सुलगता हुआ शहर देखता हूँ

सुलगता हुआ शहर देखता हूँ

 

इधर भी उधर भी जिधर देखता हूँ,
सुलगता हुआ हर शहर देखता हूँ,

कहीं लड़ रहे हैं कहीं मर रहे हैं,
झगड़ता हुआ हर नगर देखता हूँ,

कहीं आग में जल न जाए यहाँ सब,
झुलसता हुआ हर बसर देखता हूँ,

सियासत बहुत है घिनौना यहाँ पर,
छिड़कता हुआ अब जहर देखता हूँ,

न जाने लड़ाकर मिलेगा तुम्हें क्या,
भटकता हुआ दर-बदर देखता हूँ,


     ✍ केतन साहू “खेतिहर”

   बागबाहरा, महासमुंद (छ.ग.)

कविता बहार से जुड़ने के लिये धन्यवाद

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *