Category: हिंदी कविता

  • गर्मी बनी बड़ी दुखदाई

    गर्मी बनी बड़ी दुखदाई

    *सुबह सुहानी कहाँ गई अब,*
    *दिन निकला दोपहरी आई ।*
    *जलता सूरज तपती धरती,*
    *गर्मी बनी बड़ी दुखदाई ।।*

    ताल-तलैया नदियाँ झरनें,
    कुँआ बावली सब सूख गए।
    महि अंबर पर त्राहिमाम है,
    जीवन संकट अब विकट भए ।।

    *निज स्वार्थ पूर्ति हेतु मनुज भी,*
    *धरती का दोहन करता है ।*
    *इसी वजह से तपती धरती ,*
    *जीवन संकट बन जाता है ।।*

    तपती धरती कहती हमको,
    अतिशय दोहन अब बंद करो।
    हरा-भरा आच्छादित वन हो,
    तुम ऐसा उचित प्रबंध करो ।।

    ✍ *केतन साहू "खेतिहर"**✍
      *बागबाहरा, महासमुंद (छ.ग.)*

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  • पेड़ धरा का हरा सोना है

    पेड़ धरा का हरा सोना है

     ये कैसा कलयुग आया है
    अपने स्वार्थ के खातिर
    इंसान जो पेड़ काट रहा है
    अपने ही पैर में कुल्हाड़ी मार रहा है
    बढते ताप में स्वयं नादान जल रहा है
    बढ़ रही है गर्मी,कट रहे हैं पेड़
    या कट रहे हैं पेड़ बढ़ रही है गर्मी
    शहरीकरण, औद्योगीकरण,
    ग्लोबल वार्मिंग तेजी से बढ़ रहा है
    पारिस्थितिकी संतुलन बिगड़ रहा है
    ग्रीन हाउस गैस बढ़ रहा है
    धरती का सुरक्षा – कवच
    है जो ओजोन परत,नष्ट होने से बचाना है
    पेड़ के प्रति हमारी बड़ी है जिम्मेदारी
    पेड़ जीवन दायिनी है हमारी
    खूब पेड़ लगाना है
    आने वाली पीढ़ी को अपंग
    होने से बचाना है
    पेड़ है प्रकृति का अनमोल वरदान
    पेड़ ना हों तो अवश्य बढेगा तापमान
    बिन पेड़ के कोई प्राणी का अस्तित्व कहाँ
    पेड़ तो जीते दूसरों के लिए यहाँ
    पेड़ का महत्व समझें
    पेड़ हैं तो हम हैं
    पेड़ “धरा” का हरा सोना है
    इसे नहीं हमें खोना है।
    धनेश्वरी देवांगन धरा
    रायगढ़ (छत्तीसगढ़,)
    मो. नं. 8349430990

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  • मैं छोटी सी टिवंकल

    मैं छोटी सी टिवंकल

    मैं छोटी सी टिवंकल,
    क्या बताऊ क्या भोगा,
    आदमी के रूप में,
    राक्षस है ये लोगा ।
    मैं तो समझी उसको चाचा,
    मैं मुनियाँ छोटी सी,
    मैंने नही उसको बाँचा,
    गोद में बैठ चली गई,
    उस दरिंदे से छली गई ,
    दो उस कुत्तेको बद्दुआ
    उस कुत्ते ने देखो मुझको
    कहाँ कहाँ नही छुआ ,
    उसके बाद भी देखो उसका
    नही भरा था मन ,
    टुकड़े टुकड़े काट दिया ,
    उसने मेरा तन ।
    पूछ रही है ये टिवंकल
    क्या न्याय दिलवाओगे
    इतना तो जानती हूं मैं,
    जैसे औरों को भूले हो तुम
    मुझको भी भूल जाओगे
    राजनीति भी ,
    चुप्पी साधे देखो कैसी बैठी है,
    न्याय की कुर्सी भी,
    बंद आँखे देखो कैसी लेटी है,
    सबके स्वार्थ आड़े है,
    सबके अपने पहाड़े है,
    फिर भी कहती –
    ये टिवंकल,
    अपने अपने बच्चों को
    इनसे तुम बचा लेना,
    हो सके तो इन दरिंदों को
    सरे राह, सरे आम फांसी देना,
    यही मेरी आत्मा का
    शान्ति का उपाय होगा ।
    मैं छोटी सी टिवंकल
    क्या बताऊ क्या भोगा
    आदमी के रूप में,
    राक्षस है ये लोगा ।
    –सुनील उपमन्यु,खण्डवा

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  • ट्विंकल शर्मा-श्रध्दांजली

    ट्विंकल शर्मा-श्रध्दांजली

    धरती मांता सिसक रही है,देख के हैवानी करतूत!
    मां भी पछता रही है उसकी,मैने कैसे जन्मा ये कपुत!!
    पढ़कर खबरो को सैकड़ो,माताओ के अश्क गिरे!
    सोच रही है क्यो जिंदा है,ये वहशी अबतक सरफिरे!!
    दरिंदे उसकी नन्ही उम्र का,थोड़ा तो ख्याल किया होता!
    नज़र मे बेटी मुरत लाकर,थोड़ा तो दुलार किया होता!!
    कैसे पत्थर दिल इंसा हो तुम,सोच रहा है हर मानव!
    नर पिशाच्य है इंसा रुप मे,या नराधमी है ये दानव!!
    कलम भी थर्राती है लिखने,साहस ना कर पाती है!
    ऎसी खबरो को लिखने को,स्याही भी सुख जाती है!!
    जाहिद,असलम दोनो सुनलो,तुम तो ना बच पाओगे!
    बदतर जहान्नुम से जो हो,वही सजा तुम पाओगे!!
    उन्नाव,दामिनी,और कठुआ,अब अलिगढ़ का जो मंजर है!
    कुछ को सजा कुछ बच जाए ,कानुन व्यवस्था लचर है!!
    पांच साल से मन्नत करके,और चिकीत्साओ के बाद!
    तब जाकर पाई थी ट्विंकल,जैसी सुंदर ये औलाद!!
    केवल दस हजार की खातिर,ये भयावह काम किया!
    मासुम का वहशी दरिंदो ने,सरासर कत्ले आम किया!!
    आखिर कबतक ऎसे मंजर,तुम्हे देखने का ईरादा है!
    इन्हे जनता को सौप दो देंगे,वो सही सजा मेरा वादा है!!
    ट्विंकल तेरी हर यादो को,खूब संजोया जाएगा!
    श्रध्दांजली मे ऎसा मंजर,वादा है ना दोहरा जाएगा!!
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    कवि-धनंजय सिते(राही)
    Mob-9893415828
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  • कोई रावण बच ना पाए

    कोई रावण बच ना पाए

    फिर  से  नारे   गूंजेंगे   फिर   तख्तियां    उठाई    जाएंगी
    नम आंखों  के  आंसू  से  फिर  से  मोम  जलाई  जाएंगी
    फिर   धरना   प्रदर्शन   होगा   गांव   गली   चौराहों   पर
    फिर  से  होगा   ख़ूब   ड्रामा   संसद   के    दोराहों    पर
    श्वेत  लुटेरे  आ   कर   के   फिर   अपने    पासे    फेंकेंगे
    धर्म   मज़हब    का   चोला   ओढ़े   अपनी  रोटी  सेंकेंगे
    सब मिल कर  ट्विंकल  की  तस्वीरों  पे  शीश  झुकाएंगे
    अपनी    मैली    श्रद्धा    के    सूखे     सुमन     चढ़ाएंगे
    फिर  से  खून  दिखेगा  हर  भारतवासी  की  आंखों   में
    फ़िर से चिड़िया दब मर जाएगी ख़ुद अपनी ही पाँखों में
    इनके   काले   कुकर्मों   पर   पर्दा   कब   तक   डालोगे
    इनकी  हैवानी  हरकत  को  आख़िर  कब  तक  टालोगे
    इन  ग़द्दारों  के  नामों  को   आख़िर   कब   तक   रोएंगे
    इन  धरती  के  बोझों  को  आख़िर   कब   तक   ढोएंगे
    कानून बना कर शैतानों  को  अब  तोपों  से  भुनवा  दो
    शीश  उठाए  गर  रावण   तो   दीवारों   में   चुनवा   दो
    इनकी   काली   करतूतों  का  खुल  के  उत्तर  देंगे  हम
    सीने   के   अंदर   तक    अब    के   पीतल   भर   देंगे
    श्री  राम   बन   कर   उतरो   सीता    के   सम्मान   में
    कोई   रावण   बच   ना    पाए    मेरे    हिंदुस्तान    में
    कोई रावण बच ना पाए…

    कवि धीरज कुमार पचवारिया