जीवन यही है
मार्च के महीने में
देखता हूँ बिखरे पत्ते धरती की छाती पर
रगड़ते घिसते
हवा की सरसराहट के संग
खर्र खर्र की आवाज बिखरती हैं कानों में
यत्र तत्र
टहनियों से अलग होने के बाद
मृत प्रायः, काली पीली काया बिखरे पत्तों की…
छोड़ती है अपनी अमिट छाप
उम्रदराज हो जाते हैं
आदमी की तरह..सूखे पत्ते
हरितिमा नहीं रहती जब कायम
वसंत ऋतु के बाद
मदमस्ती करते…निरंतरता में बहते…
अफसोस नहीं, नहीं कोई अवसाद
पत्तों के तन पर
जीवन के बाद मरण तो हैं तय
फिर क्यों बहायें आंसू
नई कोंपलों को जैसे बुलावा देते से
हताश नहीं, प्रसन्न हो रहे हैं
जवानी हमेशा जवान नहीं रहती
स्नेह की धारा
इन पत्तों की अब बहती हैं धरती की मिट्टी संग
ढांप लेते हैं
धरती का शरीर सारा
कदमताल करते
बारिश संग फिर सीखेंगे घुलना मिलना
वो ले आयेगी
उन पीले पड़े पत्तों को कब्र तक
जहाँ पर
सहजता से टिकना चाहते हैं
ताकि मिल सके पुनर्जन्म
मिट्टी को…
खाद बनकर
फिर सींचते हैं… उस हलधर का खेत…
विटामिन, प्रोटीन, खनिज लवण प्रदान करते
फसलों को…
नई स्फूर्ति, नई ताजगी ,नया उल्लास, नई उमंग भरते…
खिलखिलाते…
कब्र की उस शांत मिट्टी में…
निद्रा पूरी करते…
लहलहाती हैं वनस्पतियां, फसलें…
बहार आती हैं
फैल जाती हैं हरितिमा चंहुओर
किसान की मेहनत को और रंग जाते
ये टूटे फूटे,कटे फटे…
लहूलुहान से पत्ते…अश्रुधारा नहीं बहती फिर भी
नये जोश के साथ…. जमीन में से..
अन्न की पैदावार को बढ़ाते…
जीव जगत को हर्षाते…
बेकार नहीं…
प्रकृति के विधान के साथ…
कदमताल करते करते…
कवि के कवित्व में उभरते….
मौन ही सही…
लेकिन इनके मौन होने का भी अर्थ है…
नवजीवन…नवगाथा…नवीन कोई राह
जिस पर…
चलकर…
आदमी ही नहीं…
तैर जायेगी ये प्रकृति
पार कर लेगी भवसागर…
जीवन यही है…
जन्म यही है… मरण यही है…
चक्र यही है…
यही है…
स्पंदन गिरे पत्तों के हृदय का….।
धार्विक नमन, “शौर्य”,डिब्रूगढ़, असम,मोबाइल 09828108858
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कविता बहार से जुड़ने के लिये धन्यवाद