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  • सद्गुरु-महिमा न्यारी जग का भेद खोल दे

    सद्गुरु-महिमा न्यारी जग का भेद खोल दे

    सद्गुरु-महिमा न्यारी

    सद्गुरु-महिमा न्यारी, जग का भेद खोल दे।
    वाणी है इतनी प्यारी, कानों में रस घोल दे।।
    गुरु से प्राप्त की शिक्षा, संशय दूर भागते।
    पाये जो गुरु से दीक्षा, उसके भाग्य जागते।।
    गुरु-चरण को धोके, करो रोज उपासना।
    ध्यान में उनके खोकेेे, त्यागो समस्त वासना।।
    गुरु-द्रोही नहीं होना, गुरु आज्ञा न टालना।
    गुरु-विश्वास का खोना, जग-सन्ताप पालना।।
    गुरु की गरिमा भारी, आशीर्वाद प्रताड़ना।
    हरती विपदा सारी, मीठी मधुर ताड़ना।।


    अनुष्टुप् छंद (विधान)
    यह छन्द अर्धसमवृत्त है । इस के प्रत्येक चरण में आठ वर्ण होते हैं । पहले चार वर्ण किसी भी मात्रा के हो सकते हैं । पाँचवाँ लघु और छठा वर्ण सदैव गुरु होता है । सम चरणों में सातवाँ वर्ण ह्रस्व और विषम चरणों में गुरु होता है।
    (1) × × × ×   । ऽ ऽ ऽ, (2) × × × ×   । ऽ । ऽ
    (3) × × × ×   । ऽ ऽ ऽ, (4) × × × ×   । ऽ । ऽ

    उपरोक्त वर्ण विन्यास के अनुसार चार चरणों का एक छंद होता है। सम चरण (2, 4) समतुकांत होने चाहिए। रोचकता बढाने के लिए चाहें तो विषम (1, 3) भी समतुकांत कर सकते हैं पर आवश्यक नहीं।

    बासुदेव अग्रवाल ‘नमन’
    तिनसुकिया
    कविता बहार से जुड़ने के लिये धन्यवाद

  • अर्ज़ी कर लेना तुम स्वीकार ओ मैया

    अर्ज़ी कर लेना तुम स्वीकार ओ मैया

    मेरी अर्ज़ी कर लेना, अब तो तुम स्वीकार ओ मैया
    इस बेटी को दे देना, अपना थोड़ा प्यार ओ मैया
    मैं तो तेरा नाम जपूँ, चाहे रूठे संसार
    मेरी अर्ज़ी……
    हे सुखकर्णी हे दुखहरणी मैया शेर सवारी
    सकल विश्व गुणगान करे माँ तेरी महिमा न्यारी
    कल कल बहती निर्मल गंगा अम्बे शरण तिहारी
    जगमग जगमग तेरी ज्योतें मुझको लगती प्यारी
    ध्यानु ने जब तुम्हें था ध्याया तुमने किया उसका उद्धार
    अपनी दया से कर देना मुझको भी भव पार
    मेरी अर्ज़ी कर लेना…….
    धूप दीप नैवैद्य आरती कुछ न मैं  ला पाई
    अभिलाषी मेरी आँखें माँ तेरी ज्योत बनाई
    मन को तेरा भवन बनाया मूरत तेरी बसाई
    रोम रोम जिव्या ने तेरी आरती है माँ गाई
    शिव शंकर ने बतलाया है वेद पुराणों का तू सार
    मैया दुष्टों को हनने को लो काली अवतार
    मेरी अर्ज़ी कर लेना….
    जब से माँ कहना सीखा है तुझको शीश झुकाया
    दुनिया भर की खुशियों को तेरे आँचल से पाया
    कर्मों का माँ लेख है कुछ कुछ है कष्टों का साया
    तूने फिर भी अनहोनी से हर पल मुझे बचाया
    दर्शन की ‘ चाहत ‘ है मुझको छलका दो माँ अपना दुलार
    मेरी अर्ज़ी कर लेना…….


    नेहा चाचरा बहल ‘चाहत’
    झाँसी
    कविता बहार से जुड़ने के लिये धन्यवाद

  • रोज ही देखता हूँ सूरज को ढलते हुए

    रोज ही देखता हूँ सूरज को ढलते हुए

    दरख्त

    रोज ही देखता हूँ
    सूरज को ढलते हुए!
    फिर अगली सुबह ,
    निकल आता है मुस्कुराकर!
    नयी उम्मीद और विश्वास लिए,
    मेरे पास अब उम्मीद भी नहीं बची
    मेरे सारे पत्तों की तरह!
    सपने टूटने लगते हैं
    जब देखता हूँ
    कुल्हाड़ी लिये,
    बढ़ रहा है कोई मेरी ओर..
    मैं लाचार…
    विवश…
    उसे रोक नहीं सकता
    क्योंकि–
    उस इंसान की तरह ही हूँ मैं!
    उसके भी अपने उसे छोड़ जाते हैं,
    अकेला,असहाय
    लाचार,विवश…
    फर्क है बस इतना
    पतझर के मौसम में ही
    दरख्त सूखते हैं
    मगर–
    इंसानी रिश्ते किसी भी मौसम में……..

    डॉ. पुष्पा सिंह’प्रेरणा’
    कविता बहार से जुड़ने के लिये धन्यवाद

  • बसन्त और पलाश

    बसन्त और पलाश

    दहके झूम पलाश सब, रतनारे हों आज।
    मानो खेलन फाग को, आया है ऋतुराज।
    आया है ऋतुराज, चाव में मोद मनाता।
    संग खेलने फाग, वधू सी प्रकृति सजाता।
    लता वृक्ष सब आज, नये पल्लव पा महके।
    लख बसन्त का साज, हृदय रसिकों के दहके।।
    शाखा सब कचनार की, लगती कंटक जाल।
    फागुन की मनुहार में, हुई फूल के लाल।
    हुई फूल के लाल, बैंगनी और गुलाबी।
    आया देख बसंत, छटा भी हुई शराबी।
    ‘बासुदेव’ है मग्न, रूप जिसने यह चाखा।
    आमों की हर एक, लदी बौरों से शाखा।।
    हर पतझड़ के बाद में, आती सदा बहार।
    परिवर्तन पर जग टिका, हँस के कर स्वीकार।
    हँस के कर स्वीकार, शुष्क पतझड़ की ज्वाला।
    चाहो सुख-रस-धार, पियो दुख का विष-प्याला।
    कहे ‘बासु’ समझाय, देत शिक्षा हर तरुवर।
    सेवा कर निष्काम, जगत में सब के दुख हर।।
    कागज की सी पंखुड़ी, संख्या बहुल पलास।
    शोभा सभी दिखावटी, थोड़ी भी न सुवास।
    थोड़ी भी न सुवास, वृक्ष पे पूरे छाते।
    झड़ के यूँ ही व्यर्थ, पैर से कुचले जाते।
    झूठी शोभा ओढ़, बने बैठे हो दिग्गज।
    करना चाहो नाम, भरो सार्थक लिख कागज।।

    बासुदेव अग्रवाल ‘नमन’
    तिनसुकिया
    कविता बहार से जुड़ने के लिये धन्यवाद

  • तुम्हारे प्यार में कब-कब बिखरा नहीं हूँ मैं

    तुम्हारे प्यार में कब-कब बिखरा नहीं हूँ मैं

    नैनों की झील में इश्क़ का पतवार लिये
    कौन कहता है कि कभी उतरा नहीं हूँ मैं ?
    बिखरा तो बहुत हूँ ज़िंदगी के जद्दोजहद में
    तुम्हारे प्यार में कब-कब बिखरा नहीं हूँ मैं ?
    तब मेरे बालों पे उंगलियाँ क्या फेर दीं तुमने
    उस आइने से पूछिए कब से संवरा नहीं हूँ मैं ?
    इश्क़ में होके फ़ना हम उड़ चले अंबर तलक
    पर ज़माने से फिर भी भूला-बिसरा नहीं हूँ मैं !
    ‘क्षितिज’  क्या  करेगा  तनहाईयों  से लिपटकर
    कहे,एहसास-ए-शून्य-सा अभी पसरा नहीं हूँ मैं ।।
    -@निमाई प्रधान ‘क्षितिज’
             रायगढ़,छत्तीसगढ़
    कविता बहार से जुड़ने के लिये धन्यवाद