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तुम्हारे प्यार में कब-कब बिखरा नहीं हूँ मैं

तुम्हारे प्यार में कब-कब बिखरा नहीं हूँ मैं

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नैनों की झील में इश्क़ का पतवार लिये
कौन कहता है कि कभी उतरा नहीं हूँ मैं ?
बिखरा तो बहुत हूँ ज़िंदगी के जद्दोजहद में
तुम्हारे प्यार में कब-कब बिखरा नहीं हूँ मैं ?
तब मेरे बालों पे उंगलियाँ क्या फेर दीं तुमने
उस आइने से पूछिए कब से संवरा नहीं हूँ मैं ?
इश्क़ में होके फ़ना हम उड़ चले अंबर तलक
पर ज़माने से फिर भी भूला-बिसरा नहीं हूँ मैं !
‘क्षितिज’  क्या  करेगा  तनहाईयों  से लिपटकर
कहे,एहसास-ए-शून्य-सा अभी पसरा नहीं हूँ मैं ।।
-@निमाई प्रधान ‘क्षितिज’
         रायगढ़,छत्तीसगढ़
कविता बहार से जुड़ने के लिये धन्यवाद

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