चहचहाती गौरैया मुंडेर में बैठ अपनी घोसला बनाती है, चार दाना खाती है चु चु की आवाज करती है, घोसले में बैठे नन्ही चिड़िया के लिए चोंच में दबाकर दाना लाती है, रंगीन दुनिया में अपनी परवाज लेकर रंग बिखरेती है, स्वछंद आकाश में अपनी उड़ान भरती है, न कोई सीमा न कोई बंधन सभी मुल्क के लाड़ली उड़ान से बन जाती है, पक्षी तो है गौरैया की उड़ान सब को भाँति है, घर मे दाना खाती है चहकते गौरैया देशकाल भूल सीमा पार चले जाती है, अपनी कहानी सबको बताती है कही खो न जाऊ अपना दर्द सुनाती है। -अमित चन्द्रवंशी “सुपा” कविता बहार से जुड़ने के लिये धन्यवाद
हमें पता नहीं पर बढ़ रहे हैं धीरे धीरे नास्तिकता की ओर त्याग रहे हैं संस्कारों को, आडम्बरों को समझ रहे हैं हकीकत अच्छा है। पर जताने को बताते हैं मैं हूँ आस्तिक। फिर भी छोंड रहे हैं हम ताबीज मजहबी टोपी नामकरण रस्म झालर उतरवाना बहुत कुछ। बढ़ रहे हैं धीरे धीरे नास्तिकता की ओर क्योंकि नास्तिकता ही वैज्ञानिकता है। राजकिशोर धिरही कविता बहार से जुड़ने के लिये धन्यवाद
1 बाहें फैलाये मांग रही दुआएँ, भूल गया क्या मेरी वफ़ाएँ! ओ निर्मोही मेघ! इतना ना तरसा, तप रही तेरी वसुधा अब तो जल बरसा!
2 बूंद-बूंद को अवनी तरसे, अम्बर फिरभी ना बरसे! प्यासा पथिक,पनघट प्यासा प्यासा फिरा, प्यासे डगर से! प्यासी अँखिया पता पूछे, पानी का प्यासे अधर से! बूंद-बूंद को अवनी तरसे अम्बर फिरभी ना बरसे!
3 प्रदूषण से कराहती, शांत हो गई है! कहते हैं नदी अपना पानी पी गई है! चंचल थी बहुत, उदास हो गई है! नक्शे में जाने कहाँ अब खो गई है! नदी शांत हो गई है! बादलों की ओर, आस लगाये रहती है, कलकल बहती थी, अब धूल उड़ाया करती है! प्यासी बरसातें उसकी, उम्मीदें धो गई हैं!
नदी शांत हो गई है!
डॉ. पुष्पा सिंह’प्रेरणा’ अम्बिकापुर(छ. ग.) कविता बहार से जुड़ने के लिये धन्यवाद
वो मुझे याद आता रहा देर तक, मैं ग़ज़ल गुनगुनाता रहा देर तक उसने पूछी मेरी ख़ैरियत वस्ल में मैं बहाने बनाता रहा देर तक उसने होठों में मुझको छुआ इस तरह ये बदन कँपकपता रहा देर तक उसके दिल में कोई चोर है इसलिये मुझसे नज़रे चुराता रहा देर तक भूख़ से मर गया फिर यहाँ इक किसान अब्र आँसू बहाता रहा देर तक मेरे हिस्से में जो ग़म पड़े ही नहीं शोक उनका मनाता रहा देर तक
जो शख़्स जान से प्यारा है पर करीब नहीं उसे गले से लगाना मेरा नसीब नहीं
वो जान माँगे मेरी और मैं न दे पाऊँ ग़रीब हूँ मैं मगर इस क़दर ग़रीब नहीं
हसीन चेहरों के अंदर फ़रेब देखा है मेरे लिए तो यहाँ कुछ भी अब अजीब नहीं
जो बात करते हुए बारहा चुराए नज़र तो जान लेना कि वो शख़्स अब हबीब नहीं
जिसे हुआ हो यहाँ सच्चा इश्क वो ‘चंदन’ बिछड़ भी जाएं अगर, तो भी बदनसीब नहीं
चन्द्रभान ‘चंदन’ रायगढ़, छत्तीसगढ़
भला इस मौत से ‘चंदन’ कोई कैसे मुकर जाए
करूँ तफ़सील अगर तेरी तो हर लम्हा गुज़र जाए, तुझे देखे अगर जी भर कोई तो यूँ ही मर जाए.. यहाँ हर शख्स मेरे दर्द की तहसीन करता है, भरे महफ़िल से शाइर उठ के जाए तो किधर जाए.. हर इक दिन काटना अब बन गया है मसअला मेरा, तेरे पहलूँ में बैठूँ तो मेरा हर ज़ख्म भर जाए.. यही सोचा था पागल ने बिछड़कर टूट जाऊँगा, अभी ज़िंदा है मेरा हौसला उस तक ख़बर जाए.. इरादा क़त्ल का हो और आँखों में मुहब्बत हो, भला इस मौत से ‘चंदन’ कोई कैसे मुकर जाए..
सियासत है, सियासत है.._ _मुझे तुम याद आती हो, शिकायत है, शिकायत है.._ _जिधर देखूं तुम्ही तुम हो, मुहब्बत है, मुहब्बत है.._ _तेरे रुखसार का डिम्पल, कयामत है, कयामत है.._ _मिरे खाबों में आती हो, शरारत है, शरारत है.._ _नहीं करता तुम्हें बदनाम, शराफ़त है, शराफ़त है.._ _मुझे बर्बाद करके वो, सलामत है, सलामत है.._ _तुम्हें मैं किस तरह भूलूँ, ये आदत है, ये आदत है.._ _तुम्हारे ख़ाब हो पूरे, इबादत है, इबादत है.._