कब्र की ओर बढ़ते कदम
पतझड़ में सूखे पत्ते विदा हो रहे हैं
विदा ले रहे हैं, खाँसती आवाज़ें ज़माने से
कुछ पल जी लेने की खुशी से
वृद्धों का झुंड टहलने निकल पड़ा है
दड़बों से पार्क की उदास बेंच की ओर
उनकी धीमी चाल और छड़ी से चरमराते पत्ते सिसक पड़े हैं।
बेंच पर बैठे हैं कुछ ठूँठ से पेड़
पतझर में बतियाते अपने किस्से
किसी को रिश्तों की दीमक ने चाटा,
किसी का भरोसा टूटा,
कुछ को अपनों ने बेघर किया………. ,
गूगल से दुश्मनी ठाने टूटी ऐनक से
झाँक रहा है इनका विश्वास वृद्धाश्रम में
ये पतझड़ कब तक रहेगा ?
क्या भविष्य के वक्त का भी ऐसा ही पतझड़ होगा
पीला, सूना, चरमराता, परित्यक्त और बुहार दिया गया जैसे ?
घर के कूड़े– कचरे के जैसा।
वृध्द इस देश की वैचारिक धरोहर हैं
बौद्धिकता की टकसाल हैं
अनुभवों की पोटली लिए फिरते खुली किताब हैं
इन्हें इस तरह बुहार दिया जाना ज़माने को भारी पड़ेगा
भविष्य में सभ्यताएं इसे कोसेंगी।
किसी की राह ताकते जिंदा हैं इनकी सांसे
कभी तो कोई इनकी उँगली थाम कहेगा–
कहानी सुनाओ ना दादीजी,
आपकी दाढ़ी कितनी चुभती है,
आपका ऐनक टूट गया है, मेरे गुल्लक में पैसे हैं
आपके बर्थडे में गिफ्ट दूँगा……
बेंच में गूंज रहा है ऐसा ही ठहाका
बचपन की बातें, जवानी की यादें, बुढ़ापे का दर्द
लौट रहे हैं ये कदम शाम ढले अपने घरों की ओर
जहाँ अब उनके नाम की तख्ती बदल दी गयी है
कब्र की ओर बढ़ते कदम धीमे हो जाते हैं।।
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रमेशकुमार सोनी बसना छत्तीसगढ़
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