मैं हूँ पहाड़ तुम्हारे आकर्षण का हूँ केन्द्र शक्ति का विशालता का हूँ परिचायक नदियाँ हैं मेरी सुता जो हैं पराया धन हो जाती हैं मुझसे जुदा होती हैं बेताब समुद्र से मिलने को समुद्र में विलीन होने को होती हैं मुझसे जुदा नई दुनिया बसाने को
मंदराचल को बना मथनी, रस्सी शेष को। देवदनुज सबने मिल करके,मथा नदीश को।। किया अथक प्रयास सभी ने,रहे वहां डटे। करलिया प्राप्त मधुरामृत जब,सभी तभी हटे।।
रत्न चतुर्दश निकले उससे, जो परिणाम था। सर्वप्रथम था विष हलाहल, जो ना आम था।। तब पान किया शिव ने उसका,तारा सृष्टि को। मन का मंथन करे हम सभी,खोले दृष्टि को।।
फिर निकली थी कामधेनु गो,क्रम द्वितीय था। ग्रहण किया ऋषियों नेउसको,जो ग्रहणीय था।। उच्चैश्रवा अश्व था निकला , रंग श्वेत था। भूप बलि ने लिया था जिसको,जोअसुरेश था।।
निकला तब फिर गज ऐरावत , सागर गर्भ से। देवराज ने ग्रहण किया था, सबके तर्क से।। कौस्तुभमणि हुई आविर्भूत, प्रतीक भक्ति का। सुशोभित विष्णु का वक्ष हुआ,निशानशक्ति का।।
अगले क्रम पर कल्पवृक्ष था, शोभा स्वर्ग की। जो प्रतीक था इच्छाओं का, थी हर वर्ग की।। सुंदरी अप्सरा भी निकली , रंभा नाम था। मन में छिपी वासनाओं का , काम तमाम था।।
निकली थी फिर देवी लक्ष्मी,उस जलधाम से। नारायण का वरण किया था, जो श्री नाम से।। सागर मंथन से थी निकली , देवी वारुणी। दैत्यों ने ग्रहण किया जिसको,थी मदकारिणी।।
जो शीतलता का प्रतीक है , उज्ज्वल चन्द्रमा। शिव मस्तक को पाया जिसने,मिले परमात्मा।। पारिजात भी प्रकट हो गया, अनुपम वृक्ष था। छूने से मिट जाए थकान ,सुख का अक्ष था।।
शंख पाञ्चजन्य प्रकट हुआ, जय प्रतीक था। धारण किया विष्णु नेजिसको,नाद सुललित था।। लेकर अमृत कलश थे प्रगटे , प्रभु धनवंतरी। निरोगी तन और निर्मल मन, बात बड़ी खरी।।
इस समुद्र मंथन से सीखे, सब नर सृष्टि में। मन का मंथन करे व धारे , निर्मल दृष्टि में।। इन्द्रिय एकादश वश करके,खोजे आत्म को। चिंतन और मनन कर धारे,सब परमात्म को।।
रत्न चतुर्दश तो प्रतीक है, बस पुरुषार्थ का। मानव भी ज्ञान ग्रहण करे, सृष्टि यथार्थ का।। करें पुरुषार्थ मिलकर के सब, संभव काम हो। निकाले विष से हमअमृत को,तब आराम हो।।
ये बड़ी विचित्र दुनिया है, यहाँ, विचित्र राग गाया जाता हैं। अपने घाव रो रो कर दिखाते, और दूसरे के घावो पर, नमक लगाया जाता हैं। ये बड़ी विचित्र दुनिया हैं, यहां विचित्र राग गाया जाता हैं। कभी मजहब पर झगड़े होते, तो कभी जात को मुद्दा बनाया जाता हैं, ये बड़ी विचित्र दुनिया है, यहां विचित्र राग गाया जाता हैं। अपनी-अपनी ढंकते यहां, और दूसरों का तमाशा बनाया जाता है, ये बड़ी विचित्र दुनिया हैं, यहां विचित्र राग गाया जाता हैं। पैसा सर्वोच्च शक्ति यहां की, पैसे से सबको नचाया जाता है, ये बड़ी विचित्र दुनिया हैं, यहां विचित्र राग गाया जाता हैं।
अंकिता जैन’अवनी’ (लेखिका/कवियत्री) अशोकनगर(म.प्र)
शुरुआत नई करें कविता
नये संकल्प दरवाजे पर, दस्तक दे रहे हैं। नये प्रयास पास बुला रहे हैं। नए राहगीर मिल गए, जो नई दिशा में ले जा रहे हैं। पुराने दु:ख, पुरानी तकलीफ, रह-रह कर बाहर आती है। पुरानी पीड़ा हर रोज हमें, रुलाती है, पर दर्द की यही चुभन, नई शुरुआत का आगाज कराती है। हम भटके परिंदे वर्तमान में कम, अतीत में ज्यादा गुम रहते हैं। अच्छे नहीं कटु अनुभव, हम ज्यादा कहते हैं, चलो अब आगे बढ़े क्यों पीछे रह गये हम, भुला दे उस घड़ी को जिसने आंखों को किया नम अब आशावादी हो, हमारा मन और नई खुशियों को, समेट ले, ये दामन।