा।

    ९५/ भीषण शीत
    लब गुंजित करे
    शास्त्रीय गीत।

    ९६/ खेल जिन्दगी
    जरा जोर लगाके
    हारे या जीते।  

    ९७/ खेल भावना
    चरित्र का आधार
    जीत या हार।

    ९८/ बाल संवारे
    दीदी आज भाई का
    सहज प्रेम


    ९९/ दिन बदले
    कैलेण्डर बदले
    तू भी बदल!

    १००/ परिवर्तन
    जीवन परिभाषा
    निकाल हल

  • मनीभाई के हाइकु अर्द्धशतक भाग १

    मनीभाई के हाइकु अर्द्धशतक भाग १

    हाइकु

    हाइकु अर्द्धशतक

    १/
    बसंत नाचे
    गाये गीत फाग के
    प्रेम राग के।

    २/
    बासंती चिट्ठी
    संवदिया बन के
    आया बयार।

    ३/  बासंती  हवा  

    रंग  बिखर गया।

    निखर गया।

    ४/
    फलक तले

    खिले सरसों फुल
    बसंत पले।

    ५/
    पी का दीदार
    नशा ज्यों हो शराब
    दिल गुलाब ।

    ६/ नदिया तीर
    खड़ा है जो गंभीर
    शिव मंदिर।

    ७/ मस्जिद पर
    अल्लाहु अकबर
    रब का घर ।

    ८/ हर जगह
    वाहेगुरू फतह
    जै गुरूद्वारा।  

    ९/ गली चौबारा
    मंदिर है मस्जिद
    है गुरूद्वारा।

    १०/ पिय दर्शन
    हिय घंटी वादन
    जिय प्रसन्न।

    ११/
    कहाँ है रब?
    सुनता क्या अजान?
    मैं अनजान।

    १२/
    वात्सल्य मूर्ति
    बनी जग विद्रोही
    बेटा हेतु माँ।।

    १३/
    पिता की डाँट
    कड़ुवी गोली सम
    प्रेम का ढंग।

    १४/ भाई बहन
    चाहे मां पिता पर
    एकाधिकार।

    १५/
    नारी की हठ
    जैसे लक्ष्मण रेखा
    दृढ़ अकाट्य।

    १६/ कठिन श्रम
    पुरूष का श्रृंगार
    काहे को शर्म।  

    १७/ छोड़ती घर
    बेटी बाबुल घर
    बसाने घर।

    १८/ पति है सखा
    जीवन करे साझा
    हर मोड़ पे।

    १९/ भेजा ना पत्र
    जो नैन भाखा जाना
    वो मेरा मित्र।

    २०/ जीने की कला
    मैंने गले में डाला
    प्यार की माला।
     

     २१/ सच्चा सहारा
    ज्यों नाव मझदार
    वो परिवार।

    २२/
    पंछी है मन
    चाहे खुली गगन
    शांत निर्जन।

    २३/ पंछी आशियाँ
    झुलसने लगे हैं
    ये बर्बादियाँ।

    २४/ स्वप्न गठरी
    बांध खड़ा कतार
    देश बेकार।  

    २५/ गगन खोज
    उड़ाने को सपने
    तू हर रोज।

    २६/ रूप आकृति
    विविध रंग प्रकृति
    फैली विस्तृत।

    २७/ मन हर्षाये
    सौरभ बिखराये।
    शाख में फूल।

    २८/ तरू नाचता,
    हावभाव कमाल
    हवा दे ताल।

    २९/ दर्पण पानी
    सजती मनमानी
    कमल रानी।

    ३०/ सरिता धार ।
    पर्वत शिला मार
    चली हुंकार।   

    ३१/ दीन के द्वार
    खुशी आये बनके
    ईद की चांद।

    ३२/
    आग का गोला
    सृष्टि का है इंजन
    देता जीवन ।

    ३३/
    चांदनी रात
    नदी खिलखिलाके
    दिखाये दांत।

    ३४/ सृष्टि के स्तम्भ
    निहारिका बनाते
    तारे पालते।

    ३५/ कल का युग
    घिरा विज्ञान साया
    ईश्वर माया ।

    ३६/
    अहं का भाव
    दौड़ाता दिन रात
    बुझे ना तृषा ।


    ३७/                    

    ऐसा हो कर्म
    लोभ तृषा से दूर
    मोक्ष हो धर्म।

    ३८/ अंत अध्याय
    जीव बंधनमुक्त
    मोक्ष पर्याय ।।

    ३९/                     
    करते युद्ध
    लपेट ध्वज कफन
    वीर जवान।

    ४०/
    होकर जुदा
    मिटा लो सब भ्रांति
    सहज शांति।

    ४१/ महिमा
    वही गाये जो जाने
    भूख की पीड़ा।


    ४२/ रक्त रंजित
    हिमालय की भूमि
    वीर लाल से।

    ४३/ देखे विनाश,
    विकास आस लिए
    मौन है धरा।

    ४४/ चमक उठी~
    नैनों में बन मोती
    प्रेम की ज्योति।

    ४५/ मृत्युशय्या में~
    चलचित्र उभरे
    स्मृति  रेखाएं।

    ४६/ क्षितिज पर~
    भू अंबर मिलन।
    हो आलिंगन।

    ४७/ सब अकेला~
    सिखाती अनायास
    वियोग बेला।

    ४८/ छाये बसंत
    खिलता पुष्पकली
    झूमे भ्रमर।  

    ४९/ बंधी है पुष्प
    काटें सलाखों बीच
    विकल चुप।

    ५०/ मधुबन में~
    पुष्प है गोपबाला
    कृष्ण भ्रमर।

  • आक्रोश पर निबंध – मनीभाई नवरत्न

    आक्रोश पर निबंध – मनीभाई नवरत्न

    “कभी रोष है ,तो कभी जोश है।

    मन में उफनता , वो ‘आक्रोश’ है।

    मदहोश यह, तो कहीं निर्दोष है।

    परदुख से उत्पन्न ‘आक्रोश’ है।”

    मनीभाई नवरत्न

    मानव अपने जन्म से लेकर मृत्युशैय्या तक किसी ना किसी घटनाओं से उद्वेलित होता रहता है।जिसके इर्दगिर्द ही उसके मन में भावनाओं का सागर समय और दशा के अनुरूप उमड़ता रहता है।अपनी भावनाओं को मानव कभी प्रेम, विश्वास, तो कभी शंका,घृणा व आक्रोश आदि कई रूपों में प्रकट करता है । इन सभी भावनाओं में  आक्रोश भाव का महत्वपूर्ण स्थान होता है । अक्सर आक्रोश की उत्पत्ति कार्य की अक्षमता व मनोवांछित कार्य न हो पाने की स्थिति में होता है ।लेकिन कभी कभी अन्याय के खिलाफ विरोध दर्ज करने के लिये प्रयुक्त की जाती है। जिससे परिवर्तन के मार्ग खुलने लगते हैं।  

    आक्रोश का सामान्य अर्थों में किसी स्थिति के प्रति उत्तेजना या आवेश व्यक्त करने से होता है।इसके साथ आक्रोश में आवेश के साथ चीख-पुकार या किसी को शापित करना भी शामिल किया जा सकता है। आज गंभीर प्रश्न यह है कि आक्रोश भाव  अच्छी आदत की श्रेणी में रखा जाय कि बुरी आदत की श्रेणी में रखा जाय।

    आक्रोश  की परिणाम  स्थिति,समय और आक्रोशी के इरादों से सकारात्मक और नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। आक्रोश का प्रकटीकरण दो रूपों में होता है। एक तो जब आवेश प्रकट करने में आक्रोशी को जोर देना नहीं पड़ता । वह स्वतः स्थिति,स्थान और परिणाम का पूर्वानुमान लगाये बिना प्रकट हो जाता है।जो बाद में किसी की उपेक्षा का शिकार होता है । जिससे मानव जीवन का पतन होने लगता है। इस प्रकार का आक्रोश मानव के दुर्गुण पक्ष को उजागर करता  है और दूसरे प्रकार के आक्रोश प्रकटीकरण मानव अपने दिलोदिमाग से परदुःखकातरता भाव लेकर करता है यह मनुष्य को जिंदादिल इंसानियत की धनी बनाती है। इतिहास में उनका नाम  स्वर्णिम अक्षरों में लिखा जाता है ; जैसे कि मंगल पांडे ने अंग्रेजी हुकुमत के विरोध में आक्रोश व्यक्त किया था और अंग्रेजी शासन की नींव हिलाकर रख दी थी।

    आक्रोश के वशीभूत होकर व्यक्ति अपनी अमूल्य धन को खो देता है जिसका पछतावा उसे जिन्दगी भर होता है। जिस तरह मंथरा ने कैकेयी के मन में ईर्ष्या भरकर क्षण भर के लिए उसके प्रिय पुत्र श्री राम के प्रति आक्रोशित कर दिया था और कैकयी ने श्रीराम को वनवास का आदेश दे दिया था। वैसे “राम वनवास” के पश्चात कैकेयी का मन सबसे अधिक व्यथित हुआ था । आक्रोश के बारे में वर्णन करते हुए द्रोपदी की चित्रण करना आवश्यक हो गया है कि उसने किस तरह से पाण्डवों के मन में कौरवों के खिलाफ आक्रोश को अपना हथियार बनाकर अपने प्रति हुए अपमान का प्रतिशोध लिया था।वैसे महाभारत जैसे हर युद्ध के पर्दे के पीछे में किसी एक व्यक्ति विशेष के मन में  उपजे आक्रोश की भावना छुपी रहती है ।

    कई महापुरुषों ने आक्रोश पर अपने भिन्न भिन्न विचार प्रस्तुत किये हैं जैसे कीटो का कथन कि “एक आक्रोशित व्यक्ति अपना मुंह खोल देता है और आंख बंद कर लेता है।” इस पर महात्मा गांधी ने भी कहा है “आक्रोश और असहिष्णुता सही समझ के दुश्मन हैं ।” परंतु आक्रोश ने अरस्तू के विचार में कुछ नयापन देखने को मिलता है ।उनका कहना था कि “कोई भी आक्रोशित  हो सकता है- यह आसान है, लेकिन सही व्यक्ति से सही सीमा में सही समय पर और सही उद्देश्य के साथ सही तरीके से आक्रोशित  होना सभी के बस कि बात नहीं है और यह आसान नहीं है.”

    जब कभी मनुष्य को उसके सोच के अनुरुप कार्य होता प्रतीत ना हो और उस पर बदलाव लाने के लिए उसका मन उद्धत हो तो मन में आक्रोश भाव की उपज होने लगता है । जब कभी मनुष्य आक्रोशित होता है तो उसकी बुद्धि में आवेग भर जाता है और सही निर्णय कर पाने में अक्षम होता है फलस्वरुप उसकी कार्य की सफलता पर प्रश्नचिन्ह लग जाता है ।कभी कभी  बात बात में तिलमिलाना उसके सामाजिक स्थिति  को बिगाड़ने का कार्य करती है । आक्रोश में व्यक्ति अपने स्वास्थ्य को खतरे में डालता है । और कभी कभी आक्रोश की लपटें दूसरों को भी अपने चपेट में लेकर भस्म कर सकता  है ।

    आज आक्रोश प्रदर्शन का तरीका मात्र व्यक्तिगत न होकर सामुहिक रूप ले रहा है । किसी का विरोध करते हुए एक जनसैलाब जगह-जगह आक्रोश मार्च निकालते हैं । सड़क-जाम करके आवागमन को बाधित करके लोगों के परेशानी को बढ़ाते हैं  । कभी-कभी स्थिति इतनी बिगड़ जाती है कि भीड़ दंगे का रूप ले लेती है ,जिससे देश को जान माल की हानि उठानी पड़ती है । इस प्रकार के आक्रोश प्रदर्शन को किसी भी तरह से जायज नहीं ठहराया जा सकता है । आक्रोश सहज नैसर्गिक मनोभाव है ।
    आक्रोश को विषम दशा में एक सहज अभिव्यक्ति प्रतिक्रिया के रूप में कहा गया है जिससे कि हम अपने ऊपर आरोपों से अपनी सुरक्षा कवच तैयार करते हैं ।
    तात्पर्य यह है कि अपनी वजूद की रक्षा के लिए आक्रोश भी जरुरी होता है ।आक्रोशित व्यक्ति का समाज में  स्थान क्रांतिकारी विचारों से प्रेरित करता है।हर बुराईयों पर अपना विरोध प्रकट करता है। आज के युग को  व्यग्रता का युग कहा जाने लगा है।आक्रोश के वक्त दैहिक  स्तर पर हृदय की स्पंदन बढ़कर रक्तचाप बढ़ने लगता है ।इस प्रकार की घटना मानव के लिए हर तरह से हानिप्रद है ।अतः इस पर नियंत्रण नितांत आवश्यक है ।

    आक्रोश व्यक्त करना धैर्य क्षमता की कमी का संकेतक है । आज जीवनशैली तनाव ग्रस्त हो गई है। विलासिता की युग में सभी के मस्तिष्क पर बाजारीकरण हावी होने लगा है । लंबे समय तक कार्य और अनियंत्रित जीवनशैली से मानव में चिड़चिड़ापन आने लगी है ।अकेलापन में आदमी अपनी भावना दुसरों को प्रकट न कर पाने से आक्रोशित होने लगता है । हिंसात्मक बयानबाजी सुनकर और टीवी शो व मूवी देखकर युवा असंवेदनशील होने लगे हैं। जिससे युवाओं  में  आक्रोश बढ़ता जाता है । वैसे आक्रोश के मूल कारणों को समझे बिना यह बताना मुश्किल है कि आक्रोश का दमन और निदान कैसे संभव है? पर यथासंभव प्रयास यह की जानी चाहिए  कि जिससे हम पर आक्रोश की भावना हावी न होने पाये।किसी पर अति अपेक्षा करने से भी बचना   चाहिए, नहीं तो इच्छा के अनुरूप काम न होने से मन में आक्रोश सवार होने लगता है । अति आक्रोश से बचने हेतु धैर्य,ध्यान और विश्राम  का सहारा लेने का प्रयास करनी चाहिए।

    “आक्रोश संघर्ष का बिगुल है।

    आक्रोश खिलाफत का मूल है।

    आक्रोश युवाओं का  शक्ति है।

    विरोध, स्वर का अनुपम युक्ति है।”


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    ✒ निबंधकार :-
    मनीलाल पटेल “मनीभाई “
    भौंरादादर बसना महासमुंद ( छग )
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