तुम हो आकाश,
मैं हूं धरती
नज़र उठा कर सभी ने देखा तुम्हे
और हमेशा से
सभी ने रौंदा मुझे
मिलना चाहा जब-जब तुमने
मिले तुम तब-तब मुझसे
कभी बारिश बन कर
कभी आंधी बन कर
कभी चांदनी
तो कभी धूप बन कर
मगर मैं रही वहीँ हमेशा ही
जब हुए तुम खफा
तो वो भी दिखला दिया
कभी बिजली बन कर गरजे
कभी ढा दिया कहर बादल बन कर
और कभी बिल्कुल सुखा दिया
पर मैं न कह सकी व्यथा कभी
जब भर आया दिल
तो आ गया भूचाल
कभी फट गया ज्वालामुखी
पर उससे भी मेरा ही नाश हुआ
क्या इसलिए कि मैं धरती हूं
सहन कर सकती हूं
आदत पड़ चुकी है सहने की मुझे
भूल गई हूं
अपनी शक्ति
अपना विशाल अस्तित्व
नष्ट हो जाना चाहती हूं
पर पूरी तरह से
ताकि न फिर ये रूप पाऊं
नीचे रह कर भी
खुद को तुम सम पाऊं.
मंजु ‘मन’