Category: हिंदी कविता

  • 30 जनवरी महात्मा गांधी पुण्यतिथि पर कविता

    30 जनवरी महात्मा गांधी पुण्यतिथि पर कविता

    महात्मा गांधी पुण्यतिथि पर कविता

    mahatma gandhi
    mahatma ghandh

    • बाबूलाल शर्मा ‘प्रेम’

    स्वतन्त्रता के अमर पुजारी, सत्य-अहिंसा के व्रतधारी !

    बापू, तुम्हें प्रणाम बापू, तुम्हें प्रणाम !

    देश-प्रेम का पाठ पढ़ाने, दुखियों का दुःख-दर्द मिटाने ।

    प्राण देश के लिए दे दिए और गए सुर-धाम !

    बापू, तुम्हें प्रणाम बापू, तुम्हें प्रणाम !

    लड़ते रहे न्याय के हित में, अपना सुख छोड़ा परहित में।

    श्रम सेवा का दीप तुम्हारा, जलें सदा अविराम !

    बापू, तुम्हें प्रणाम — बापू, तुम्हें प्रणाम !

    पद-चिह्नों पर चलें तुम्हारे, हमें शक्ति दो, बापू प्यारे !

    कठिनाई से लड़ना सीखें, जाने शीत न घाम !

    बापू, तुम्हें प्रणाम बापू, तुम्हें प्रणाम !

    जय बोल

    • मैथिलीशरण गुप्त

    खुली है कूटनीति की पोल,

    महात्मा गांधी की जय बोल ।

    नया पन्ना पलटे इतिहास,

    हुआ है नूतन वीर्य विकास,

    विश्व, तू ले सुख से नि:श्वास,

    तुझे हम देते हैं विश्वास ।

    आत्म-बल धारण कर अनमोल,

    महात्मा गांधी की जय बोल ।

    देख कर वैर, विरोध, विनाश,

    पड़ गया है नीला आकाश,

    किन्तु अब पशु-बल हुआ हताश,

    कटेगा पराधीनता – पाश ।

    उठा ईश्वर का आसन डोल,

    महात्मा गांधी की जय बोल ।

  • गोपालकृष्ण गोखले पुण्यतिथि पर कविता

    इसे सुनेंगोपाल कृष्ण गोखले (9 मई 1866 – 19 फरवरी 1915) भारत के एक स्वतंत्रता सेनानी, समाजसेवी, विचारक एवं सुधारक थे। महादेव गोविन्द रानडे के शिष्य गोपाल कृष्ण गोखले को वित्तीय मामलों की अद्वितीय समझ और उस पर अधिकारपूर्वक बहस करने की क्षमता से उन्हें भारत का ‘ग्लेडस्टोन’ कहा जाता है।

    गोपालकृष्ण गोखले पुण्यतिथि पर कविता:

    गोपालकृष्ण गोखले पुण्यतिथि पर कविता

    मानस्पद गोखले की मृत्यु पर

    ● गोपाल शरणसिंह

    जो निज प्यारी मातृ-भूमि का सुख सरोज विकसाता था,

    अन्धकार अज्ञान रूप जो हरदम दूर हटाता था ।

    अतिशय आलोकित था सारा भरत खण्ड जिसके द्वारा,

    हाय ! अचानक हुआ अस्त है वही हमारा रवि प्यारा ॥ १ ॥

    था जिसका प्रकाश-पथ- दर्शक हम लोगों का सुखकारी,

    था जिसका अभिमान सर्वदा देश बन्धुओं को भारी ।

    भारत-रूपी नभ में अतिशय चमक रहा था जो प्यारा,

    हाय सदा को लुप्त हो गया वहा अति दीप्तिमान तारा ॥२॥

    भरतभूमि पर हाय ! अचानक बड़ी आपदा है आई,

    जहां देखिये वहां आज है घटा उदासी की छायी।

    उस नर – रत्न बिना भारत में अन्धकार छाया वैसा,

    निशि में दीपक बुझ जाने से छा जाता, घर में जैसा ||३||

    जिसको प्यारी मातृभूमि की सेवा ही बस भाती थी,

    भोजन, वसन, शयन को चिन्ता जिसको नहीं सताती थी।

    जो अवलम्ब रहा भारत का, जो था उसका दृग-तारा,

    कुटिल काल ने छीन लिया वह उसका पुत्र रत्न प्यारा ॥४॥

    भारत के स्वत्वों की रक्षा कौन करेगा अब वैसी-

    निर्भयता के साथ सर्वदा उस नर वर ने की जैसी ।

    उसे तनिक भी व्यथित देखकर कौन विकल हो जाएगा,

    उसके हित अब उतने सच्चे सेवक कौन बनाएगा ||५||

    विपत्काल में भारतवासी किसको सकरुण देखेंगे ?

    किसको अपना सच्चा नेता अब वे हरदम लेखेंगे ?

    राजनीति की कठिन उलझनें कौन भला सुलझावेगा ?

    कौन हाय ! जातीय सभा (कांग्रेस) का बेड़ा पार लगावेगा ॥ ६ ॥

    भारत माता के हित जो सब क्लेश सहर्ष उठाता था,

    उसकी उन्नति-वेलि सींचकर जो सर्वदा बढ़ाता था ।

    राजा और प्रजा दोनों को जो था प्यारा सुखकारी,

    वह क्या है उठ गया, देश पर गिरा वज्र है दुखकारी ॥७॥

    तृण सम त्याज्य जिसे स्वदेश हित अपना सुख-सम्मान रहा,

    जिसके मृदुल हृदय में संतत देश-भक्ति का स्रोत बहा ।

    सबसे अधिक लगी थी जिससे भारत की आशा सारी,

    उस नरवर-सा कौन आज है भरत-भूमि का हितकारी ॥८॥

    जिसने अपनी मातृभूमि को था अर्पण सर्वस्व किया,

    विद्या – बुद्धि सहित जीवन था जिसने उस पर वार दिया।

    ऐसा पुत्र रत्न निज कोई देश अभागा यदि खोये,

    तो सिर धुनकर बिलख-बिलखकर क्यों न शोक से वह रोये ॥ ९ ॥

    क्या कहकर भारत माता को हाय ! आज हम समझावें,

    हों जिनसे उसका आश्वासन शब्द कहां ऐसे पावें ।

    कभी धैर्य धारण कर सकती क्या वह जननी बेचारी,

    खोई है जिसने निज अनुपम प्राणोपम सन्तति प्यारी ॥१०॥

  • 13 अप्रैल बेगुनाहों पर बमों की बौछार पर कविता

    ● सरयू प्रसादर

    बेगुनाहों पर बमों की बेखबर बौछार की,

    दे रहे हैं धमकियाँ बंदूक की तलवार की ।

    बागे-जलियाँ में निहत्थों पर चलाई गोलियाँ,

    पेट के बल भी रेंगाया, जुल्म की हद पार की ॥

    हम गरीबों पर किए जिसने सितम बेइंतिहा,

    याद भूलेगी नहीं उस डायरे-बदकार की ।

    या तो हम भी मर मिटेंगे या तो ले लेंगे स्वरात,

    होती है इस बार हुज्जत खतम अब हर बार की ॥

    शोर आलम में मचा है लाजपत के नाम का,

    ख्वार करना इनको चाहा, अपनी मिट्टी ख्वार की ।

    जिस जगह पर बंद होगा तन शेरे-पंजाब का,

    आबरू बढ़ जाएगी उस जेल की दीवार की ॥

    जेल में भेजा हमारे लीडरों को बेकसूर,

    लॉर्ड हार्डिंग तुमने अच्छी न्याय की भरमार की ।

    खूने मजलूमों की ‘सूरत’ अब तो गहरी धार है,

    कुछ दिनों में डूबती है आबरू अगियार की।

  • 31 अक्टूबर इंदिरा गांधी पुण्यतिथि पर कविता

    31 अक्टूबर इंदिरा गांधी पुण्यतिथि पर कविता

    ये जमीं रो पड़ी

    ● राजेंद्र राजा

    ये जमीं रो पड़ी आसमाँ रो पड़ा ।

    भोर होते ही सारा जहाँ रो पड़ा ।।

    छोड़कर साथ सबका जुदा जब हुई।

    राह चलता हुआ कारवाँ रो पड़ा ।।

    यूँ अकारण ही सोते हुए देखकर ।

    गाँव, कूँचा, गली हर मकाँ रो पड़ा ।

    फूल को यूँ पड़ा देखकर धूल में।

    डाल के साथ ही बागबाँ रो पड़ा ।

    ओढ़कर जब चलीं वे यहाँ से कफन ।

    जो जहाँ पर खड़ा था वहाँ रो पड़ा ।

    बालकों को दिलासा क्या देते भला ।

    जब वृद्ध स्वयं हर जवाँ रो पड़ा ।।

    कौन होगा यतीमों का राजा यहाँ ।

    सोचकर ही यह सारा समाँ रो पड़ा ।

    लिखते-लिखते गीत अचानक मातम

    ० राजेंद्र राजा

    लिखते-लिखते गीत अचानक मातम गाने लगी लेखनी।

    पल भर में ही मौसम बदला रुदन मचाने लगी लेखनी ॥

    आज अहिंसा के सीने में फिर हिंसा ने गोली मारी,

    धरती काँपी अंबर सहमा दर्द सुनाने लगी लेखनी ॥

    सूरज तो निकला था लेकिन चेहरे पर मुसकान नहीं थी,

    दिन क्यूँ बदला अँधियारे में, हमें बताने लगी लेखनी ॥

    विश्वासों के ऊपर कोई अब कैसे विश्वास करेगा,

    अपने ही कुत्तों का काटा जख्म दिखाने लगी लेखनी ॥

    जिसने घर को स्वर्ग बनाया द्वार-द्वार खुशियाँ बिखराईं,

    मौन देखकर उस देवी को, हमें रुलाने लगी लेखनी ॥

    कल क्या होगा इस बगिया का कौन बचाएगा पतझर से ?

    आँसू के सागर में डूबी प्रश्न उठाने लगी लेखनी ॥

    जो सबका प्यारा होता है उसको ‘मौत’ नहीं आती है,

    अमर हुई भारत की बिटिया, धीर बँधाने लगी लेखनी ॥

  • 19 नवम्बर झाँसी की रानी लक्ष्मी बाई पुण्यतिथि पर कविता

    खूब लड़ी मरदानी

    सुभद्राकुमारी चौहान

    बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,

    खूब लड़ी मरदानी वह तो झाँसीवाली रानी थी।

    सिंहासन हिल उठे, राजवंशों ने भृकुटी तानी थी,

    बूढ़े भारत में भी आई, फिर से नई जवानी थी,

    गुमी हुई आजादी की कीमत सबने पहचानी थी,

    दूर फिरंगी को करने की, सबने मन में ठानी थी,

    चमक उठी सन सत्तावन में, वह तलवार पुरानी थी।

    कानपूर के नाना की मुँहबाली बहन ‘छबीली’ थी,

    लक्ष्मीबाई नाम, पिता की वह संतान अकेली थी,

    नाना के संग पढ़ती थी, वह नाना के संग खेली थी,

    बरछी, ढाल, कृपाण, कटारी, उसकी यही सहेली थी,

    वीर शिवाजी की गाथाएँ, उसको याद जबानी थी।

    लक्ष्मी थी या दुर्गा थी वह, स्वयं वीरता की अवतार,

    देख मराठे पुलकित होते उसकी तलवारों के वार,

    नकली युद्ध, व्यूह की रचना और खेलना खूब शिकार,

    सैन्य घेरना, दुर्ग तोड़ना, ये थे उसके प्रिय खिलवार,

    महाराष्ट्र, कुल देवी उसकी भी आराध्य भवानी थी।

    हुई वीरता की वैभव के साथ सगाई झाँसी में,

    ब्याह हुआ रानी बन आई, लक्ष्मीबाई झाँसी में,

    राजमहल में बजी बधाई, खुशियाँ छाई झाँसी में,

    चित्रा ने अर्जुन को पाया, शिव को मिली भवानी थी।

    उदित हुआ सौभाग्य मुदित, महलों में उजियाली छाई,

    किंतु कालगति चुपके-चुपके, काली घटा घेर लाई,

    तीर चलाने वाले कर में, उसे चूड़ियाँ कब भाईं,

    रानी विधवा हुई, हाय ! विधि को भी नहीं दया आई,

    निःसंतान मरे राजा जी, रानी शोक समानी थी।

    बुझा दीप झाँसी का तब डलहौजी मन में हरषाया,

    राज्य हड़प करने का उसने वह अच्छा अवसर पाया,

    फौरन फौजें भेज दुर्ग पर अपना झंडा फहराया,

    लावारिस का वारिस बनकर ब्रिटिश राज झाँसी आया,

    अश्रुपूर्ण रानी ने देखा झाँसी हुई विरानी थी ।

    अनुनय-विनय नहीं सुनता है, विकट शासकों की माया,

    व्यापारी बन दया चाहता था यह जब भारत आया,

    डलहौजी ने पैर पसारे, अब तो पलट गई काया,

    राजा और नवाबों को भी उसने परों ठुकराया,

    रानी दासी बनी, बनी वह दासी अब महारानी थी।

    छीनी राजधानी देहली की, लखनऊ छीना बातों-बात,

    कैद पेशवा था बिठूर में हुआ नागपूर का भी घात,

    उदेपूर, तंजौर, सतारा, करनाटक की कौन बिसात,

    जबकि सिंध, पंजाब, ब्रह्म पर अभी हुआ था वज्र निपात,

    बंगाले, मद्रास आदि की भी तो वही कहानी थी।

    रानी रोई रनिवासों में, बेगम गम से थीं बेजार,

    उनके गहने कपड़े बिकते थे कलकत्ते के बाजार,

    सरे आम नीलाम छापते थे, अंग्रेजों के अखबार,

    नागपुर के जेवर ले लो, लखनऊ के नौलख हार,

    यों परदे की इज्जत परदेसी के हाथ बिकानी थी।

    कुटियों में थी विकल वेदना महलों में आहत अपमान,

    वीर सैनिकों के मन में था अपने पुरखों का अभिमान,

    नाना धुंधूपंत पेशवा जुटा रहा था सब सामान,

    बहिन छबीली ने रणचंडी का कर दिया प्रकट आह्वान,

    हुआ यज्ञ आरंभ उन्हें तो सोई ज्योति जगानी थी।

    महलों ने दी आग झोंपड़ीं ने ज्वाला सुलगाई थी,

    यह स्वतंत्रता की चिंगारी अंतरतम से आई थी,

    झाँसी चेती, दिल्ली चेती, लखनऊ लपटें छाई थी,

    मेरठ, कानपुर, पटना ने भारी धूम मचाई थी,

    जबलपुर, कोल्हापुर में भी कुछ हलचल उकसानी थी।

    इस स्वतंत्रता महायज्ञ में कई वीरवर आए काम,

    नाना धुंधूपंत ताँतिया, चतुर अजीमुल्ला सरनाम,

    अहमदशाह मौलवी ठाकुर कुँवरसिंह सैनिक अभिराम,

    भारत के इतिहास गगन में अमर रहेंगे जिनके नाम,

    लेकिन आज जुर्म कहलाती, उनकी जो कुर्बानी थी॥

    इनकी गाथा छोड़ चलें हम झाँसी के मैदानों में,

    जहाँ खड़ी है लक्ष्मीबाई मर्द बनी मर्दानों में,

    लेफ्टीनेंट बोकर आ पहुँचा आगे बढ़ा जवानों में,

    रानी ने तलवार खींच ली, हुआ द्वंद्व असमानों में,

    जख्मी होकर बोकर भागा उसे अजब हैरानी थी।

    रानी चढ़ी कालपी आई कर सौ मील निरंतर पार,

    घोड़ा थककर गिरा भूमि पर गया स्वर्ग तत्काल सिधार,

    यमुना तट पर अंग्रेजों ने फिर खाई रानी से हार,

    विजयी रानी आगे चल दी किया ग्वालियर पर अधिकार,

    अंग्रेजों के मित्र सिंधिया ने छोड़ी राजधानी थी।

    विजय मिली, पर अंग्रेजों की फिर सेना घिर आई थी,

    अब के जनरल स्मिथ सम्मुख था, उसने मुँह की खाई थी,

    काना और मंदिरा सखियाँ रानी के सँग आई थीं,

    युद्धक्षेत्र में उन दोनों ने भारी मार मचाई थी,

    पर पीछे ह्यूरोज आ गया, हाय घिरी अब रानी थी।

    तो भी रानी मार-काट कर चलती बनी सैन्य के पार,

    किंतु सामने नाला आया, था यह संकट विषम अपार,

    घोड़ा अड़ा, नया घोड़ा था, इतने में आ गए सवार,

    रानी एक, शत्रु बहुतेरें, होने लगे वार पर वार,

    घायल होकर गिरी सिंहनी, उसे वीरगति पानी थी।

    रानी गई सिधार, चिता अब उसकी दिव्य सवारी थी,

    मिला तेज से तेंज, तेज की वह सच्ची अधिकारी थी,

    अभी उम्र कुल तेईस की थी, मनुज नहीं अवतारी थी,

    हमको जीवित करने आई, बन स्वतंत्रता नारी थी,

    दिखा गई पथ, सिखा गई जो हमको सीख सिखानी थी।

    जाओ रानी, याद रखेंगे, ये कृतज्ञ भारतवासी,

    यह तेरा बलिदान जगावेगा स्वतंत्रता अविनाशी,

    होवे चुप इतिहास, लगे सच्चाई को चाहे फाँसी,

    हो मदमाती विजय, मिटा दें गोलों से चाहे झाँसी,

    तेरा स्मारक तू ही होगी, तू खुद अमर निशानी थी।

    बुंदेलों, हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी।

    खूब लड़ी मरदानी वह तो झाँसीवाली रानो थी ।

    इस समाधि में छिपी

    ● सुभद्राकुमारी चौहान


    इस समाधि में छिपी हुई है

    एक राख की ढेरी ।

    जलकर जिसने स्वतंत्रता की

    दिव्य आरती फेरी ॥

    यह समाधि, यह लघु समाधि, है

    झाँसी की रानी की।

    अंतिम लीलास्थली यही है

    लक्ष्मी मर्दानी की ॥

    यहीं कहीं पर बिखर गई वह

    भग्न विजय माला सी।

    उसके फूल यहाँ संचित हैं

    है यह स्मृति – -शाला सी।

    सहे वार पर वार अंत तक

    लड़ी वीर बाला-सी ।

    आहुति-सी गिर चढ़ी चिता पर

    चमक उठी ज्वाला-सी ॥

    बढ़ जाता है मान वीर का

    रण में बलि होने से ।

    मूल्यवती होती सोने की

    भस्म यथा सोने से |

    रानी से भी अधिक हमें अब

    यह समाधि है प्यारी ॥

    यहाँ निहित है स्वतंत्रता की

    आशा की चिनगारी ॥

    इससे भी सुंदर समाधियाँ

    हम जग में हैं पाते।

    उनकी गाथा पर निशीथ में

    क्षुद्र जंतु ही हैं गाते ॥

    पर कवियों की अमर गिरा में

    इसकी अमिट कहानी ।

    स्नेह और श्रद्धा से गाती

    है वीरों की बानी ॥

    बुंदेले हरबोलों के मुख

    हमने सुनी कहानी ।

    खूब लड़ी मर्दानी वह थी

    झाँसी वाली रानी ॥

    यह समाधि, यह चिर समाधि

    हैं झाँसी की रानी की।

    अंतिम लीलास्थली यही है।

    लक्ष्मी मर्दानी की ॥

    अमर रहे लक्ष्मीबाई

    ● डॉ. ब्रजपाल सिंह संत

    हिंदी भाषा, हिंदू, भोजन, सबके बन बैठे अधिकारी ।

    अंग्रेजी भाषा ही बोलो, था खान-पान मांसाहारी ।

    महारानी को पता लगा, अंग्रेज कुटिल हैं चालों में ।

    वे फूट डालते फिरते हैं, भारत माँ के रखवालों में।

    थी ‘ईस्ट इंडिया’ व्यापारी पर शासक बनकर छाई थी।

    सन् अठारह सौ सत्तावन में, वह सचमुच बनी कसाई थी।

    रानी बोली-अपनी झाँसी, सात स्वर्ग से न्यारी है।

    इस पर हम सब हैं बलिहारी, हमको प्राणों से प्यारी है।

    आँखें अँगारे बरसाती, बच्चा-बच्चा बन गया शोला ।

    झाँसी का कण-कण बोल उठा, जय माँ दुर्गा, शंकर भोला ।

    जय हो जय मात भवानी की, जय हो जय लक्ष्मी रानी की।

    जन-जन जयकारा गूँज उठा, जय हो झाँसी के पानी की।

    जय हो नारी के सतबल की, जय हो जय नर के संबल की।

    जय हो वीरों की हलचल की, हो सदा पराजय अरिदल की।

    अब झाँसी था आजाद राज, भगवा ध्वज ही लहराता था ।

    ‘शिव-गणेश’ के गीत गुँजा, झाँसी की महिमा गाता था ।

    कैसा फिर आया था दुर्दिन, कुछ उसका हाल बताता हूँ।

    गद्दार दुष्ट मन के मैले, उनके कुकृत्य सुनाता हूँ।

    घोड़े की बाग पकड़ मुख में, और कमर में फेंटा बाँध लिया।

    दोनों हाथों से तलवारें, ललकार निशाना साध लिया ।

    होली खेलूंगी खूनी मैं, दुश्मन का दल रक्तिम होगा ।

    रानी ने मन में सोच लिया, बस आज युद्ध अंतिम होगा ।

    चारों और शत्रु सेना, चमचम तलवारें चलती थीं।

    शत्रु के टुकड़े करती थी, मृत्यु भी हाथ मसलती थी।

    काटो मारो हल्ला बोला, रानी ने जंग जमाया था ।

    चंडी मात भवानी बन, गोरों का किया सफाया था ।

    नत्थू खाँ और नबाब अली ने गद्दारी का गुड़ खाया ।

    अंग्रेज हमें झाँसी देंगे, कितनों को कहकर बहकाया ।

    जनरल ह्यूरोज धूर्त ही था, वह महाकुटिल था चालों में।

    सब जमींदार जागीरदार, फँस गए मकड़ जंजालों में।

    पीर अली था वफादार, जो अब तक झाँसी रानी का ।

    वह जासूस बना खुफिया, महारानी की जिंदगानी का ।

    महलों के नक्शे दे आया, जनरल को अते-पते सारे।

    घर के चिराग से आग लगी, जल गए महल और चौबारे ।

    तोपची गौस खाँ देशभक्त, भाऊ बख्शी दमदार बने ।

    दुलहाजू राव और पीर बख्श वे छुपे हुए गद्दार बने ।

    अंग्रेज महापापी-कपटी, चालाक, अधर्मी, कुविचारी ।

    बेईमान, स्वार्थी, लंपट थे, तोतेचश्मी, अत्याचारी ।

    अठारह जून का दिन आया, रानी भुजदंड विशाल हुई।

    आँखों से निकली चिंगारी, वे जलती हुई मशाल हुई।

    रामचंद्र देशमुख आए थे, रघुनाथ सिंह की सैन चलीं।

    काना, मूँदड़ा, झलकारी सब सखियाँ रानी के संग चलीं।

    अरि दलन किए हो गई अमर, तब गंगादास आशीष दिया।

    तू सच्ची भारत बेटी थी, गद्दारों को अभिशाप दिया ।

    गद्दारों के मुँह पर थूको, जिसने गद्दारी दिखलाई ।

    स्वाधीन रहो आजादी ले, युगदूत बनी लक्ष्मीबाई ॥