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  • नई उम्मीदें पर कविता

    नई उम्मीदें पर कविता

    नई उम्मीदें पर कविता

    मन में आशा के दीप जला
    जीवन पथ पर बढ़ना है,
    उम्मीदें ही जीवन की पूंजी
    नया आसमान हमें पाना है।

    नई उम्मीदें पर कविता

    नई उम्मीदें संजीवनी जीवन की
    सकारात्मक सोच जगाती हैं
    पथ प्रदर्शक है मनुज की
    हौंसले बुलंद बनाती है।

    बिन उम्मीद मंजिल नहीं दिखती
    राही पथभ्रष्ट हो जाता है
    उम्मीदों का यदि दामन छोड़ा
    नैराश्य भाव ही पाता है।

    पथरीला हो पथ कितना भी
    उम्मीद का दीप नित जलता रहे
    बिन पाथेय भी संभव पथ हो
    पथिक का साहस बना रहे।

    नई उम्मीदें ही जीवन परिभाषा
    उम्मीदें ही जीवन ज्योति है
    उम्मीदों से विजय संभव है
    उम्मीदें ही नया आसमान संजोती है।

    मन का गहन तम हटाकर
    निराशा के दीप बुझाएँ
    करो खुद को बुलंद इतना
    उम्मीदों के नव दीप जलाएँ।

    उम्मीदें जीवन में स्फूर्ति लाती
    कर्मण्येवाधिकारस्ते का भाव जगाती
    मा फलेषुकदाचन: से
    पराजित को भी जयी बनाती।

    विघ्न, बाधाएँ, आँधी,झंझावात
    राहों में मिल ही जाते हैं
    उम्मीदें मन में गर अडिग हों
    गंतव्य हासिल हो जाते हैं।

    निराशा का रंचमात्र भी
    चित्त में न उदगार रहे
    सुख दुख जीवन के दो पहिए
    उम्मीदों का नभ आबाद रहे।

    उम्मीदें ही सफलता का संबल
    जीवन चक्र चलता ही रहे
    नया आसमान मिल ही जाएगा
    राही का आत्मबल बना रहे।

    कुसुम लता पुंडोरा

  • मुसाफिर ज़िंदगी का

    मुसाफिर ज़िंदगी का

    मुसाफिर ज़िंदगी का

    दु:ख; दमन को भ्रमण करूँ दुनिया            
    अरे ! सृष्टि में यह दर-दर है।
    चलता हूं बनकर मुसाफिर
    कण्टकों से मार्ग भर।                     

    कण्टकों से सीखा जीना
    दर्द दे जीना सिखाया।

    जीकर मरता? मरकर जीता?
    जीता ही; या मरता ही?

    मदिरापान कर मर जाऊं मैं;
    मदिरा पीकर जी उठता।

    मदिरा का मैं पान करूं या
    पान करे मदिरा मेरा?
    कंगाल करे मदिरा मुझको या
    मदिरालय कंगाल करूँ मैं?

    तीव्र गति यह चलती दुनिया
    या स्वयं मैं पंगु हूं?                              
    दुनिया के ‘तम’ में जीता हूं                       
    या तम मुझमें ही जीता?

    भ्रांत दुनिया या पथिक ही
    भ्रांत हूं मैं इस जग में?

    चले बयार मन्थर-मन्थर;         
    विष लिए? सौरभ लिए?
    कवि हृदय कहता है ‘सौरभ’
    मैं तो कहता विष धरे।
    रूप जो विकराल हों
    वृक्ष इसके शत्रु हों;
    वृक्ष को ऐसे झकझोरे
    जब तक अंतिम श्वांस न ले।

    ईश्वर तेरा दास हूं मैं
    हुक्म तू दे मैं जान भी दूं।
    दानव हों या संन्यासी
    तुझको ही पूजे दुनिया।

    जीवन जीता दर्द में ये दुनिया
    मर जाऊंगा हँस देगी।

    -कीर्ति जायसवाल
    प्रयागराज

  • तेरस के दोहे

    तेरस के दोहे

    तेरस के दोहे

    1. आयें है संसार मे, करो नेक सब काम।
      यहीं कर्म का फल मिले, स्वर्ग नरक की धाम।।
    2. यत्न सदा करते रहो, मान नही तुम हार।
      हाथ सफल लगते गले, होत न श्रम बेकार।।
    3. बरफ जमी है यूँ जमी, ठिठुर गये सब अंग।
      कम्बल टोपी ले रखो, पहन ढ़ाक तन संग।।
    4. शीत लहर चलने लगी, बरस रही कण ओस।
      शाम ढ़ले घर को चलो, ठंड बचे कर होश।।
    5. जंगल सदा दिखे हरा, ऎसे करना काम।
      पेड़ लगा जीवन बचा, यह है चारो धाम।।
    6. निर्मल पावन जल धरा, जीवन का आधार।
      पवन बहे नभ वन चमन, स्वप्न करो साकार।।
    7. खग कब ठग उड़ जात है, काया माया छोड़।
      दम्भ भाव को त्याग के, मधुर मिलन तो जोड़।।
    8. मादक बेहद विष घना, लत मे जन है आज।
      पतन राह से तन जला, गृह पट दुख गिर गाज।।
    9. बेटी बेटा सा लगे, नही करो तुम भेद।
      कन्या चलो बचाव करें, अकल थाल मत छेद।।
    10. फूँक – फूँककर पाँव रख, काँटे बिखरे राह।
      इधर – उधर अब ताकना, काबू रखो निगाह।।

    तेरस कैवर्त्य (आँसू)
    सोनाडुला, (बिलाईगढ़)
    जिला – बलौदाबाजार (छ.ग.)

  • नयी सुबह पर कविता

    नयी सुबह पर कविता

    नयी सुबह पर कविता

    जिम्मेदारीयों को
    कंधो पर बिठाकर
    कुछ कुछ जरूरतें पूरी करता
    ख्वाहिशो को
    आलमारी में बंद करके
    गम छुपाकर
    चेहरे पर एक खामोश हंसी
    लाता ..
    सच मे नही है कोई शिकन
    मेरे माथे पर..
    क्योंकि
    बे-हिसाब उम्मीदो से
    भरे है जेब मेरे..
    और 
    अनगिनत ख़्वाब भी
    देखे थे पहले कभी..
    ओह !
    यह क्या ?
    दिन निकल गया 
    ये सब सोचते सोचते
    अंधेरे ने फैला दिया
    अपना साम्राज्य फिर से
    सच में रात हो गयी
    अब कमरे के
    किसी कोने मैं बैठकर
    सो जाऊँगा मैं..
    और
    इंतजार रहेगा
    फिर से एक
    नयी सुबह का
    शायद कुछ
    बदल जाये 
    इस उम्मीद के साथ ।

    कवि राहुल सेठ “राही”

  • हम परिन्दे

    हम परिन्दे

    हम परिन्दे

    हम परिन्दे
    हम है मनमौजी
    सीमा न जाने।।

    हम परिन्दे
    घर न पहचाने
    घूमे अंजाने।।

    हम परिन्दे
    उड़ते पंख फैला
    देश न जानें ।।

    हम परिन्दे
    फिरे दरबदर
    बना लें घर।।

    हम परिन्दे
    छू लेते आसमान
    ऊंची उड़ान ।।
    हम परिन्दे
    रहें खूब उड़ते
    नहीं थकते।।

    राकेश नमित