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  • लब पे आये मेरे खुदा नाम तेरा – अनिल कुमार गुप्ता “अंजुम”

    लब पे आये मेरे खुदा नाम तेरा – अनिल कुमार गुप्ता “अंजुम”

    kavita

    लब पे आये मेरे खुदा नाम तेरा
    सुबह हो या शाम ओ मेरे खुदा
    तेरे दीदार की हसरत हो मुझे
    तेरी कायनात से मुहब्बत हो मुझे
    हर इक शै से रूबरू करना मुझे
    अपने हर इक इल्म से नवाजो मुझको
    अपने दर का नूर बना लो मुझको


    मैं चाहता हूँ तेरा करम हो मुझ पर
    तेरा एहसास आसपास मेरे हो अक्सर
    गरीबों का सहारा बनूँ ओ मेरे खुदा
    लोगों की आँखों का तारा बनूँ ओ मेरे खुदा
    मुझे भी आसमां का इक तारा कर दो
    खिलूँ मैं चाँद की मानिंद कुछ ऐसा कर दो
    ए खुदाया तेरी रहमत तेरा करम हो मुझ पर
    तेरे साए में गुजारूं ये जिन्दगी ओ खुदा


    तू आसपास ही रहना मेरा रक्षक बनकर
    तेरे क़दमों पे बिछा दूं ये जिन्दगी मौला
    मैं तुझे चाहूँ तुझे अपनी जिन्दगी से परे
    कि मैं वार दूं खुद को तुझ पर ए खुदा
    कुछ ऐसा करना मैं रहूँ तेरे करम के काबिल
    तुझे हर वक़्त दिल के करीब पाऊँ ए मेरे खुदा
    लब पे आये मेरे खुदा नाम तेरा
    सुबह हो या शाम ओ मेरे खुदा

  • राम स्तुति / अनिल कुमार गुप्ता “अंजुम”

    राम स्तुति / अनिल कुमार गुप्ता “अंजुम”

    राम स्तुति / अनिल कुमार गुप्ता “अंजुम”

    shri ram hindi poem.j

    रघुनन्दन हे सबके प्यारे
    रामचंद्र तुम सबके दुलारे
    कौशल्या को तुम हो प्यारे
    दशरथ नंदन सबके प्यारे
    जय सीतापति जय हो राघव
    जय दशरथी जय जानकी बल्लभ
    जय रघुनन्दन जय श्री राम
    रावण को तुमने है तारा
    प्रिय विभीषण को गले लगाया
    सुग्रीव ने तुमसे जीवन पाया
    सबरी को भी मोक्ष दिलाया
    आदर्शों के तुम सो स्वामी
    हे प्रभु हे अन्तर्यामी
    अहिल्या ने भी जीवन पाया
    असुरों को भी प्रभु पार लगाया
    बने सबकी आँखों के तारे
    घर – घर आओ राम हमारे
    राम-राम जय राम – राम
    कर दो सबके पूर्ण काम
    निर्मल कर दो सबकी काया
    हर लो प्रभु जी सारी माया
    रघुनन्दन हे सबके प्यारे
    रामचंद्र तुम सबके दुलारे

  • चन्द्र स्तुति- अनिल कुमार गुप्ता “अंजुम”

    चन्द्र स्तुति- अनिल कुमार गुप्ता “अंजुम”

    चन्द्र स्तुति- अनिल कुमार गुप्ता "अंजुम"

    चंद्रलोक के तुम हो स्वामी
    हो प्रभु तुम नभ के वासी

    हे मयंक प्रभु हे रजनीश
    हे प्रकृति पोषक हे राकेश

    हे विधु प्रभु सोम हमारे
    हे रजनीश प्रकृति के दुलारे

    हे कलानिधि हे मयंक तुम
    कष्ट हरो प्रभु इंदु हमारे

    हे निशाकर तुम लगते प्यारे
    हे हिमांशु हे शशि हमारे

    हे शशांक तुम देव हमारे
    पुष्पित होते तुमसे हर अंश

    कुदरत पाती तुमसे जीवन
    यूं ही जीवन बरसाना तुम

    ताल सरोवर पुष्ट करो तुम
    शुभ ज्योत्स्ना बिखराओ तुम

    खिला तरंगिणी छ जाओ तुम
    अमृता सुधा हो बरसाते तुम

    कौमुदी चन्द्रिका धरा लाते तुम
    हे चाँद हे चंद्रमा तुम

    नभ में लगते सबसे प्यारे तुम
    पुष्ट करो हम सबका जीवन
    खिल जाए हर इक तन मन

  • परशुराम की प्रतीक्षा -रामधारी सिंह ‘दिनकर’

    परशुराम की प्रतीक्षा -रामधारी सिंह ‘दिनकर’

    परशुराम की प्रतीक्षा -रामधारी सिंह 'दिनकर'


    छोड़ो मत अपनी आन, शीश कट जाए,
    मत झुको अनय पर, भले व्योम फट जाए।


    दो बार नहीं यमराज कण्ठ हरता है,
    मरता है जो, एक ही बार मरता है।


    तुम स्वयं मरण के मुख पर चरण धरो रे।
    जीना है तो मरने से नहीं डरो रे॥


    आँधियाँ नहीं जिसमें उमंग भरती हैं,
    छातियाँ जहाँ संगीनों से डरती हैं।


    शोणित के बदले जहाँ अश्रु बहता है,
    वह देश कभी स्वाधीन नहीं रहता है।


    पकड़ो अयाल, अंधड़ पर उछल चढ़ो रे।
    करिचों पर अपने तन का चाम मढ़ो रे॥


    हैं दुखी मेष, क्यों लहू शेर चखते हैं,
    नाहक इतने क्यों दाँत तेज रखते हैं।


    पर शेर द्रवित हो दशन तोड़ क्यों लेंगे?
    मेषों के हित व्याघ्रता छोड़ क्यों देंगे?


    एक ही पन्थ, तुम भी आघात हनो रे।
    मेषत्व छोड़ मेषो! तुम व्याघ्र बनो रे॥


    जो अड़े, शेर उस नर से डर जाता है,

    है विदित, व्याघ्र को व्याघ्र नहीं खाता है।


    सच पूछो तो अब भी सच यही वचन है।
    सभ्यता क्षीण, बलवान हिंस्र कानन है।


    एक ही पंथ अब भी जग में जीने का,
    अभ्यास करो छागियो! रक्त पीने का।


    वे देश शान्ति के सबसे शत्रु प्रबल हैं,
    जो बहुत बड़े होने पर भी दुर्बल हैं,


    हैं जिनके उदर विशाल, बाँह छोटी है,
    भोंथरे दाँत, पर जीभ बहुत मोटी है।


    औरों के पाले जो अलज पलते हैं,
    अथवा शेरों पर लदे हुए चलते हैं।


    सिंहों पर अपना अतुल भार मत डालो,
    हाथियो! स्वयं अपना तुम बोझ सँभालो।


    यदि लदे फिरे, यों ही तो पछताओगे,
    शव मात्र आप अपना तुम रह जाओगे।


    यह नहीं मात्र अपकीर्ति, अनय की अति है,
    जानें कैसे सहती यह दृश्य प्रकृति है?


    उद्देश्य जन्म का नहीं कीर्ति या धन है,
    सुख नहीं, धर्म भी नहीं, न तो दर्शन है।


    विज्ञान, ज्ञान-बल नहीं, न तो चिन्तन है,
    जीवन का अन्तिम ध्येय स्वयं जीवन है।

    सबसे स्वतंत्र यह रस जो अनघ पियेगा,
    पूरा जीवन केवल वह वीर जियेगा।


    रामधारी सिंह ‘दिनकर’

  • मेरी अभिलाषा है -द्वारिकाप्रसाद माहेश्वरी

    मेरी अभिलाषा है -द्वारिकाप्रसाद माहेश्वरी

    प्रेरणा दायक कविता


    सूरज-सा दमकूँ मैं
    चंदा-सा चमकूँ मैं
    झलमल-झलमल उज्ज्वल
    तारों-सा दमकूँ मैं
    मेरी अभिलाषा है।


    फूलों-सा महकूँ मैं
    विहगों-सा चहकूँ मैं
    गुंजित कर वन-उपवन
    कोयल-सा कुहकूँ मैं
    मेरी अभिलाषा है।


    नभ से निर्मलता लूँ
    शशि से शीतलता लूँ
    धरती से सहनशक्ति
    पर्वत से दृढ़ता लूँ
    मेरी अभिलाषा है।


    मेघों-सा मिट जाऊँ
    सागर-सा लहराऊँ
    सेवा के पथ पर मैं
    सुमनों-सा बिछ जाऊँ
    मेरी अभिलाषा है।


    -द्वारिकाप्रसाद माहेश्वरी