बाबूलाल बौहरा के कुण्डलियाँ छंद
संवेदना -कुण्डलिया छंद
होती है संवेदना, कवि पशु पंछी वृक्ष।
मानव मानस हो रहे, स्वार्थ पक्ष विपक्ष।
स्वार्थ पक्ष विपक्ष, शून्य संवेदन बनते।
जाति धर्म के वाद,बंधु आपस में तनते।
भूल रहे संस्कार,खो रहे संस्कृति मोती।
हो खुशहाल समाज,जब संवेदना होती।
बढ़ती है संवेदना, राज धर्म संग साथ।
व्यक्ति वर्ग समाज भी,रखें मनुजता माथ।
रखें मनुजता माथ, मान मानव मन होवेें।
मिल के हो संघर्ष, शक्ति आतंकी खोवें।
समझें मनु की बात,अराजकतायें घटती।
सत्ता साथ समाज, तब संवेदना बढ़ती।
बाबू लाल शर्मा, “बौहरा”
सिकंदरा, दौसा,राजस्थान
अधिकार पर कुण्डलिया
भारत के संविधान में,दिए मूल अधिकार।
मानवता हक में रहे, लोकतंत्र सरकार।
लोकतंत्र सरकार, लोक से निर्मित होती।
भूलो मत कर्तव्य, कर्म ही सच्चे मोती।
कहे लाल कविराय, अकर्मी पाते गारत।
मिले खूब अधिकार,सुरक्षा अपने भारत।
दाता ने हमको दिया, जीवन का अधिकार।
बुरी आदतें छोड़ दें, अपने को मत मार।
अपने को मत मार,समझ सुकृत मानव के।
पर पीड़ा का पंथ, कहाते मग दानव के।
कहे लाल कविराय,करे सब भला विधाता।
निभे सतत कर्तव्य, कर्मफल देंगे दाता।
बाबू लाल शर्मा “बौहरा”
सिकंदरा, दौसा,राजस्थान
साधु
ऐसे सच्चे साधु जन, जैसे सूप स्वभाव।
यह तो बीती बात है, शेष बचा पहनाव।
शेष बचा पहनाव,तिलक छापे ही खाली।
जियें विलासी ठाठ, सुनें तो बात निराली।
कहे लाल कविराय, जुटाते भारी पैसे।
सुरा सुन्दरी शान, बने स्वादू अब ऐसे।
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टोले साधु सनेह जन, चेले चेली संग।
कार गाड़ियाँ काफिला, सुरा सुन्दरी भंग।
सुरा सुन्दरी भंग, विलासी भाव अनोखे।
दौलत के हैं दास, ज्ञान ये बाँटे चोखे।
बुरे कर्म तन लाल, धर्म धन के बम गोले।
नाम कथा सत्संग, माल ठगते ये टोले।
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बाबू लाल शर्मा, बौहरा
सिकंदरा,दौसा,राजस्थान
ऋतु फागुन
लाया अलि ऋतुराज अब, पछुआ शुष्क समीर!
प्राकृत रीति प्रतीत जग, चुभे मदन मन तीर!
चुभे मदन मन तीर, लता तरु वन बौराए!
चाहत प्रीत सजीव, मदन तन मन दहकाए!
कहे “लाल” कविराय, विहग पशु जन भरमाया!
मृग आलिंगन बद्ध, मिलन ऋतु फागुन लाया!
बाबू लाल शर्मा, बौहरा
सिकंदरा दौसा राजस्थान
अबला नारी को कहे, होता है अपमान।
बल पौरुष की खान ये,सबको दे वरदान।
सबको दे वरदान, ईश भी यह जन्माए।
महा बली विद्वान, धीर नारी के जाए।
देश रीति इतिहास,बदलती धरती सबला।
करें आत्मपहचान, नहीं ये होती अबला।
होती पीड़ा प्रसव में, छूट सके ये प्रान।
जानि गर्भ धारण करे,नारी सबल महान।
नारी सबल महान, लहू से संतति सींचे।
खान पान सब देय,श्वाँस जो अपने खींचे।
सूखे में शिशु सोय, समझ गीले में सोती।
ममता सागर नारि, तभी ये सबला होती।
सबला ममता के लिए,त्याग सके हैं प्रान।
देश धर्म मर्याद हित, ले भी सकती जान।
ले भी सकती जान,जान इतिहास रचाती।
पढ़लो पन्ना धाय, और जौहर जज्बाती।
देती लेती जान, जान क्यों कहते अबला।
सृष्टि धरा सम्मान,नारि प्राकृत सी सबला।
बाबू लाल शर्मा “बौहरा”
सिकंदरा, दौसा,राजस्थान
सुन्दरता पर कुण्डलिया
सुन्दर अपना देश है, सुन्दर जग में शान।
वन्य खेत गिरि मेखला,सरिता सिंधु महान।
सरिता सिंधु महान, ऋतु ये हैं मन भावन।
पेड़,गाय,जल,आग, इन्हे मानें हम पावन।
कहे लाल कविराय, बरसते यहाँ पुरंदर।
सुन्दर सोच विचार, बोल भाषा सब सुन्दर।
वंदन सुन्दर हो रहा, सुन्दर शुभ परिवेश।
सुन्दर फल फूलों सजे,सुन्दर जिसका वेश।
सुन्दर जिसका वेश, कहें हम भारत माता।
सागर चरण पखार, लगे ज्यों वंदन गाता।
कहे लाल कविराय,करें हम भी अभिनंदन।
सुन्दर साज सँवार, करें भारत माँ वंदन।
सुन्दरता मन की भली, तन को देखे भूल।
सिया स्वर्ण मृग देख के, भूली ज्ञान समूल।
भूली ज्ञान समूल, लोभ मन में गहराया।
जागा नहीं विवेक, विचित्र निशाचरि माया।
कहे लाल कविराय, छले सुन्दरता तन की।
सुन्दरता सत भाव, प्रीत गुण होती मन की।
कंचन वर्णी गात हो, गुण मर्याद विहीन।
सुन्दरता कैसे कहूँ, रीत प्रीत मति हीन।
रीत प्रीत मति हीन,गर्व जो तन पर करते।
सुन्दरता वह मान, मान हित देश पे मरते।
कहे लाल कविराय, शहीदी गाथा मंचन।
सुन्दरता मत मान, छलावा काया कंचन।
बाबू लाल शर्मा “बौहरा”
सिकंदरा,दौसा,राजस्थान
भारत वतन महान
भारत वतन महान है, विश्व गुरू पहचान।
लोकतंत्र सबसे बड़ा, सोन चिरैया मान।
सोन चिरैया मान, बहे नद पावन गंगा।
जन गण मन अरमान,रहे बस शान तिरंगा।
कहे “लाल” कविराय,बचे यह धरा अमानत।
वतन शान कश्मीर, तिरंगा अपना भारत।
आजादी, महँगी मिली, हुए लाल कुर्बान।
राज फिरंगी देश में,जन गण मन अपमान।
जन गण मन अपमान, रहे अंग्रेजी चंगा।
बलिदानों की बाढ़, लिये हर हाथ तिरंगा।
कहे लाल कविराय, हुई जागृत आबादी।
छिड़ी तिरंगे तान,मिली तब यह आजादी।
बाबू लाल शर्मा, बौहरा
दीवाली शुभ पर्व
माटी का दीपक लिया, नई रुई की बाति।
तेल डाल दीपक जला,आज अमावस राति।
आज अमावस राति, हार तम सें क्यों माने।
अपनी दीपक शक्ति, आज प्राकृत भी जाने।
कहे लाल कविराय, राति तम की बहु काटी।
दीवाली पर आज, जला इक दीपक माटी।
दीवाली शुभ पर्व पर, करना मनुज प्रयास।
अँधियारे को भेद कर, फैलाना उजियास।
फैलाना उजियास, भरोसे पर क्या रहना।
परहित जलना सीख,यही दीपक का कहना।
कहे लाल कविराय, रीति अपनी मतवाली।
करते तम से होड़, भारती हर दीवाली।
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बाबू लाल शर्मा, बौहरा
सिकंदरा,दौसा,राजस्थान
रंग बसंती संत
मधुकर बासंती हुए, भरमाए निज पंथ।
सगुण निर्गुणी बहस में, लौटे प्रीत सुपंथ।
लौटे प्रीत सुपंथ, हरित परवेज चमकते।
गोपी विरहा संत, भ्रमर दिन रैन खटकते।
कहे लाल कविराय,सजे फागुन यों मनहर।
कली गोपियों बीच, बने उपदेशी मधुकर।
भँवरा कलियों से करे, निर्गुण पंथी बात।
कली गोपियों सी सुने, भ्रमर कान्ह सौगात।
भ्रमर कान्ह सौगात,स्वयं का ज्ञान सुनाता।
देख गोपियन प्रेम,कली,अलि कृष्ण सुहाता।
कहे लाल कविराय, भ्रमर का जीवन सँवरा।
रंग बसन्ती सन्त, फिरे मँडराता भँवरा।
बाबू लाल शर्मा “बौहरा”
सिकंदरा,दौसा,राजस्थान
भाई दूज
चलती रीति सनातनी, पलती प्रीत विशेष!
भाई बहिना दोज पर, रीत प्रीत परिवेश!
रीत प्रीत परिवेश, हमारी संस्कृति न्यारी!
करे तिलक इस दूज,बंधु को बहिनें प्यारी!
शर्मा बाबू लाल, सुहानी संस्कृति पलती!
राखी भैया दूज, रीति भारत में चलती!
मीरा जैसी हो बहिन, ऐसा हो अरमान!
बहिन चाहती है सदा, भ्राता कृष्ण समान!
भ्राता कृष्ण समान,रखे सुख दुख में समता!
मात पिता सम प्यार, रखे जो सच्ची ममता!
शर्मा बाबू लाल, बहिन सब चाहत बीरा!
मिलते सब सौभाग्य, सभी को बहिना मीरा!
(बीरा~भाई)
भैया , भैया दूज पर, ले भौजाई संग!
मेरे घर आजाइयो, चाहत मनो विहंग!
चाहत मनो विहंग, याद पीहर की आती!
कर बचपन की याद,आज भर आई छाती!
शर्मा बाबू लाल, बहिन अरु गैया, मैया!
रख तीनों का मान, दूज पर प्यारे भैया!
✍©
बाबू लाल शर्मा,बौहरा
सिकंदरा,दौसा, राजस्थान
कविता
कविता काव्य कवित्त के, करते कर्म कठोर।
कविजन केका कोकिला,कलित कलम की कोर।
कलित कलम की कोर, करे कंटकपथ कोमल।
कर्म करे कल्याण, कंठिनी काली कोयल।
कहता कवि करजोड़, करूँ कविताई कमिता।
काँपे काल कराल, कहो कम कैसे कविता।
कमिता ~कामना
…… बाबू लाल शर्मा,बौहरा
चितवन
चंचल चर चपला चषक, चण्डी चूषक चाप्!
चितवन चीता चोर चित, चाह चुभन चुपचाप!
चाह चुभन चुपचाप, चाल चल चल चतुराई!
चमन चहकते चंद, चतुर्दिश चष चमचाई!
चाबुक चण्ड चरित्र, चतुर चतुरानन चंगुल!
चारु चमकमय चित्र, चुनें चॅम चंदन चंचल!
*चॅम ~ मित्र, चष ~ दृश्य शक्ति या नेत्र रोग*
बाबू लाल शर्मा,बौहरा
हिन्दी हिन्दुस्तान की
१
हिन्दी हिन्दुस्तान की, भाषा मात समान।
देवनागरी लिपि लिखें, सत साहित्य सुजान।
सत साहित्य सुजान, सभी की है अभिलाषा।
मातृभाष सम्मान , हमारी अपनी भाषा।
सजे भाल पर लाल, भारती माँ के बिन्दी।
भारत देश महान, बने जनभाषा हिन्दी।
२
भाषा संस्कृत मात से, हिन्दी शब्द प्रकाश।
जन्म हस्तिनापुर हुआ, फैला खूब प्रभास।
फैला खूब प्रभास, उत्तरी भारत सारे।
तद्भव तत्सम शब्द, बने नवशब्द हमारे।
कहे लाल कविराय, तभी से जन अभिलाषा।
देवनागरी मान, बसे मन हिन्दी भाषा।
३
भाषा शब्दों का बना, बृहद कोष अनमोल।
छंद व्याकरण के बने, व्यापक नियम सतोल।
व्यापक नियम सतोल, सही उच्चारण मिलते।
लिखें पढ़ें अरु बोल, बने अक्षर ज्यों खिलते।
कहे लाल कविराय, मिलेगी सच परिभाषा।
हर भाषा से श्रेष्ठ, हमारी हिन्दी भाषा।
४
दोहा चौपाई रचे, छंद सवैया गीत।
सजल रुबाई भी हुए, अब हिन्दी मय मीत।
अब हिन्दी मय मीत, प्रवासी जन मन धारे।
कविताई का भाव, भरें ये कवि जन सारे।
हो जाता है लाल, तपे जब सोना लोहा।
तुलसी रहिमन शोध, बिहारी कबिरा दोहा।
५
भारत भू भाषा भली, हिन्दी हिंद हमेश।
सुंदर लिपि से सज रहे, गाँव नगर परिवेश।
गाँव नगर परिवेश, निजी हो या सरकारी।
हिन्दी हित हर कर्म, राग अपनी दरबारी।
कहे लाल कविराय, विरोधी होंगें गारत।
कर हिन्दी का मान, श्रेष्ठ तब होगा भारत।
६
हिन्दी सारे देश की, एकीकृत अरमान।
प्रादेशिक भाषा भले, प्रादेशिक पहचान।
प्रादेशिक पहचान, सभ्यता संस्कृति वाहक।
उनका अपना मान, विवादी बकते नाहक।
शर्मा बाबू लाल , सजे गहनों पर बिन्दी।
प्रादेशिक हर भाष, देश की भाषा हिन्दी।
७
वाणी देवोंं की कहें, संस्कृत संस्कृति शान।
तासु सुता हिन्दी अमित, भाषा हिंदुस्तान।
भाषा हिंदुस्तान, वर्ण स्वर व्यंजन प्यारे।
छंद मात्रिका ज्ञान, राग रस लय भी न्यारे।
गयेे शरण में लाल, मातु पद वीणा पाणी।
रचे अनेकों ग्रंथ, मुखर कवियों की वाणी।
बाबू लाल शर्मा
जाड़ा
जाड़ो पड़ गो जोर को, थर थर काँपै गात।
पाल़ो पड़तो फसल पै,होय जियाँ हिमपात।
होय जियाँ हिमपात, ओस रात्यूँ या टपकै।
म्हारै मरुधर माँय, गाय सूनी ही भटकै।
गाड़ोलिया लुहार, शरण उनकै बस गाड़ो।
सहै, घाम बरसात, बिगाड़ै काँई जाड़ो।
जाड़ा तू है खोड़लो,दुशमन गुरबत ढोर।
माकड़ कीट पखेरवाँ, विरहा बूढ़ै चोर।
बिरहा बूढ़ै चोर, शीत मैं थर थर काँपै।
होय साँस को रोग,जियाँ ये विरहा हाँपै।
खाँसू ल्यावै ढोर, रजाई बकरी,,पाड़ा।
किय्याँ करै मजूँर, पड़ै जद जोराँ जाड़ा।
पाणत फसलाँ मै करै,धरती पूत किसान।
रात रात रुल़ता फिरै, वै भी छै इंसान।
वै भी छै इंसान, आज गुरबत के मारै।
भूख नंग महादेव , भरै वै पेट हमारै।
शर्मा बाबू लाल, देय अब कुण नै लानत।
मंत्री,नेता दोय, एक दिन करल्यो पाणत।
चारो पटको माछल़ी, पंछी चींटी ढोर।
वस्त्र दान करताँ कहो,प्रात सबै शुभ भोर।
प्रात सबै शुभ भोर,लगै फिर जाड़ो थोड़ो।
गुड़ बाँटो अरु खाय, खींचड़ो होवै घोड़ो।
सबल़ाँ ताप अलाव, डरो क्यूँ जाड़ै यारो।
सबकी करो सहाय, बणैलो भाई चारो।
बाबू लाल शर्मा,”बौहरा”
सिकंदरा, दौसा,राजस्थान