स्त्री एक दीप
स्त्री बदलती रही
ससुराल के लिए
समाज के लिए
नए परिवेश में
रीति-रिवाजों में
ढलती रही……
स्त्री बदलती रही!
सास-श्वसुर के लिए,
देवर-ननद के लिए,
नाते-रिश्तेदारों के लिए
पति की आदतों को न बदल सकी
खुद को बदलती रही!
इतनी बदल गयी कि
खुद को भूल गयी!
फिरभी किन्तु परंतु
चलता ही रहा,
समझाइश भी मिलती-
दूसरों को नहीं खुद को बदल लो!
शायद थोड़ी सी बच गयी थी खुद के लिए,
अब बच्चे प्यार दुलार से
मान मनुहार से,
कहते हैं-
थोड़ा बदल जाओ
बस थोड़ा सा बदल लो
खुद को हमारे लिए..
स्त्री पूरी बदल गयी!
नए साँचे में ढल गयी!
अस्तिव खोकर फिर,
इक दिन मिट्टी में मिल गयी!
बनी दिया मिट्टी का
अंधेरों से लड़ती रही
रोशन घर करने के लिए
तिल-तिल जलती रही
स्त्री बदलती रही……
बदलती ही रही….
डॉ. पुष्पा सिंह’प्रेरणा’
कविता बहार से जुड़ने के लिये धन्यवाद