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  • कब्र की ओर बढ़ते कदम -रमेशकुमार सोनी

    कब्र की ओर बढ़ते कदम

    पतझड़ में सूखे पत्ते विदा हो रहे हैं
    विदा ले रहे हैं, खाँसती आवाज़ें ज़माने से
    कुछ पल जी लेने की खुशी से
    वृद्धों का झुंड टहलने निकल पड़ा है
    दड़बों से पार्क की उदास बेंच की ओर
    उनकी धीमी चाल और छड़ी से चरमराते पत्ते सिसक पड़े हैं।
    बेंच पर बैठे हैं कुछ ठूँठ से पेड़
    पतझर में बतियाते अपने किस्से
    किसी को रिश्तों की दीमक ने चाटा,
    किसी का भरोसा टूटा,
    कुछ को अपनों ने बेघर किया………. , 
    गूगल से दुश्मनी ठाने टूटी ऐनक से
    झाँक रहा है इनका विश्वास वृद्धाश्रम में
    ये पतझड़ कब तक रहेगा ?
    क्या भविष्य के वक्त का भी ऐसा ही पतझड़ होगा
    पीला, सूना, चरमराता, परित्यक्त और बुहार दिया गया जैसे ? 
    घर के कूड़े– कचरे के जैसा।
    वृध्द इस देश की वैचारिक धरोहर हैं
    बौद्धिकता की टकसाल हैं
    अनुभवों की पोटली लिए फिरते खुली किताब हैं
    इन्हें इस तरह बुहार दिया जाना ज़माने को भारी पड़ेगा
    भविष्य में सभ्यताएं इसे कोसेंगी।
    किसी की राह ताकते जिंदा हैं इनकी सांसे
    कभी तो कोई इनकी उँगली थाम कहेगा– 
    कहानी सुनाओ ना दादीजी, 
    आपकी दाढ़ी कितनी चुभती है,
    आपका ऐनक टूट गया है, मेरे गुल्लक में पैसे हैं
    आपके बर्थडे में गिफ्ट दूँगा……
    बेंच में गूंज रहा है ऐसा ही ठहाका
    बचपन की बातें, जवानी की यादें, बुढ़ापे का दर्द
    लौट रहे हैं ये कदम शाम ढले अपने घरों की ओर
    जहाँ अब उनके नाम की तख्ती बदल दी गयी है
    कब्र की ओर बढ़ते कदम धीमे हो जाते हैं।।
    —————               ————— 
    रमेशकुमार सोनी बसना छत्तीसगढ़
    पिन 493554  मोबाइल7049355476

  • अब्र की उपासना

    अब्र की उपासना

    मेरी यही उपासना, रिश्तों का हो बन्ध।
    प्रेम जगत व्यापक रहे, कर ऐसा अनुबन्ध।।

    स्वप्रवंचना मत करिये, करें आत्म सम्मान।
    दर्प विनाशक है बहुत, ढह जाता अभिमान।।

    लोक अमंगल ना करें, मंगल करें पुनीत।
    जन मन भरते भावना, साखी वही सुनीत।।

    नश्वर इस संसार में, प्रेम बड़े अनमोल।
    सब कुछ बिक जाता सिवा, प्रीत भरे दो बोल।।

    मजहब राह अनेक हैं, हासिल उनके नैन।
    कायनात सुंदर लगे, अपने अपने नैन।।

    साधु प्रेम जो दीजिये, छलके घट दिन रैन।
    कंकर भी अब हो गये, शंकर जी के नैन।।

    प्रेम न ऐसा कीजिये, कर जाये जो अधीर।
    प्रेम रतन पायो पुलक, जन मन होत सुधीर।।

    ईश्वर के अधिकार में, जग संचालन काम।
    भेदभाव वह ना करे, पालक उसका नाम।।

    प्रात ईश सुमिरन करो, अन्य करो फिर काम।
    शांत चित्त ही मूल है, हुआ सफल हर याम।।

    प्रात स्मरण प्रभु का करो, बन जाओगे खास।
    जीव जगत में अमर हो, आये दिन मधुमास।।

    • राजेश पाण्डेय अब्र

    कविता बहार से जुड़ने के लिये धन्यवाद

  • रक्त दान पर दोहे

    रक्त दान पर दोहे

    रक्त दान हम सब करे,तन को चंगा पाय।
    खुद को होवे लाभ जी,दूसर जान बचाय।।

    डॉक्टर हर दिन ये कहे,मानव होत महान।
    पर हितकारी ध्यान में,करे रक्त का दान।।

    जान बचे है तीन की,दान करे जब एक।
    भले काम को सब करे,कहते बात हरेक।।

    नर नारी के देह में,दस यूनिट का रक्त।
    ए बी सी ओ नाम है,ज्ञान रहे हर वक्त।।

    खून रहे जब अल्प तो,मानव तन घबराय।
    मानुष का तन ठीक हो,डॉक्टर खून चढ़ाय।।

    रुधिर दान को तब करे,तन ना आवे आँच।
    महा दान को जब करे,रक्त खूब हो जाँच।।

    राजकिशोर धिरही

    तिलई,जांजगीर

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  • आतंक पर कुण्डलिया

    आतंक पर कुण्डलिया

    जल जंगल अरु अवनि पर ,
                                नर का है आतंक ।
    नंगा   होकर   नाचता ,
                                कल का गंगू रंक ।।
    कल  का  गंगू  रंक ,
                           नगर का सेठ कहाता ।
    मानवता कर कत्ल ,
         ..                 लहू से रोज नहाता ।।
    कह ननकी कवि तुच्छ ,
                           मची आपस में दंगल ।
    धरती  के  ये  तत्व ,
                       बिलखते हैं जल जंगल ।।

                     ~  रामनाथ साहू ” ननकी “
                   मुरलीडीह , जैजैपुर (छ. ग. )
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  • वृक्षारोपण पर कविता

    वृक्षारोपण पर कविता

    poem on trees
    poem on trees

    गिरा पक्षी के मुहं से दाना
    बस वही हुवा मेरा जनम!
    चालिस साल पुराना हु मै
    जरा करना मुझ पे रहम!!

    आज भी मुझको याद है
    वह बिता जमाना कल!
    पहली किरण लि  सुर्य की
    था बहुत ही सुहाना पल!!

    जब था मै नया-नया तो
    था छोटा सा आकार!
    धिरे-धिरे बड़ा हुआ तो
    फिर बड़ा हुआ आकार!!

    झेलनी पड़ी बचपन मे मुझे
    ढेर सारी कठनाईया!
    सब पत्तो को खां जाती थी
    चरवाहो की बकरिया!!

    कई बार मेरी जान बची
    बताउ जाते-जाते!
    जो जानवर मुझे देखते
    बस मुझको ही थे खाते!!

    धिरे धिरे मेरा कद बढ़ा
    बड़-बड़ा होता गया!
    तब कही मेरे दिल से
    जानवरो का भय गया!!

    अब विशाल वृक्ष हो गया हु मै
    अब नही जानवरो का भय!
    अब जानवरो,और मनुष्यो को
    मै खूद देता हु आश्रय!!

    अब मै सतत मनुष्यो को
    प्राण-वायू देता हु!
    ऎसा करके खूद को मै
    भाग्यशाली समझता हु!!

    अब मै निरंतर मनुष्यो को
    करता हु सेवा प्रदान!
    छांया,फल,फूल और,लकड़ी
    मै सब करता हु दान!!

    पर ना समझे ये मानव की, जो
    इतना सब कुछ बांटता है!
    खूदगर्जि मे लेकर कुल्हाडी
    हमे बेरहमी से कांटता है!!

    पेड़ लगाओ-पेड़ बचाओ
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    कवि-धनंजय सिते(राही)