(१) भूख में तरसता यह चोला, कैसे बीतेगी ये जीवन। पहनने के लिए नहीं है वस्त्र, कैसे चलेगी ये जीवन। (२) किसने मुझे जन्म दिया, किसने मुझे पाला है। अनजान हूं इस दुनिया में, बहुतों ने ठुकराया है। (३) मजबुर हूं भीख मांगना, छोटी सी अभी बच्ची हूं। सच कहूं बाबू जी, खिली फूल की कच्ची हूं। (४) छोटी सी बहना को, कहां कहां उसे घूमाऊं। पैसे कुछ दे दे बाबू जी, दो वक्त की रोटी तो पाऊं। (५) जीवन से थक हार चुकी, कोई तो अपनाओ। बेटी मुझे बना लो, जीने की राह बताओ।
रचनाकार कवि डीजेन्द्र क़ुर्रे “कोहिनूर” पीपरभवना,बिलाईगढ़,बलौदाबाजार (छ.ग.) 812058782
कहते हैं बड़े बुजुर्ग समझदार बनो जब बेटियाँ चहकती हैं घर के बाहर खिलखिलाती हैं उड़ना चाहती हैं पंख कतर दिये जाते हैं कहा जाता है तहजीब सीखो समझदार बनो ! जब वह बराबरी करती दिखती भाई की उसे एहसास दिलाया जाता है कि तुम लड़की हो तुम्हें उड़ने का हक नहीं है बस बंद रहना है विचारों के कटघरे में तुलना न करो तुम अपने हद में रहो समझदार बनो ! माना समाज ने बहुत तरक्की की है पर कहाँ, कब, कैसे किसके लिए वही पुरातन विचार लिए दोराहे पर खड़े हैं हम कदम आगे बढ़ते ही यही कहा जाता है औकात में रहो समझदार बनो ! समाज से कहना यही है अब तो भेद-भाव की जंजीरें तोड़ो सपना हर किसी को देखने का हक है समानता की बातें करते हो सच में इसे अपनाओ समझदार बनो !
अनिता मंदिलवार सपना अंबिकापुर सरगुजा छतीसगढ़
फिर दिखे रास्ते के भिखारी क्यों
एक लड़की दीन, हीन और दुखिया, खाक पर बैठी हुई है दिल-फ़िगार । चीथड़ो से उसका जिस्म है ढँका हुआ, कायनाते-दिल में है प्रलय मचा हुआ । आँख में नींद का है हल्का खुमार, कुंचित अलकों पर है गर्द -गुबार । एक कुहना है ओढ़नी ओढ़े हुए, अंदरूनी दुख की है सच्ची दास्ताँ कहती उसकी खून जैसी लाल आँखें, बेकसी, बेचारगी का उसका हाल । उसके कोमल हाथ भीख की खातिर उठे, आह ये आफत, और ये बर्बादियाँ । रास्ते में मिल जाते हमें अक्सर ऐसे भिखारी, हाथ फैलाए हुए । सब सुविधाएँ मिलती है जब फिर दिखे रास्ते के भिखारी क्यों । आह ये जन्नत निशाँ ये हिन्दोस्तां, तू कहाँ और यह तेरी हालत कहाँ ।
अनिता मंदिलवार “सपना” अंबिकापुर सरगुजा छ.ग मोबाइल नं 9826519494
(मुज़तस मुसम्मन मखबून) बना है बोझ ये जीवन कदम थमे थमे से हैं, कमर दी तोड़ गरीबी बदन झुके झुके से हैं। लिखा न एक निवाला नसीब हाय ये कैसा, सहन ये भूख न होती उदर दबे दबे से हैं। पड़े दिखाई नहीं अब कहीं भी आस की किरणें, गगन में आँख गड़ाए नयन थके थके से हैं। मिली सदा हमें नफरत करे जलील जमाना, हथेली कान पे रखते वचन चुभे चुभे से हैं। दिखी कभी न बहारें मिले सदा हमें पतझड़, मगर हमारे मसीहा कमल खिले खिले से हैं। सताए भूख तो निकले कराह दिल से हमारे, नया न कुछ जो सुनें हम कथन सुने सुने से हैं। सदा ही देखते आए ये सब्ज बाग घनेरे, ‘नमन’ तुझे है सियासत सपन बुझे बुझे से हैं।
क्षुधा पेट की, बीच सड़क पर। दो नन्हों को लायी है।। भीख माँगना सिखा रही जो। वो तो माँ की जायी है।। हाथ खिलौने जिसके सोहे। देखो क्या वो लेता है। कोई रोटी, कोई सिक्का, कोई धक्का देता है।। खड़ी गाड़ियों के पीछे ये। भागे-भागे जाते हैं। करे सफाई गाड़ी की झट। गीत सुहाने गाते हैं।। रोटी की आशा आँखों में। रोकर बोझा ढोते हैं। पानी पीकर, जूठा खाकर, या भूखा ही सोते हैं।। डॉ. सुचिता अग्रवाल”सुचिसंदीप” तिनसुकिया, असम कविता बहार से जुड़ने के लिये धन्यवाद
आग की तपिस में छिलते पाँव भूख से सिकुड़ते पेट उजड़ती हुई बस्तियाँ और पगडण्डियों पर बिछी हैं लाशें ही लाशें कहीं दावत कहीं जश्न कहीं छल झूठे प्रश्न तो कहीं ….
आलीशान महलों की रेव पार्टियाँ दो रोटी को तरसते हजारों बच्चों पर कर्ज की बोझ से दबे लाखों हलधरों पर और मृत्यु से आँखमिचोली करते श्रमजीवी करोड़ों मजदूरों पर शायद! आज भी ….
किसी की नज़र नहीं जाती वक़्त है कि गुजर जाता है लेकिन गरीबी का ये ‘घाव’ कभी भरता ही नहीं ।
– प्रकाश गुप्ता ”हमसफ़र” राज्य – छत्तीसगढ़ मोबाईल नम्बर – 7747919129