भूख पर कविताएं
कविता 1.
भूख केवल रोटी और भात नहीं खाती
वह नदियों पहाड़ों खदानों और आदमियों को भी खा जाती है
भौतिक संसाधनों से परे
सारे रिश्तों
और सारी नैतिकताओं को भी बड़ी आसानी से पचा लेती है भूख।
भूख की कोई जाति कोई धर्म नहीं होता
वह सभी जाति सभी धर्म वालों को समान भाव से मारती है।
जाति धर्म मान सम्मान महत्वपूर्ण होता है
जब तक भूख नहीं होती।
दुनिया भर के आयोजनों में
सबसे बड़ा होता है
रोटी का आयोजन
सच्चा कवि वही होता है
जो रोटी और भूख के विरह को समझ ले।
सबसे आनंददायक होता है
भूख का रोटी से मिलन।
– नरेंद्र कुमार कुलमित्र
कविता 2.
भूख !
असीम को समेटे दामन में,
हो गई है उच्चश्रृंखल।
खोती जा रही अपना
प्राकृतिक रूप।
वास्तविक स्वरूप ।
भूख बढ़ती चारों ओर,
रूप बदल- बदल कर
यहाँ -वहाँ जानें, कहाँ -कहाँ
करने लगी है,आवारागर्दी।
भूख होती जा रही बलशाली,
दिन ब दिन,
तन, मन, मस्तिष्क पर ,
जमा रही अधिकार,
और दे रही इंसान को पटखनी ।
पेट की आग से भी बढ़कर,
धधकती ज्वाला मुखी,
लालच और वासना की भूख
जो कभी भी ,कहीं भी ,
फट सकती है।
अब नहीं लगती किसी को,
इंनसानियत ,धर्म, कर्तब्य और भाईचारे ,
संस्कारों की भूख
बौने होते जा रहे सब।
दावानल लगी है, मनोमस्तिष्क में,
विकारों में जलता मानव,
अपनी क्षुधा तृप्ति के लिए,
होते जा रहे हैवान ।
और रोटी की जगह निगल रहे समूची मानवता को ।
सुधा शर्मा
राजिम छत्तीसगढ़
कविता 3.
भीख माँगने में मुझे लाज तो आती है
पर ये जालिम भूख बड़ी सताती है।
सुबह से शाम दर दर खाती हूँ ठोकर
दो वक्त की रोटी मुश्किल से मिलती है।
मैलै कुचैले वसन में बीतता है बचपन
दिल की ख्वाहिश अधूरी ही रहती है।
ताकि भाई खा सके पेट भर खाना
बहाना बना पानी पी भूख सहती है।
कहाँ आती है भूख पेट नींद भी ‘रुचि’
आँखों से आँसू बरबस ही बहती है।
सुकमोती चौहान रुचि
बिछियां, महासमुन्द, छ.ग.