माँ के आँचल में सो जाऊँ (१६ मात्रिक)

माँ के आँचल में सो जाऊँ (१६ मात्रिक)

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आज नहीं है, मन पढ़ने का,
मानस नहीं गीत,लिखने का।
मन विद्रोही, निर्मम दुनिया,
मन की पीड़ा, किसे बताऊँ,
माँ के आँचल में, सो जाऊँ।

मन में यूँ तूफान मचलते,
घट मे सागर भरे छलकते।
मन के छाले घाव बने अब,
उन घावों को ही सहलाऊँ,
माँ के आँचल में सो जाऊँ।

तन छीजे,मन उकता आता,
याद करें, मंगल खो जाता।
तनकी मनसे,तान मिले बिन
कैसे स्वर, संगीत सजाऊँ,
माँ के आँचल में, सो जाऊँ।

जय जवान के नारे बुनता,
सेना के पग बंधन सुनता।
शासन लचर बढ़े आतंकी,
कैसे अब नव गीत बनाऊँ,
माँ के आँचल में सो जाऊँ।

जयकिसान भोजनदाता है,
धान कमाए, गम खाता है।
आजीवन जो कर्ज चुकाये,
उनके कैसे फर्ज निभाऊँ,
माँ के आँचल में सो जाऊँ।

गंगा, गैया, धरा व नारी,
जननी के प्रति रुप हमारी।
रोज विचित्र कहानी सुनता,
कैसे अब सम्मान बचाऊँ,
माँ के आँचल में सो जाऊँ।

जाति धर्म में बँटता मानव,
मत के खातिर नेता दानव।
दीन गरीबी बढ़ती जाती,
कैसे किसको धीर बँधाऊँ,
माँ के आँचल में सो जाऊँ।

रिश्तों के अनुबंध उलझते,
मन के सब पैबन्द उघड़ते।
नेह स्नेह की रीत नहीं अब,
प्रीत लिखूँ तो किसे सुनाऊँ,
माँ के आँचल में सो जाऊँ।

संसकार मरयादा वाली,
नेह स्नेह की झोली खाली।
मातृशक्ति अपमान सहे तो,
माँ का प्यार कहाँ से लाऊँ,
माँ के आँचल में सो जाऊँ।
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बाबू लाल शर्मा “बौहरा” *विज्ञ*

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