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  • निषादराज के दोहे

    *निषादराज के दोहे

    (1) संसार
    कितना प्यारा देख लो,ये अपना संसार।
    स्वर्ग बराबर हैं लगे,गाँव-शहर वनद्वार।।

    (2) समय
    समय बड़ा अनमोल है,कीमत समझो यार।
    समय बीत जब जायगा,फँसो नहीं मझधार।।

    (3) गति
    अपनी गति में काम को,करना अच्छा यार।
    तभी सफलता हैं मिले,उन्नति  घर संसार।।

    (4) जीवन
    जीवन की इस राह पर,चलना कदम सम्हाल।
    आगे   पीछे   देखना, रहे  न  कोई   काल।।

    (5) मन
    मन मेरा  पागल हुआ, मिलने  को मजबूर।
    कहाँ चले हो  ऐ प्रिये, मत जा  इतनी दूर।।

    (6) अधिकार
    जन्म सिद्ध अधिकार है,पढ़ना लिखना आप।
    शिक्षा से वंचित न हो, फिर  होगा  संताप।।

    (7) परिवेश
    अपना भी परिवेश हो,अच्छा सा व्यवहार।
    सीखो सद् आचार को,नाम कमा संसार।।

    (8) परिधान
    अपनी इच्छा से सभी, पहनो सब परधान।
    पाओगे जग  में तभी, प्यारा सा  सम्मान।।

    (9) निवेदन
    एक  निवेदन  है  यही, माँगू  तुमसे  प्यार।
    कभी नहीं  करना मुझे,चाहत  से  इंकार।।

    (10) नमन
    नमन तुम्हें हे शारदे, करना  मुझको  याद।
    मैं बालक  नादान हूँ, मेरी  सुन फरियाद।।
    ~~~~~

    दोहाकार:-

    बोधन राम निषादराज “विनायक”

    सहसपुर लोहारा,जिला-कबीरधाम (छ.ग.)

    All Rights Reserved@bodhanramnishad

    कविता बहार से जुड़ने के लिये धन्यवाद

  • मेरे गांव का बरगद – नरेन्द्र कुमार कुलमित्र

    मेरे गांव का बरगद – नरेन्द्र कुमार कुलमित्र

    मेरे गांव का बरगद 

    मेरे गाँव का बरगद
    आज भी 
    वैसे ही खड़ा है
    जैसे बचपन में देखा करता था
    जब से मैंने होश संभाला है
    अविचल
    वैसे ही पाया है

    village based Poem

    हम बचपन में 
    उनकी लटों से झूला करते थे
    उनकी मोटी-मोटी शाखाओं
    के इर्द-गिर्द छुप जाया करते थे
    धूप हो या बारिश
    उसके नीचे
    घर-सा
    निश्चिंत होते थे 

    तब हम लड़खड़ाते थे
    अब खड़े हो गए
    तब हम बच्चे थे
    अब बड़े हो गए
    तब हम तुतलाते थे 
    अब बोलना सीख गए
    तब हम अबोध थे
    अब समझदार हो गए
    तब अवलंबित थे
    अब आत्मनिर्भर हो गए
    तब हम बेपरवाह थे
    अब जिम्मेदार हो गए
    तब पास-पास थे
    अब कितने दूर-दूर हो गए

    बरगद आज भी
    वैसा ही खड़ा है 
    अपनी आँखों से
    न जाने कितनी पीढियां देखी होगी
    न जाने कितने
    उतार-चढ़ाव झेले होंगे
    अपने भीतर
    न जाने कितने
    अनगिनत
    यादों को सहेजे होंगे
    पर अब
    एकदम उदास-सा
    अकेला खड़ा होता है
    जैसे किसी के इंतिजार में हो…
    अब कोई नहीं होते
    उनके आसपास
    न चिड़ियाँ, न बच्चे, न बूढ़े
    न कलरव, न कोलाहल, न हँसी…

    साल में एक या दो बार
    जब जाता हूँ गाँव
    बरगद के करीब से 
    अज़नबी की तरह गुजर जाता हूँ
    कभी-कभी लगता है
    ये बड़प्पन
    ये समझदारी
    ये आत्मनिर्भरता
    ये जिम्मेदारी
    और ये दूरी…
    आख़िर किस काम के
    जो अपनों को अज़नबी बना दे
    हम रोज़मर्रा में 
    इतने मशगूल हो गए
    कि हमारे पास इतना भी वक्त नहीं
    कि मधुर यादों को 
    याद कर सके ,जी सकें…

    हमारे गाँव में
    न जाने कितने लोग
    हमारी मधुर यादों से जुड़े हुए
    करते होंगे हमें याद…
    हमारा इंतिजार…
    पर 
    हम ‘काम’ के मारे हैं
    उनके अकेलेपन और उदासी के लिए
    हमारे पास वक्त नहीं
    तुम्हें हमारी यादों के सहारे
    अकेले ही जीना होगा
    हे! मेरे गाँव के बरगद…।

    — नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
       
    कविता बहार से जुड़ने के लिये धन्यवाद

  • जीवन रुपी रेलगाड़ी – सावित्री मिश्रा

    जीवन रुपी रेलगाड़ी


    कभी लगता है जीवन एक खेल है,
    कभी लगता है जीवन एक जेल है।
    पर  मुझे लगता है कि ये जीवन
    दो पटरियों पर दौड़ती रेल है।
    भगवान ने जीवन रुपी रेल का
    जितनी साँसों का टिकट दिया है,
    उससे आगे किसी ने सफर नहीं किया
    सुख और दुख जीवन की दो पटरियाँ,
    शरीर के अंग जीवन रुपी रेल के डिब्बे हैं।
    जीवन रुपी रेल के डिब्बे जब तक,
    जवानी की स्पीड पकडते हैं,
    तब तक माँ बाप गार्ड की
    भूमिका में पीछे -पीछे चलते हैं।
    जीवन रुपी रेल के डिब्बों मे जो
    बिमारियों की तकनीकी खराबी आती है,
    वो हमें कमजोर आना जाती है।
    जीवन रुपी ये रेल अन्तिम स्टेशन पहुँचे
    और हमेशा के लिये  ब्रेक लग जाए ।
    आओ मिल कर एक दुसरे के काम आएं,
    जीवन रुपी रेल के सफर को सुहाना बनाएं।

    सावित्री मिश्रा
    झारसुगुड़ा ,ओडिशा

  • तुम्हारे होने का अहसास

    तुम्हारे होने का अहसास

    तुम आसपास नहीं होते
    मगर 
    आसपास होते हैं
    तम्हारे होने का अहसास
    मन -मस्तिष्क में संचित
    तुम्हारी आवाज
    तुम्हारी छवि
    अक़्सर
    हूबहू
    वैसी-ही
    बाहर सुनाई देती है
    दिखाई देती है
    तत्क्षण
    तुम्हारे होने के अहसास से भर जाता हूँ
    धड़क जाता हूँ
    कई बार खिड़की के पर्दे हटाकर
    बाहर देखने लग जाता हूँ
    यह सच है 
    कि तुम नहीं होते
    पर
    पलभर के लिए
    तुम्हारे होने जैसा लग जाता है
    लोगों ने बताया
    यह अमूमन 
    सब के साथ होता है
    किसी के न होने पर भी
    उसके होने का अहसास…
    — नरेन्द्र कुमार कुलमित्र

    कविता बहार से जुड़ने के लिये धन्यवाद

  • सुकमोती चौहान के हाइकु

    सुकमोती चौहान के हाइकु

    सुकमोती चौहान के हाइकु

    हाइकु

    पितर पाख~
    पति की तस्वीर में
    फूलों की माला।

    पूस की रात~
    भुट्टे भून रही है
    अलाव में माँ।

    श्मशान घाट~
    कुत्ते के भौंकने से
    सहमा रामू।

    श्रृंगार पेटी~
    गौरैया नोंचे देख
    शीशा में छवि।

    गौरैया झुँड़
    चुग रहे हैं दाने~
    धूप सुगंध।

    पीपल पात
    खा रही बकरियाँ~
    वृक ताक में।

    गौ टीले पर~
    शेरनी के मुँह में
    बछड़ा ग्रीवा।

    मयूर नृत्य~
    मोबाइल देखते
    बच्चों की टोली।

    कश्ती में छेद~
    मृतकों को खोजते
    रेसक्यू टीम।

    हिना के छाप
    बच्चा के गाल पर-
    माँ फोन मग्न।

    ✍ सुकमोती चौहान रुचि