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  • दुर्गा के नौ रूप(दोहे)-केतन साहू “खेतिहर”

    दुर्गा या आदिशक्ति हिन्दुओं की प्रमुख देवी मानी जाती हैं जिन्हें माता, देवीशक्ति, आध्या शक्ति, भगवती, माता रानी, जगत जननी जग्दम्बा, परमेश्वरी, परम सनातनी देवी आदि नामों से भी जाना जाता हैं।शाक्त सम्प्रदाय की वह मुख्य देवी हैं। दुर्गा को आदि शक्ति, परम भगवती परब्रह्म बताया गया है।

    durgamata

    दुर्गा के नौ रूप- 9 दोहे

    शुभारंभ नवरात्र का, जगमग है दरबार। 
    गूंज उठी चहुँ ओर है, माता की जयकार।।

    शक्ति स्वरूपा मात है, दुर्गा का अवतार।
    दयामयी शिव-शक्ति को, पूजे सब संसार।।

    नौ दिन के नवरात्र में, माँ के रूप अनूप। 
    सौम्य शीतला है कहीं, रौद्र कालिका रूप।।

    प्रथम शैलपुत्री जगत, माता का अवतार। 
    ब्रम्हचारिणी मात को, पूजें दूजे वार।।

    रूप चंद्रघण्टा धरें, तीजे दिवस प्रचण्ड। 
    कूष्मांडा चौथे दिवस, आदिशक्ति ब्रम्हाण्ड।।

    स्कंदमाता स्वरूप में, दिवस पंचमी मात।
    पालय पोषय पुत्रवत, जग-जननी साक्षात।।

    सष्ठम दिन कात्यायणी, कालरात्रि तिथि सात।
     माँ गौरी तिथि अष्ठमी, शुभ्र ज्योतिमय मात।।

    सिद्धीदात्री तिथि नवम, करें कामना सिद्ध।
    सफल मनोरथ सब करें, धन्य धान्य संमृद्ध।।

    तन मन से सेवा करें, धरें मात का ध्यान।
    दया करें निज दास पर, हैं बालक अज्ञान।।

             केतन साहू “खेतिहर” बागबाहरा, महासमुंद (छ.ग.)

  • भक्ति पर कविता

    भक्ति पर कविता

    तोरन पुष्प सजाय के
    उत्सव माँ के द्वार!!! 
    गीत सुरीले गूँजते,
    लटके बन्दनवार!!!!

    नाम अनेको दे दिए,
    माई जग में एक!!! 
    नामित ब्रम्हाचारिणी,
    कर लेंना अभिषेक!!

    परम सुखी परिवार हो
    माँग भक्ति के भीख!!! 
    चरण धूलि माथे लगा
    वत्स भजन ले सीख!!!

    –राजेश पान्डेय वत्स
    कविता बहार से जुड़ने के लिये धन्यवाद

  • हाथ जोड़कर विनय करू माँ

    हाथ जोड़कर विनय करू माँ

    मंगल करनी भव दुख हरणी।
    माता मम् भव   सागर तरणी।

    हाथ जोड़कर विनय करू माँ।
    अर्ज दास की भी सुन लो माॅ  ।

    निस दिन ध्यान करू मै मैया।
    तुम  हो  मेरी  नाव  खिवैया।

    तुम बिन कौन सुने अब मैया।
    मँझधारों    मे  फसती    नैया।

    गहरा  सागर  नाव    पुरानी।
    इसको  मैया   पार  लगानी।

    मदन सिंह शेखावत

  • हे महिषासुर मर्दिनी

    हे महिषासुर मर्दिनी

    हे महिषासुर मर्दिनी ! 
    आज फिर धरा पर आना होगा , 
    नारी के मान , नारी की गरिमा का
    वसन फिर बचाना होगा ,
    छिपे बैठे है असुर कितने
    मच्छरों सदृश मौकापरस्त कितने ,
    ढूंढ-ढूंढ कर उन दुश्शासनों को
    मिट्टी में मिलाना होगा , 
    हे महिषासुर मर्दिनी ! 
    आज फिर …………
    हे नारी ! समय नही अब रोने का
    इतिहास गवाह है और नही अब खोने का, 
    बेशक स्नेह – त्याग की प्रतिमूर्ति तुम
    वक्त पड़े तो रूप विकराल धरती तुम , 
    हे मां कालिके ! हे मां चंडिके ! 
    हे मां शारदे ! हे मां भद्रिके ! 
    आओ माते कर के सिंह की सवारी
    हे आदिशक्ति ! रग-रग बसों , पड़ूं दुर्जनों पे भारी , 
    वजुद निज का पहचानों हे जननी !
    निज आन की लड़ाई तुमको ही लड़नी ,
    संभल जाओ रे तुच्छ पशुता के बंदे , 
    निश्चित ही अब दूर नही तेरे काल के फंदे, 
    एक-एक नारी अब अवतार धरेगी 
    चुन-चुन कर असुर धड़ अलग  करेगी, 
    तेरी आसुरी दुनिया में तब हाहाकार  मच जायेगा
    भाल तेरा जब तुझको ही चढ़ाया जायेगा ,
    तुम साथ हो न , हे  मां भवानी ! 
    गिन-गिन कर सबक सिखाना होगा ,
    जिन निकृष्टों ने  मां – भगिनी का अपमान किया
    उन दृष्टि पतितों को भस्मिभूत कराना होगा ,
    हे महिषासुर मर्दिनी ! 
    आज फिर धरा पर आना होगा ।

    जितेश्वरी साहू सचेता
    कविता बहार से जुड़ने के लिये धन्यवाद

  • आओ चले गाँव की ओर-रीतु देवी

    आओ चले गाँव की ओर-रीतु देवी

    आओ चले गाँव की ओर

    आओ चले गाँव की ओर-रीतु देवी

    आओ चले गाँव की ओर
    गाँव की मिट्टी बुलाती उन्मुक्त गगन ओर
    रस बस जाए गाँव में ही,
    स्वर्ग सी अनुभूति होती यहीं।
    खुला आसमाँ, ये सारा जहाँ
    स्वछंद गाते, नाचते भोली सूरत यहाँ।
    आओ चले गाँव की ओर
    गाँव की मिट्टी बुलाती उन्मुक्त गगन ओर
    आमों के बगीचे हैं मन को लुभाते,
    फुलवारियाँ संग-संग हैं सबको झूमाते ,
    झूम-झूम कर खेतों में गाते हैं फसलें,
    मदहोश सरसों संग सब गाते हैं वसंती गजलें।
    आओ चले गाँव की ओर
    गाँव की मिट्टी बुलाती उन्मुक्त गगन ओर
    संस्कारों का निराली छटा है हर जहाँ,
    नये फसलें संग त्यौहार मिलकर मनाते यहाँ।
    प्यारी बोलियाँ ,मधुर गाने गूँजते कानों में
    स्वर्णिम किरणें चमकते दैहिक खानों में
    आओ चले गाँव की ओर
    गाँव की मिट्टी बुलाती उन्मुक्त गगन ओर
    एकता सूत्र में बंधे हैं सब जन,
    भय, पीड़ा से उन्मुक्त है सबका अन्तर्मन।
    पुष्प सा जनमानस जाते हैं खिल यहाँ,
    वर्षा खुशियों की होती हैं हर पल यहाँ।
    आओ चले गाँव की ओर
    गाँव की मिट्टी बुलाती उन्मुक्त गगन  ओर

    रीतु देवी
            दरभंगा, बिहार
    कविता बहार से जुड़ने के लिये धन्यवाद