गर्मी बनी बड़ी दुखदाई
*सुबह सुहानी कहाँ गई अब,*
*दिन निकला दोपहरी आई ।*
*जलता सूरज तपती धरती,*
*गर्मी बनी बड़ी दुखदाई ।।*
ताल-तलैया नदियाँ झरनें,
कुँआ बावली सब सूख गए।
महि अंबर पर त्राहिमाम है,
जीवन संकट अब विकट भए ।।
*निज स्वार्थ पूर्ति हेतु मनुज भी,*
*धरती का दोहन करता है ।*
*इसी वजह से तपती धरती ,*
*जीवन संकट बन जाता है ।।*
तपती धरती कहती हमको,
अतिशय दोहन अब बंद करो।
हरा-भरा आच्छादित वन हो,
तुम ऐसा उचित प्रबंध करो ।।
✍ *केतन साहू "खेतिहर"**✍
*बागबाहरा, महासमुंद (छ.ग.)*
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कविता बहार से जुड़ने के लिये धन्यवाद