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  • स्त्री एक दीप-डॉ. पुष्पा सिंह’प्रेरणा’

    स्त्री एक दीप

    स्त्री बदलती रही
    ससुराल के लिए
    समाज के लिए
    नए परिवेश में
    रीति-रिवाजों में
    ढलती रही……
    स्त्री बदलती रही!

    सास-श्वसुर के लिए,
    देवर-ननद के लिए,
    नाते-रिश्तेदारों के लिए
    पति की आदतों को न बदल सकी
    खुद को बदलती रही!

    इतनी बदल गयी कि
    खुद को भूल गयी!
    फिरभी किन्तु परंतु
    चलता ही रहा,
    समझाइश भी मिलती-
    दूसरों को नहीं खुद को बदल लो!

    शायद थोड़ी सी बच गयी थी खुद के लिए,
    अब बच्चे प्यार दुलार से
    मान मनुहार से,
    कहते हैं-
    थोड़ा बदल जाओ 
    बस थोड़ा सा बदल लो
    खुद को हमारे लिए..

    स्त्री पूरी बदल गयी!
    नए साँचे में ढल गयी!
    अस्तिव खोकर फिर,
    इक दिन मिट्टी में मिल गयी!

    बनी दिया मिट्टी का
    अंधेरों से लड़ती रही
    रोशन घर करने के लिए 
    तिल-तिल जलती रही

    स्त्री बदलती रही……

     बदलती ही रही….

    डॉ. पुष्पा सिंह’प्रेरणा’
    कविता बहार से जुड़ने के लिये धन्यवाद

  • पर्यावरण पर कविता-बासुदेव अग्रवाल ‘नमन’

    पर्यावरण पर कविता-बासुदेव अग्रवाल ‘नमन’

    पर्यावरण पर कविता

    save nature
    prakriti-badhi-mahan

    पर्यावरण खराब हुआ, यह नहिं संयोग।
    मानव का खुद का ही है, निर्मित ये रोग।।

    अंधाधुंध विकास नहीं, आया है रास।
    शुद्ध हवा, जल का इससे, होय रहा ह्रास।।

    यंत्र-धूम्र विकराल हुआ, छाया चहुँ ओर।
    बढ़ते जाते वाहन का, फैल रहा शोर।।

    जनसंख्या विस्फोटक अब, धर ली है रूप।
    मानव खुद गिरने खातिर, खोद रहा कूप।।

    नदियाँ मैली हुई सकल, वन का नित नाश।
    घोर प्रदूषण जकड़ रहा, धरती, आकाश।।

    वन्य-जंतु को मिले नहीं, कहीं जरा ठौर।
    चिड़ियों की चहक न गूँजे, कैसा यह दौर।।

    चेतें जल्दी मानव अब, ले कर संज्ञान।
    पर्यावरण सुधारें वे, हर सब व्यवधान।।

    पर्यावरण अगर दूषित, जगत व्याधि-ग्रस्त।
    यह कलंक मानवता पर, हो जीवन त्रस्त।।


    (सुजान २३ मात्राओं का मात्रिक छंद है. इस छंद में हर पंक्ति में १४ तथा ९ मात्राओं पर यति तथा गुरु लघु पदांत का विधान है। अंत ताल 21 से होना आवश्यक है।)


    बासुदेव अग्रवाल ‘नमन’
    तिनसुकिया
    कविता बहार से जुड़ने के लिये धन्यवाद

  • सूरज पर कविता- आर आर साहू

    सूरज पर कविता

    सुबह सबेरे दृश्य
    सुबह सबेरे दृश्य

    लो हुआ अवतरित सूरज फिर क्षितिज मुस्का रहा।
    गीत जीवन का हृदय से विश्व मानो गा रहा।।

    खोल ली हैं खिड़कियाँ,मन की जिन्होंने जागकर,
     नव-किरण-उपहार उनके पास स्वर्णिम आ रहा।

    खिल रहे हैं फूल शुभ,सद्भावना के बाग में,
    और जिसने द्वेष पाला वो चमन मुरझा रहा।

    चल मुसाफिर तू समय के साथ आलस छोड़ दे,
    देख तो ये कारवाँ पल का गुजरता जा रहा।

    बात कर ले रौशनी से,बैठ मत मुँह फेरकर,
    जिंदगी में क्यों तू अपने बन अँधेरा छा रहा।

    नीड़ से उड़ता परिंदा,बन गया है श्लोक सा,
    मर्म गीता का हमें,कर कर्म, ये समझा रहा ।
    —– R.R.Sahu
    कविता बहार से जुड़ने के लिये धन्यवाद

  • तन पर कविता-रजनी श्री बेदी

    तन पर कविता

    हर मशीन का कलपुर्जा,
    मिल जाए तुम्हे बाजार में।
    नहीं मिलते हैं तन के पुर्जे,
    हो  चाहे उच्च व्यापार में।

    नकारात्मक सोचे इंसा तो,
     सिर भारी हो जाएगा।
    उपकरणों की किरणों से  ,
     चश्माधारी  हो जाएगा।
    जीभ के स्वादों के चक्कर में,
    न डालो पेनक्रियाज को मझधार में।
    नहीं मिलते हैं तन के पुर्जे,
    हो चाहे उच्च व्यापार में।

    तला हुआ जब खाते हैं,
    लीवर की शामत आती है।
    बड़ी आंत भी मांसाहारी,
    भोजन से डर जाती है।
    तेलमय भोजन को छोड़ो,
    दया करो ह्रदय संहार में।
    नहीं मिलते हैं तन के पुर्जे,
    हो चाहे उच्च व्यापार में।

    बासी खाना खा कर हमने,
     छोटी आँत पर वार किया।
    खा कर तेज़ नमक को हमने ,
    रक्त प्रवाह बेहाल किया।
    पीकर ज्यादा पानी,बचालो,
    किडनी को हरहाल में।
    नहीं मिलते हैं,तन के पुर्जे,
    हो चाहे उच्च व्यापार में।

    मत फूंको सिगरेट को,
    और न फेफड़ों को जलाओ तुम।
    रात रात भर जाग जाग न,
    पाचन क्रिया बिगाड़ो तुम।
    अब भी वक़्त बचा है बन्दे,
    खुश रहलो घर परिवार में।
    नहीं  मिलते हैं तन के पुर्ज़े
    हो चाहे उच्च व्यापार में।

    सारे सुख हैं बाद के होते,
    पहला सुख निरोगी काया
    जब तन पीड़ित होता है,
    तो न भाए,दौलत माया।
    प्रतिदिन योग दिवस अपनालो,
    सुंदर जीवन संसार मे।
    नहीं मिलते हैं,तन के पुर्जे 
    हो चाहे उच्च व्यापार में।

    रजनी श्रीबेदी
    जयपुर
    राजस्थान
    कविता बहार से जुड़ने के लिये धन्यवाद

  • शांतिदूत पर कविता -शांति के दीप जलाते हैं

    शांतिदूत पर कविता -शांति के दीप जलाते हैं

    विश्व पटल पर मानवता के फूल खिलाते हैं,
    हम हैं शांतिदूत, शांति के दीप जलाते हैं।

    भेद भाव के भवसागर में,
    दया भाव भरली गागर में,
    त्रस्त हृदय को दया कलश से सुधा पिलाते हैं।

    मानव बन मानव की खातिर, 
    दूर करें अज्ञान का तिमिर,
    इस वसुधा पर ज्ञान पताका हम फहराते हैं।

    ऊंच नीच का भेद मिटाते,
    स्वप्न सुनहरे सभी सजाते,
    कोई कदम जो डिगने लगे उसे राह दिखाते हैं।

    तन से मन से या फिर धन से, 
    करें सदा सेवा जीवन से,
    बस मानव को मानव का अधिकार दिलाते हैं।

    विश्व पटल पर मानवता के फूल खिलाते हैं,
    हम हैं शांतिदूत शांति के दीप जलाते हैं।
      (सरोज कंवर शेखावत)