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  • हिन्दी दोहा – वायु पर दोहे

    हिन्दी दोहा – वायु पर दोहे

    बहती रहती है सदा , होकर वायु अधीर ।
    सकल सृष्टि पर व्याप्त है ,और घुँसे प्राचीर ।

    होता संभव वायु से , शब्दों का संचार ।
    कहते मन की भावना , फिर करते व्यवहार ।।

    निर्मल करते वायु को , हरे भरे ये पेड़ ।
    मिट जायेगी ये धरा , यूँ न प्रकृति को छेड़ ।।

    लेते हैं हम साँस में , इसी प्रकृति से वायु ।
    जो नित करते सैर हैं , बढ़ती उनकी आयु ।।

    ठोस नहीं आकार है ,फिर भी होता भार ।
    रंग गंध से मुक्त ये , जीवन का आधार ।।

    गोरी का आँचल उड़ा , पवन बना बलवीर ।
    करे आकर्षित मेघ को , बरसाने को नीर ।।

    रंग बिरंगे उड़ रहे , नभ में कई पतंग ।
    हिचकोले खाती फिरैं , मन में जगी उमंग ।।

    मिलती धरती के तले , घुली नीर के संग ।
    बहती बनकर शक्ति ये , जीवों के हर अंग ।।

    जीते सब हैं जिंदगी , हवा प्रमुख आधार ।
    बिन इसकी संसार मृत , जीवन जाते हार ।।

    देख प्रदूषण नित बढ़े , जहर घुले अब वायु।
    धूल धुँआ इसमें सना , घटती सबकी आयु ।।

    *सुकमोती चौहान "रुचि"* *बिछिया,महासमुन्द*

  • कभी कैंसर हो न किसी को

    कभी कैंसर हो न किसी को

    कभी कैंसर हो न किसी को, हम सब मिलकर इस पर सोचें
    इसके पीछे जो कारण हैं, उनको पूरी तरह दबोचें।

    जो होता है इससे पीड़ित, उसकी हम समझें लाचारी
    बीत रही उसके घर पर जो, किस्मत भी रोती बेचारी
    मानव -जीवन है क्षण भंगुर, फिर क्यों होती मारा-मारी
    भ्रष्ट हुए जो लोग यहाँ पर, उनसे तो मानवता हारी

    प्रतिरोधक क्षमता के बल पर, रोगों के लक्षण को नोचें
    स्वस्थ रहें सब यही कामना, दीन- दु:खी के आँसू पोछें।

    आज रेडियोधर्मी किरणें, बढ़ा रहीं प्रदूषण भारी
    खान-पान में हुई मिलावट, इसीलिए होती बीमारी
    अपनापन मिट गया यहाँ से, कुटिल नीति की है बलिहारी
    मानव-मूल्य हुए अब धूमिल, सिसक रही कोई दुखियारी

    गए लड़खड़ा जीवन के पग,मानो उनमें आयीं मोचें
    मिल न सके जब साथ किसी का, पड़ें झेलना हाय बिलोचें।

    पीते हैं गोमूत्र लोग कुछ, और पपीता भी हितकारी
    तम्बाकू से बचें आज हम, इसमें छिपी बुराई सारी
    आज सभी से बोलें मिलकर, ऐसी वाणी प्यारी-प्यारी
    मिट जाए संताप सभी का,अपनी दुनिया हो अब न्यारी

    नहीं बिताएँ समय व्यर्थ में, नहीं लड़ाएँ अपनी चोचें
    बातों से जो करता घायल, उसको खुद भी लगी खरोचें।

    रचनाकार-

    उपमेन्द्र सक्सेना एड.
    ‘कुमुद- निवास’
    बरेली (उ. प्र.)

  • मेरा सपना सबकी खैर

    मेरा सपना सबकी खैर

    सरहद पर न हो दीवारें, मिट जाये हर दिल से बैर,

    चलो बुझा दे सब अंगारे, मेरा सपना सबकी खैर |

    मेरे सपनों की दुनिया में, प्यार रहे बस प्यार रहे

    मिटें द्वेष की सब रेखाएं, प्यार हमारा यही कहे

    रह जाये न कोई ग़ैर —2

    चलो बुझा दे सब अंगारे, मेरा सपना सबकी खैर |

    एक दूजे के दिल में हम, शरबत सा घुल कर देखें

    नेह की बारिश में भीगे, हम पर्वत सा धुल कर देखे

    धुल जाये मन का सब मैल —2

    चलो बुझा दे सब अंगारे, मेरा सपना सबकी खैर |

    दिल में प्यार भरें हम इतना, नफ़रत न रह जाये

    मानव फिर मानवता को, सच्चे मन से अपनाये

    विश्व शांति की उठी लहर —–2

    चलो बुझा दे सब अंगारे, मेरा सपना सबकी खैर |

    आतंकी गतिविधियों को मिले कहीं न पानी-खाद

    बंद हो बारूदों की खेती, रह जाये न कहीं फ़साद

    उगल सके न कोई जहर —2

    चलो बुझा दे सब अंगारे, मेरा सपना सबकी खैर |

    प्रेम नेह समरसता होगी, जब आने वाले कल में

    आदरभाव रहे शामिल, जीवन के दुर्लभ पल में

    सबका जीवन हो बेहतर —–2

    चलो बुझा दे सब अंगारे, मेरा सपना सबकी खैर |

    सोने की चिड़िया वाला बाला भारत फिर हमें बनाना है

    विश्व पटल पर छा जाये, ऐसा परचम लहराना है

    कोशिश से निकलेगा हल —-2

    चलो बुझा दे सब अंगारे, मेरा सपना सबकी खैर |

    उमा विश्वकर्मा कानपुर, उत्तर प्रदेश

    मो. ९५५४६२२७९५

  • सबसे प्यारा मेरा देश

    सबसे प्यारा मेरा देश

     

    सबसे प्यारा, ‘मेरा देश’

    भिन्न-भिन्न, इसके परिवेश |

    हमें गर्व, हम भारतवासी,

    मथुरा यहीं, यहीं पर काशी |

    जन्में कान्हा, राम यहाँ पर,

    अद्भुत् चारों धाम यहाँ पर |

    सिद्धार्थ यहीं पर, बुद्ध बने,

    अनगिनत आचरण, शुद्ध बने |

    ऋषियों से, धन्य-धन्य भूमि,

    ऋतुओं से, हरित धरा झूमी |

    वेद, उपनिषद्, गीता, ध्यान,

    यहीं योग का, सम्यक ज्ञान |

    भाषाओं से, भंडार भरा,

    स्तुति में, मंत्रोच्चार भरा |

    नदियों की, निश्छल जलधारा,

    है प्रदीप्त, नभ में ध्रुव तारा |

    शिव की सदा, साधना होती,

    पाथर पूज, प्रार्थना होती |

    वीरों की, धीरों की धरती,

    पुन्य आत्मा, यहीं उतरती |

    थोड़ा कहा, बहुत है शेष,

    सबसे प्यारा, ‘मेरा देश’
    उमा विश्वकर्मा, कानपुर, उत्तरप्रदेश

  • जीवन में अनमोल है जल

    जीवन में अनमोल है जल

    जल पर कविता

    जल से उत्पत्ति जीवन की,

    निर्मित जल से, ब्रम्हाण्ड सकल

    जीवन में अनमोल है जल |

    निर्मल, निश्छल बहती धारा,

    मीठा कहीं, कहीं जल खारा,

    जिस पर आश्रित संसार

    विविध स्रोत मिलती जलधार

    झर-झर झरता है झरने से, ऊँचे पर्वत रहता जल |

    जीवन में अनमोल है जल |

    नदियों में जल बहता रहता,

    झीलों से कुछ कहता रहता,

    कूप, बावली, तालाबों में,

    सारे मौसम सहता रहता,

    दूर तलक फैले सागर में, चलती रहती उथल-पुथल |

    जीवन में अनमोल है जल |

    पर्वत पर जाकर जम जाता,

    कहीं ग्लेशियर बन भरमाता,

    वाष्प बने, उड़ जाये ऊपर,

    बारिश बन धरती पर आता,

    प्यासी-प्यासी वसुधा को, जल, पल भर में करे सजल |

    जीवन में अनमोल है जल |
    उमा विश्वकर्मा, कानपुर, उत्तरप्रदेश