उठो जगो बंधु-जागरण कविता

यह मेरी मौलिक जागरण कविता है,जो उपेन्द्रवज्रा छंद में है।जब कभी मन जीवन के उद्देश्य से भटककर नैराश्य और अंधकार की ओर प्रवृत होने लगता है,तब यह कविता नई ऊर्जा और नया उद्देश्य देती है।

उठो जगो बंधु-जागरण कविता

kavita

उठो जगो बंधु अभी न सोओ,
तजो सभी स्वप्न यथार्थ टोओ।
भरो पगों में अभिलाष दूना,
मिले सु-संयोग कभी न खोना | १ |

फिरे कदाचित् न व्यतीत वेला,
चलो दिखाओ कुछ नव्य खेला।
सहस्त्र बाधा बहु बिघ्न आवें,
तथापि पंथी भय ना दिखावें। २।

उठो कि आओ भव डोल दो रे,
चलो कि आओ महि तोल दो रे !
उड़ो – उड़ो छू चल चाँद तारे,
रहो सदा ही गतिमान प्यारे | ३ |

रुके न होते सब काम प्यारे,
रुके भला हो कब नाम प्यारे ?
यहाँ सभी हैं गतिमान प्यारे,
सहेज रक्खो पहचान प्यारे |४|

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