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  • ये तो बस मूर्खों की पीढ़ी बनायेगा

    ये तो बस मूर्खों की पीढ़ी बनायेगा

    manibhainavratna
    manibhai navratna

    ये जानता नहीं अपनी मंजिल,  लक्ष्य के लिए कैसे सीढ़ी बनायेगा ?
    मूर्ख बनाने में शातिर महाप्रभु, ये तो बस मूर्खों की पीढ़ी बनायेगा ।।

    इसे स्वयं को जो भी अच्छा लगे, उसे सत्य मान लेता है।
    स्वयं को सच्चा परम ज्ञानी, दूसरों को झूठा जान लेता है।
    सच झूठ का पैमाना बनाया है स्वार्थ तुष्टिकरण के लिए
    भला कोई एक नजर में , कैसे सबको पहचान लेता है ?

    अब ये तो भले मानस ठहरे , मधुमेह रोगी को खीर मीठी खिलायेगा ।
    मूर्ख बनाने में शातिर महाप्रभु,  ये तो बस मूर्खों की पीढ़ी बनायेगा ।।

    मोबाइल, परफ्यूम, शाम की नशा, अब ये रोज की कहानी हो गई ।
    इस लल्लू ने लाली को देखा तो , धड़कन भी जैसे दीवानी हो गई ।।
    बन गया ये सूरज उसे बनाके चांद , जैसे जोड़ी आसमानी हो गई ।
    पर ये क्या हुआ ? क्रीम मुंह लगाते ही, सब तो पानी पानी हो गई ।

    गर उतर गया है नशा, तो देखे दशा, पर ये कोने में बीड़ी सुलगायेगा ।
    मूर्ख बनाने में शातिर महाप्रभु, ये तो बस मूर्खों की पीढ़ी बनायेगा ।।

    – मनीभाई नवरत्न

  • देवी के अनेक रूप / प्रिया शर्मा

    देवी के अनेक रूप / प्रिया शर्मा

    देवी दुर्गा के स्वयं कई रूप हैं (सावित्री, लक्ष्मी एव पार्वती से अलग)। मुख्य रूप उनका “गौरी” है, अर्थात शान्तमय, सुन्दर और गोरा रूप। उनका सबसे भयानक रूप “काली” है, अर्थात काला रूप। विभिन्न रूपों में दुर्गा भारत और नेपाल के कई मन्दिरों और तीर्थस्थानों में पूजी जाती हैं। माँ के अनेक रूप है इन महान माओ पर कविता बहार की कुछ अनमोल कविता –

    Maa Durga photo
    Maa Durga photo

    देवी के अनेक रूप / प्रिया शर्मा

    चंडी है, दुर्गा है, तू ही तो महाकाली है,

    वन-उपवन में तू ही तो फूलों को महकाती है।

    महिषासुर मर्दिनी है, तू ही शिव की शक्ति है,

    हर स्त्री में अंश तेरा ही, तू निष्ठा और भक्ति है।

    लक्ष्मी है, गौरी है, तू घुंघरू की झनकार है,

    ज्ञान की देवी तू ही, तू नारी का श्रृंगार है।

    सीता है, भगवद्गीता है, तू काली का अवतार है,

    चण्ड -मुण्ड संहारिणी है, तू तेजधार तलवार है।

    गंगा है, यमुना है, तू ही सृष्टि का आधार है,

    राधा तेरे नाम से इस जग में प्रेम भाव विस्तार है।

    अन्नपूर्णा है, अनसुइया है, तू अहिल्या सी नारी है,

    सबरी की भक्ति तू, तू द्रौपदी की विस्तृत साड़ी है।

    गीत तुझी से, साज तुझी से, तुझमें ज्ञान अपार है,

    भ्रमरों दी गुंजन तुझसे, नदियों की कलकल तुझसे, तुझमें सकल संसार है।

    प्रिया शर्मा

  • कल का दौर भी देखा -अक्षय भंडारी

    कविता संग्रह
    कविता संग्रह

    कल का दौर भी देखा
    आज का भी दौर
    देख रहा हु

    संभल कर चलु
    कब तक
    सोचता हूं वक्त
    आज बुरा है
    कल वक्त अच्छा भी
    आएगा

    वक्त संभलकर चलना
    आज दुनिया मे काल
    के रूप विकराल है
    आज सहना, ठीक रहना

    यू ही किसके जाने में
    कब वो दिन गुजर गए
    यू ही बिलख-बिलख
    कर आंसुओ की
    बून्द बहती अपनो में

    यू ही दर पर कब
    वो क्षण आ जाए
    आए तो कब वो
    क्षण गुजर जाए।

  • बेख़याल – कविता – मौलिक रचना – अनिल कुमार गुप्ता “अंजुम”

    kavita

    बेख़याल – कविता – मौलिक रचना – अनिल कुमार गुप्ता “अंजुम”

    बेख़याल बेअसर
    किंचित विक्षिप्त
    लग रहा है वो
    चला जा रहा है
    अपनी ही दुनिया में
    लोगों के दिलों में जगाता
    केवल एक ही भाव
    शायद पागल है ये
    सत्य के आईने में
    झाँकने के कोई
    तैयार नहीं
    कोई उसे बड्डा
    पागल कहता है
    तो कोई उसे झुमरू पागल
    की संज्ञा दे आगे बढ़ जाता है
    कभी कभी उसके
    तन पर अधफटे वस्त्रों
    को देख अर्धनग्न
    देख उसके तन को ढंकने
    कहीं न कहीं
    मन में एक कचोट
    का अनुभव कर
    उसे वस्त्राभूषित करने का प्रयास करता है
    कभी कभी वह अचानक ही
    रौद्र हो उठता है
    पत्थर उठा किसी की भी ओर दौड़ता है
    पर पत्थर फैंककर
    मारता नहीं
    कभी अचानक ही
    जोर जोर से
    दहाड़ता है चीखता है
    कभी सिसकता है
    व्यथा के पीछे का सत्य
    सबसे दूर कहीं
    भूतकाल के गर्त में छुपा
    समाज में छुपे अमानवीय भेड़ियों
    का शिकार
    जिसे हम बड्डा पागल
    कह आगे बढ़ जाते हैं
    एक बात और
    कभी कभी तो
    रक्षकों द्वारा ही
    भक्षक बन
    इन चरित्रों का
    निर्माण किया जाता है
    उन्हें पैदा किया जाता है
    हमारा सामाजिक परिवेश
    हमारी क़ानून व्यवस्था,
    न्यायपालिका , प्रशासन में
    कुछ न कुछ तो ऐसा है
    जो शक्ति , धन से संपन्न
    समाज में व्याप्त
    चरित्रों को विशेष महत्त्व देता है
    अर्थहीन समाज में
    कोई जगह न होने पर ऐसे चरित्रों
    का निर्माण होता है
    जिन्हें हम पागल झुमरू कहते हैं
    हमारा दायित्व मानव समाज में
    फैलती असमानता को समाप्त कर
    नैतिकतापूर्ण वातावरण
    का निर्माण करना होगा
    जो इन विक्षिप्त
    किरदारों से
    पट रही धरा को
    इस भयावह त्रासदी से
    बचा सके
    यहाँ न कोई बड्डा हो
    न ही कोई झुमरू
    यहाँ केवल मानव हो
    उसका मानवपूर्ण व्यवहार हो
    शालीनता हो सुन्दरता हो
    संस्कार हों संस्कृति हो
    यही मानव समाज की पुकार हो
    यही मानव समाज की पुकार हो
    यही मानव समाज की पुकार हो

  • वक़्त बेवक्त जिन्दगी- कविता – मौलिक रचना – अनिल कुमार गुप्ता “अंजुम”

    घड़ी

    वक़्त बेवक्त जिन्दगी- कविता – मौलिक रचना – अनिल कुमार गुप्ता “अंजुम”

    वक़्त बेवक्त जिन्दगी के
    मालिक हो गए हैं हम

    खिसकती , सरकती , सिसकती जिन्दगी के
    मालिक हो गये हैं हम

    ध्यान से हमारा नाता नहीं है
    धन की लालसा से बांध गए हैं हम

    संस्कृति के पालक नहीं रहे हम
    आधुनिकता के बवंडर में खो गए हैं हम

    संस्कारों की बेल के फूल न होकर
    कुविचारों की शरण हो गए हैं हम

    योग की लालसा रही नहीं हमको
    पब और जिम की शरण हो गए हैं हम

    दोस्ती पर विश्वास रहा नहीं हमको
    अकेलेपन के शिकार हो गए हैं हम

    सत्संग की शरण न होकर
    टी वी मोबाइल के पीछे भाग रहे हैं हम

    मोक्ष का विचार तो था मन में
    हर पल मर मरकर जी रहे हैं हम
    वक़्त बेवक्त जिन्दगी के
    मालिक हो गए हैं हम