मेरे गांव का बरगद
मेरे गाँव का बरगद
आज भी
वैसे ही खड़ा है
जैसे बचपन में देखा करता था
जब से मैंने होश संभाला है
अविचल
वैसे ही पाया है
हम बचपन में
उनकी लटों से झूला करते थे
उनकी मोटी-मोटी शाखाओं
के इर्द-गिर्द छुप जाया करते थे
धूप हो या बारिश
उसके नीचे
घर-सा
निश्चिंत होते थे
तब हम लड़खड़ाते थे
अब खड़े हो गए
तब हम बच्चे थे
अब बड़े हो गए
तब हम तुतलाते थे
अब बोलना सीख गए
तब हम अबोध थे
अब समझदार हो गए
तब अवलंबित थे
अब आत्मनिर्भर हो गए
तब हम बेपरवाह थे
अब जिम्मेदार हो गए
तब पास-पास थे
अब कितने दूर-दूर हो गए
बरगद आज भी
वैसा ही खड़ा है
अपनी आँखों से
न जाने कितनी पीढियां देखी होगी
न जाने कितने
उतार-चढ़ाव झेले होंगे
अपने भीतर
न जाने कितने
अनगिनत
यादों को सहेजे होंगे
पर अब
एकदम उदास-सा
अकेला खड़ा होता है
जैसे किसी के इंतिजार में हो…
अब कोई नहीं होते
उनके आसपास
न चिड़ियाँ, न बच्चे, न बूढ़े
न कलरव, न कोलाहल, न हँसी…
साल में एक या दो बार
जब जाता हूँ गाँव
बरगद के करीब से
अज़नबी की तरह गुजर जाता हूँ
कभी-कभी लगता है
ये बड़प्पन
ये समझदारी
ये आत्मनिर्भरता
ये जिम्मेदारी
और ये दूरी…
आख़िर किस काम के
जो अपनों को अज़नबी बना दे
हम रोज़मर्रा में
इतने मशगूल हो गए
कि हमारे पास इतना भी वक्त नहीं
कि मधुर यादों को
याद कर सके ,जी सकें…
हमारे गाँव में
न जाने कितने लोग
हमारी मधुर यादों से जुड़े हुए
करते होंगे हमें याद…
हमारा इंतिजार…
पर
हम ‘काम’ के मारे हैं
उनके अकेलेपन और उदासी के लिए
हमारे पास वक्त नहीं
तुम्हें हमारी यादों के सहारे
अकेले ही जीना होगा
हे! मेरे गाँव के बरगद…।
— नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
कविता बहार से जुड़ने के लिये धन्यवाद