भग्नावशेष
ये भग्नावशेष है।
यहाँ नहीं था कोई मंदिर
न थी कोई मस्जिद ।
न ही यह किसी राजे महाराजों की
मुहब्बत का दिखावा था।
यहाँ नहीं कोई रंगमहल
न ही दीवाने आम
दीवाने खास।
न ही स्नानागार न स्विमिंग पूल।
न खिड़की न झरोखे।
न झालरें।
न कुर्सियाँ न सोफे।
बंदूकें न तोपें।
यहाँ कभी गूँजी नहीं घोड़ों की टापें।
यहाँ खूँटों में बंधते थे बैल और गाय
यहाँ बुलंद दरवाजा की जगह थी
एक बाँस की टट्टी ।
और दीवारों पर ठुकी
बाँस की खूँटियों में टँगे होते थे
नांधा पैना और बैलों की घंटी।
अभी भी बचे हैं जो भग्नावशेष
कुछ फूस ,कुछ खपड़े ।
कुछ ढही हुई मिट्टी की दीवारें।
जो पिछली बरसात को झेल नहीं पाए थे।
और इसी में दबकर मर गए थे
धनिया और गोबर
दो बैल और एक गाय ।
जिनका इतिहास में कहीं कोई जिक्र नहीं।
आज भी यहाँ एक पिचकी हुई देगची
एक मिट्टी की हांडी
एक टूटे हुए हत्थे की कड़ाही
एक फावड़ा और कुल्हाड़ी
जिन्हें पता है कि यहाँ रहते थे
गोबर और धनिया
खेत से उपजाते थे अन्न।
और पड़ोस में साग भाजी बाँटते थे खाते थे।
उनकी यादों को सँजोए मौन हैं
उन्हें इतनी सुध नहीं
कि बता सकें
वे किसके थे और कौन हैं।
सुनील गुप्ता केसला रोड सीतापुर सरगुजा छत्तीसगढ