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रोज ही देखता हूँ सूरज को ढलते हुए

रोज ही देखता हूँ सूरज को ढलते हुए

दरख्त

रोज ही देखता हूँ
सूरज को ढलते हुए!
फिर अगली सुबह ,
निकल आता है मुस्कुराकर!
नयी उम्मीद और विश्वास लिए,
मेरे पास अब उम्मीद भी नहीं बची
मेरे सारे पत्तों की तरह!
सपने टूटने लगते हैं
जब देखता हूँ
कुल्हाड़ी लिये,
बढ़ रहा है कोई मेरी ओर..
मैं लाचार…
विवश…
उसे रोक नहीं सकता
क्योंकि–
उस इंसान की तरह ही हूँ मैं!
उसके भी अपने उसे छोड़ जाते हैं,
अकेला,असहाय
लाचार,विवश…
फर्क है बस इतना
पतझर के मौसम में ही
दरख्त सूखते हैं
मगर–
इंसानी रिश्ते किसी भी मौसम में……..

डॉ. पुष्पा सिंह’प्रेरणा’
कविता बहार से जुड़ने के लिये धन्यवाद

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