मेरी पलकें नमाज़ी हुई
मेरी पलकें नमाज़ी हुई तेरे दीदार से
नूर बरसता है यूँ पाक़ तेरे रुख़सार से ।
मुजस्सिम ग़ज़ल हो मेरी, उम्र की ताजमहल का
बेयक़ीन हुआ नहीं मैं इश्क़ में ऐतबार से ।
गोया कि तुम मेरे हाथ की लकीर हो या रब
हाथ होता नहीं तो क्या होता जाँ निसार से ।
मसरूफ़ियत में भी हमने सजदे किये तेरे
वीरान जज़ीरे में बाहर आई फिर प्यार से ।
शैदाई हैं शराफ़त के हम सुख़नवर ऐ “अब्र”
तसबीह-ए-दिल छोड़कर , सब ले जाओ क़रार से ।
✒कलम से
राजेश पाण्डेय “अब्र”
अम्बिकापुर