भावभरे दोहे
प्रकृति प्रदत्त शरीर में,नर-नारी का द्वैत।
प्रेमावस्था में सदा,है अस्तित्व अद्वैत।।
पावन व्रत करते नहीं,कभी किसी को बाध्य।
व्रत में आराधक वही, और वही आराध्य ।।
परम्पराएँ भी वहाँ,हो जाती निष्प्राण।
जहाँ कैद बाजार में,हैं रिश्तों के प्राण।।
एक हृदय से साँस ले, प्रियतम-प्रिया पवित्र।
श्रद्धा से विश्वास का,दिव्य सुगंधित इत्र।।
भाव सोच अवधारणा,होते शब्द प्रतीक।
देश काल परिवेश ही,आशय देते ठीक।।
परंपराओं के बिना,नहीं शब्द के अर्थ।
मनमाने अभिप्राय से,सारी बातें व्यर्थ।।
राम और रावण यहाँ,गुणावगुण उपमान।
संस्कृति को द्योतित करें,बने नाम-प्रतिमान।।
राम शब्द का अर्थ ही , माना सद्व्यहार।
रावण अभिव्यंजित करे,कुत्सित दुर्व्यवहार।।
करते तभी चुनाव भी,संतानों के नाम।
रावण तो रखते नहीं,रख देते हैं राम।।
केवल भौतिक तथ्य ही,होता ना इतिहास।
सत्य शिव सौंदर्य का,हो ना अगर प्रकाश।।
विनती मैं सबसे करूँ,लड़ें न लेकर नाम।
ऐक्य और सद्भाव से,करें लोक हित काम।।
जले न रावण या जले,जले बैर का भाव।
भारत मां के प्रेम की,मिले सभी को छाँव।।
नई सुबह की रोशनी,का नूतन आलोक।
काल-पृष्ठ में लिख रहा,सूरज स्वर्णिम श्लोक।।
पंछी पुलकित गा रहे,नव जीवन का छंद।
फूलों में भरने लगा,मधुर गंध मकरंद।।
जीवन पल-पल है नया,पल भर में प्राचीन।
बनते-मिटते दृश्य हैं,बहुधा समयाधीन।।
साथ समय के चल रहे,धर्मवीर हैं लोग।
मोहग्रस्त ठहरे हुए,गत आगत का रोग।।
मुस्कुराती है उषा, अधरों में है आराधना।
सहज होने के लिए,लगती सुनहरी साधना ।।
दिव्य दीपक सूर्य से होने लगी है आरती ।
गा रही है गान मंगल,भव्य भारत-भारती।।
जब तक बाकी दर्प है,तब तक झूठा प्यार।
बस शब्दों का स्वांग है,अभिनय सा व्यवहार।।
ताजमहल ही है नहीं,मात्र प्रेम-पहचान।
शाहजहाँ क्यों भूलता,हम भी हैं इंसान।।
प्रियतम मुझको गर्व है,तू सहता है धूप।
चटक-मटक से दूर है,शिव सा तेरा रूप।।
स्वेद-रक्त अपना बहा,सदा खिलाता बाग।
जग का तू मजदूर है,मेरा अमर सुहाग।।
R.R.SAHU.
कविता बहार से जुड़ने के लिये धन्यवाद