उड़न सिक्ख मिल्खा सिंह जी, इक राजपूत राठौड़ भए। दौड़ दौड़ कर दुनियां में, दिल से दिल को जोड़ गए।।
वो उस भारत में जन्मे थे, जो आज पाक का हिस्सा है। कहूं विभाजन की क्या मैं, जो इक काला किस्सा है।। सिंह साक्षी थे उसके, जहां मारे कई करोड़ गए…
अपने प्रियजन मरते देखे, अपनी ही आंखों आगे। फिर भारत माँ की गोद चुनी, रिश्ते नाते सब त्यागे।। घर बार छोड़कर यूं भागे, ज्यूं सबसे ही मुंह मोड़ गए…
शरणार्थी शिविर शरण पाई, पर दौड़ रखी उसने जारी। भारतीय सेना हो भर्ती, खेली उसने नई पारी।। ये दर्द समय के दिए हुए, जीवन में सीखें छोड़ गए…
ये वही पाक की भूमि थी, आंखों में वही नज़ारा था। खालिक को हरा खरे सिख ने, मुंह आज तमाचा मारा था।। “फ्लाइंग सिख” तमगा पाया, सब पाकी दिल झंकझौड़ गए…
वो सैकिंड का सौंवां हिस्सा था, जो मिल्खा मान गंवारा था। जहां पाक धरा पर विजय मिली, वहीं रोम ओलंपिक हारा था।। चार्ल्स डिंकेंस से पा शिक्षा, कीर्तिमान कई तोड़ गए…
रजपूती रक्त रगों में था, पंजप्यारी ताकत कदमों में। वतन परस्ती के ज़ज़्बे, रहते थे हरदम सपनों में।। कभी-कभी तो धावक पथ पर, नंगे पैरों दौड़ गए…
पदकों की बरसात हुई, बड़ा मान और सम्मान मिला। मिल्खा ने परचम फहराया, तो पूरा हिंदुस्तान खिला।। जीवन दौड़ हुई पूरी, वो आज तिरंगा ओढ़ गए…
शिवराज सिंह चौहान नांधा, रेवाड़ी (हरियाणा) १८/१९-०६-२०२१
मात अभावे पिता संग में, जाने लगी दरबार। नाम “छबीली” पड़ा मनु का, पा लोगों का प्यार।। राजकाज में रुचि रखकर, होने लगी सयानी…
वाराणसी से वर के ले गए, नृप गंगाधर राव। बन गई अब झांसी की रानी, नवजीवन बदलाव।। पुत्र हुआ, लिया छीन विधाता, थी चार माह जिंदगानी…
अब दत्तक पुत्र “दामोदर”, दंपत्ति ने अपनाया। रुखसत हो गये गंगाधर, नहीं रहा शीश पे साया।। देख नजाकत मौके की, अब बढी दाब ब्रितानी…
छोड़ किला अब झांसी का, रण महलों में आई। “लक्ष्मी” की इस हिम्मत नें, अंग्रेजी नींद उड़ाई।। जिसको अबला समझा था, हुई रणचंडी दीवानी…
झांसी बन गई केंद्र बिंदु, अट्ठारह सौ सत्तावन में। महिलाओं की भर्ती की, स्वयंसेवक सेना प्रबंधन में।। हमशक्ल बनाई सेना प्रमुख, “झलकारी बाई” सेनानी…
सर्वप्रथम ओरछा, दतिया, अपनों ने ही बैर किया। फिर ब्रितानी सेना ने, आकर झांसी को घेर लिया।। अंग्रेजी कब्जा होते ही, “मनु” सुमरी मात भवानी…
ले “दामोदर” छोड़ी झांसी, सरपट से वो निकल गई। मिली कालपी, “तांत्या टोपे”, मुलाकात वो सफल रही।। किया ग्वालियर पर कब्जा, आंखों की भृकुटी तानी…
नहीं दूंगी मैं अपनी झांसी, समझौता नहीं करूंगी मैं। नहीं रुकुंगी नहीं झुकूंगी, जब तक नहीं मरूंगी मैं।। मैं भारत मां की बेटी हूं, हूं हिंदू, हिंदुस्तानी…
अट्ठारह जून मनहूस दिवस, अट्ठारह सौ अट्ठावन में। “मणिकर्णिका” मौन हुई, “कोटा सराय” रण आंगन में।। “शिवराज चौहान” नमन उनको, जो बन गई अमिट निशानी…
ः– *शिवराज सिंह चौहान* नांधा, रेवाड़ी (हरियाणा) १८-०६-२०२१
अक्सर खुद को साबित करने के लिए होना पड़ता है सामने . मुलजिम की भांति दलील पर दलील देनी पड़ती है .
फिर भी सामने खड़ा व्यक्ति वही सुनता है , जो वह सुनना चाहता है . हम उसके अभेद कानों के पार जाना चाहते हैं . उतर जाना चाहते हैं उसके मस्तिष्क पटल पर
बजाय ये सोचे कि क्या वास्तव में फर्क पड़ता है उसे? कहीं हमारी ऊर्जा और समय ऐसे तो नहीं खो रही है. बीच सफर में , किसी को साथ लेने की हसरत “बुरा तो नहीं “ अगर वह साथ होना चाहे.
मगर मनाना ,रिझाना , मेला सजाना मंजिल से पहले , मकसद भी नहीं . अब नहीं सजाऊंगा मेला रहना सीख जाऊंगा अकेला.
सब को साथ लेने के बजाय , स्वयं को ले जाने तक ही तो आसान नहीं . पीछे पलट देखूंगा नहीं , चाहे निस्तब्ध हो वातावरण . या फिर सुनाई पड़ती रहे और भी पैरों की आहट.