उगादी सृष्टि की शुरुआत को चिह्नित करने के लिए नौ दिनों में मनाया जाता है, हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार, यह माना जाता है कि भगवान ब्रह्मा ने उगादी पर ब्रह्मांड का निर्माण शुरू किया था. त्योहार दुर्गा के नौ रूपों का जश्न मनाता है, और पहला दिन (चैत्र नवरात्रि) मानव जाति की शुरुआत का जश्न मनाने के लिए समर्पित है। चैत्र नवरात्र से सम्बंधित एक कविता
आया है चैत्र नवरात्र का त्योहार
आया है चैत्र नवरात्र का त्योहार,
घर घर होगी घट स्थापना, मां दुर्गा नवरूप। सजे आज मंदिर सारे, जलें हैं दीप और जल रही धूप।। हो रही मां अम्बे हर्षित, फैला हैं उजियारा। मां का आशीर्वाद पाकर, धरती पर बचे नहीं कोई दुखियारा।। नव पंडाल लगे हैं, फूलों से जो सदा सजे हैं। भजन कीर्तन होते नित, मां की छत्रछाया में आ रहे खूब मजे हैं।। हवन हो रहे , माता को मनाना हैं। चैत्र नवरात्र में जीवन सफल बनाना हैं।। अखंड ज्योत से रोशन जीवन, मन पावन हो जाते। हाथ धरे जो मात भवानी, भवसागर तर जाते।। अन्न धन्न भंडार भरे मां, कृपा सदा बरसाती । सिंह सवार मां दुर्गा, भक्ति रस में डुबाती।। कंजिका पूजन करके, चरण प्रक्षालित करने हैं। जीवन बन जायेगा सफल, मां चरणों में बहते स्नेह झरने हैं।। सुख समृद्धि की दाता माता भवानी, हम तो हैं खल कामी। स्वार्थलोलुपता और ईर्ष्या को आओं आज भुला दें। जीवन ज्योति घर आंगन गलियारे आओं आज जला दें।।
धार्विक नमन, “शौर्य”,डिब्रूगढ़,असम,मोबाइल 09828108858 कविता बहार से जुड़ने के लिये धन्यवाद
दिल की बात जुबाँ पे अक्सर हम लाने से डरते हैं कहने को तो हम कह जाएँ पर कहने से बचते हैं। दिल वालों की इस बस्ती में कौन किसी का अपना है कहने को अपना कह जाएँ पर कहने से डरते हैं । चाहत की बुनियाद पे हमने ख़्वाबों की तामीर रखी सतरंगे अहसासों को हम बस अब अपना कहते हैं। चाहत के रिश्ते में हमने क्या खोया क्या पाया है खुद को खोकर उसको पाया हम ये कहते रहते हैं। इश्क़ अधूरा अपना यारों अब कहने की बात नहीं बस्ती बस्ती, सहरा सहरा मुस्काकर दुख सहते हैं। ज़ख्म सिये उल्फ़त में हमने जाने क्या क्या जतन किये आंखों से अश्कों के मोती फिर भी झरते रहते हैं। आवारा ये दिल का पंछी गगन तले उड़ता जाए मिल जाएगा कोई नशेमन साथ हवा के बहते हैं।
(१) भूख में तरसता यह चोला, कैसे बीतेगी ये जीवन। पहनने के लिए नहीं है वस्त्र, कैसे चलेगी ये जीवन। (२) किसने मुझे जन्म दिया, किसने मुझे पाला है। अनजान हूं इस दुनिया में, बहुतों ने ठुकराया है। (३) मजबुर हूं भीख मांगना, छोटी सी अभी बच्ची हूं। सच कहूं बाबू जी, खिली फूल की कच्ची हूं। (४) छोटी सी बहना को, कहां कहां उसे घूमाऊं। पैसे कुछ दे दे बाबू जी, दो वक्त की रोटी तो पाऊं। (५) जीवन से थक हार चुकी, कोई तो अपनाओ। बेटी मुझे बना लो, जीने की राह बताओ।
रचनाकार कवि डीजेन्द्र क़ुर्रे “कोहिनूर” पीपरभवना,बिलाईगढ़,बलौदाबाजार (छ.ग.) 812058782
कहते हैं बड़े बुजुर्ग समझदार बनो जब बेटियाँ चहकती हैं घर के बाहर खिलखिलाती हैं उड़ना चाहती हैं पंख कतर दिये जाते हैं कहा जाता है तहजीब सीखो समझदार बनो ! जब वह बराबरी करती दिखती भाई की उसे एहसास दिलाया जाता है कि तुम लड़की हो तुम्हें उड़ने का हक नहीं है बस बंद रहना है विचारों के कटघरे में तुलना न करो तुम अपने हद में रहो समझदार बनो ! माना समाज ने बहुत तरक्की की है पर कहाँ, कब, कैसे किसके लिए वही पुरातन विचार लिए दोराहे पर खड़े हैं हम कदम आगे बढ़ते ही यही कहा जाता है औकात में रहो समझदार बनो ! समाज से कहना यही है अब तो भेद-भाव की जंजीरें तोड़ो सपना हर किसी को देखने का हक है समानता की बातें करते हो सच में इसे अपनाओ समझदार बनो !
अनिता मंदिलवार सपना अंबिकापुर सरगुजा छतीसगढ़
फिर दिखे रास्ते के भिखारी क्यों
एक लड़की दीन, हीन और दुखिया, खाक पर बैठी हुई है दिल-फ़िगार । चीथड़ो से उसका जिस्म है ढँका हुआ, कायनाते-दिल में है प्रलय मचा हुआ । आँख में नींद का है हल्का खुमार, कुंचित अलकों पर है गर्द -गुबार । एक कुहना है ओढ़नी ओढ़े हुए, अंदरूनी दुख की है सच्ची दास्ताँ कहती उसकी खून जैसी लाल आँखें, बेकसी, बेचारगी का उसका हाल । उसके कोमल हाथ भीख की खातिर उठे, आह ये आफत, और ये बर्बादियाँ । रास्ते में मिल जाते हमें अक्सर ऐसे भिखारी, हाथ फैलाए हुए । सब सुविधाएँ मिलती है जब फिर दिखे रास्ते के भिखारी क्यों । आह ये जन्नत निशाँ ये हिन्दोस्तां, तू कहाँ और यह तेरी हालत कहाँ ।
अनिता मंदिलवार “सपना” अंबिकापुर सरगुजा छ.ग मोबाइल नं 9826519494