छत्तीसगढ़ी कविता – जड़कल्ला के बेरा

छत्तीसगढ़ी कविता
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जड़कल्ला के बेरा -छत्तीसगढ़ी कविता

आगे रे दीदी, आगे रे ददा, ऐ दे फेर जड़कल्ला के बेरा।
गोरसी म आगी तापो रे भइया , चारोखुँट लगा के घेरा॥

रिंगीचिंगी पहिरके सूटर,नोनी बाबू ल फबे हे।
काम बूता म,मन नई लागे, बने जमक धरे हे।
देहे म सुस्ती छागय हे,घाम लागे बड़ मजा के।
दाँत ह किटकिटावथे,नहाय लागे बड़ सजा के।

नानकून दिन होगे रे संगी, संझा पहिली अंधेरा॥1॥

आगे रे दीदी, आगे रे ददा, ऐ दे फेर जड़कल्ला के बेरा।
गोरसी म आगी तापो रे भइया , चारोखुँट लगा के घेरा॥

हाथ कान बरफ होगे, सरीर ल कँपकँपावत हे।
सेहत बर बिहनियाँ घुमई, अब्बड़ मजा आवत हे।
लईकामन के दसा मत पुछ “मनीभाई” परीक्षा दिन आगे।
पर नीचट टूरामन अलसूहा हावे,रजई म जाके सकलागे।

अऊ चेतभूत के सूरता नईये , मुहु म लांबत हे लेरा॥2॥

आगे रे दीदी, आगे रे ददा, ऐ दे फेर जड़कल्ला के बेरा।
गोरसी म आगी तापो रे भइया , चारोखुँट लगा के घेरा॥

फेर ए सीतहा मौसम, हावे रे अब्बड़ सुहाना।
गरमागरम चाहा सुरक, अऊ भजिया गबागब खाना।
बजार म, ताजा साग सब्जी के, सस्ती होगे न।
नालीडबरा सुखाके, साफ सुथरा बस्ती होगे न।

ऐसो फेर मनाबो तिज तिहार, देवारी अऊ छेरछेरा॥3॥

आगे रे दीदी, आगे रे ददा, ऐ दे फेर जड़कल्ला के बेरा।
गोरसी म आगी तापो रे भइया , चारोखुँट लगा के घेरा॥

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