Category: हिंदी कविता

  • सर्दी मौसम पर कविता

    सर्दी मौसम पर कविता

    वो जाड़े की रात, ओस की बरसात,
    वो दिन का कुहासा, पढ़ने की आशा,
    बासंती पवन, मस्त होता है मन,
    वो ताजी हवाएं ,ये महकी फिजायें
    बहुत खूब भाता है सर्दी का मौसम ।।


    सर्द जाड़े की आग, मालकौस की राग,
    वो धान की कटनी , पुदीने की चटनी,
    वो सरसों का साग, ठंड रातों का आग,
    वो अरहर की दलिया मटर वाली फलियां,
    बहुत खूब भाता है सर्दी का मौसम ।।


    वो दीन का निकलना ,पता भी न चलना ,
    वो पुस का महीना, गर्म दूध पीना,
    कोयल का कुहकना, फूलों का महकना ,
    वो मोटी पोशाक, जीने की आस,
    बहुत खूब भाता है सर्दी का मौसम ।।


    वो आग वाली लिटी, हाँ जानम की चिठ्ठी ,
    वो प्रियतम की यादें, कसकती वो बातें,
    वो चेहरा नुरानी ,हाँ लड़की दीवानी ,
    ठंड में गर्म खाना, उनका मुस्कुराना,
    बहुत खूब भाता है सर्दी का मौसम ।


    कवि बाके बिहारी बरबीगहीया✒️

  • मेरी पलकें नमाज़ी हुई

    मेरी पलकें नमाज़ी हुई

    मेरी  पलकें  नमाज़ी  हुई  तेरे  दीदार  से
    नूर बरसता है यूँ पाक़  तेरे रुख़सार से ।
    मुजस्सिम ग़ज़ल हो मेरी, उम्र की ताजमहल का
    बेयक़ीन  हुआ  नहीं  मैं  इश्क़  में  ऐतबार  से ।
    गोया  कि  तुम  मेरे हाथ  की लकीर हो या रब
    हाथ  होता  नहीं  तो  क्या  होता जाँ निसार से ।
    मसरूफ़ियत  में  भी  हमने  सजदे  किये  तेरे
    वीरान  जज़ीरे  में  बाहर  आई  फिर प्यार  से ।
    शैदाई  हैं  शराफ़त  के हम   सुख़नवर ऐ  “अब्र”
    तसबीह-ए-दिल छोड़कर , सब ले जाओ क़रार से ।

    कलम से
    राजेश पाण्डेय “अब्र”
             अम्बिकापुर

  • सूरज का है आमंत्रण

    सूरज का है आमंत्रण

    अंधेरों से बाहर आओ,
    सूरज का है आमंत्रण!
    बिखरो न यादों के संग,
    बढ़ो,लिए विश्वासी मन!
    अतीत के पन्नों पर नूतन,
    गीत गज़ल का करो सृजन!
    भीगी आंखों को धोकर,
    भर लो अब तुम नवजीवन!
    खुशियों को कर दो ‘अर्पण’,
    जियो औरों की ‘प्रेरणा’बन!!

    -डॉ. पुष्पा सिंह’प्रेरणा’

  • प्यार एक दिखावा

    प्यार एक दिखावा

    न कसमें थीं न वादे थे
    फिर भी अच्छे रिश्ते थे
    आखों से बातें होती थीं
    कुछ कहते थे न सुनते थे
    न आना था न जाना था
    छत पर छुप कर मिलते थे
    वो अपनी छत हम अपनी छत
    बस दूर से देखा करते थे
    अब कसमें है और वादे है
    और प्यार एक दिखावा है
    आखों से कुछ कहना मुश्किल
    होंठ ही सब कुछ कहते हैं
    दिल में  जाने क्या है किसके
    ऊपर से प्रेम जताते हैं
    बात बात पर लड़ते हैं
    इक दूजे पर हक जताते हैं
    छत पर अब कैसा मिलना
    बंद कमरे ढूँढा करते हैं
    प्यार अब व्यापार बन गया
    रिश्ते बदले मतलब में
    दिल में जाने क्या बसता है
    इक दूजे की खातिर
    समझ न कोई पाता है
    परिवार और समाज  के डर से
    बेमन से रिश्ते निभाते हैं ।।।।।।

    राकेश नमित

  • तीन ताँका – प्रदीप कुमार दाश

    तीन ताँका

    नेकी की राह
    छोड़ते नहीं पेड़
    खाये पत्थर
    पर देते ही रहे
    फल देर सबेर ।

    जेब में छेद
    पहुँचाता है खेद
    सिक्के से ज्यादा
    गिरते यहाँ रिश्ते
    अचरज ये भेद ।

    डूबा सूरज
    डूबते वक्त दिखा
    रक्तिम नभ
    लौट रहे हैं नीड़
    अनुशासित खग ।       

    ~ ● ~ □ प्रदीप कुमार दाश “दीपक”