देख रहे हो बापूजी
देख रहे हो बापूजी,
कैसा है आपके सपनों का भारत।
निज स्वार्थ सिद्ध करने हेतु,
जन-जन ने प्राप्त कर ली है महारत।
देख रहे हो बापूजी,
गांवों की हालत आपसे क्या कहें।
इतना विकास हुआ ग्राम्य अंचल का,
कि अब गांव, गांव ना रहे।
देख रहे हो बापूजी,
आपकी खादी कितना बदनाम हो गई।
गांधीगिरी का दामन छोड़कर,
अब नेतागिरी के नाम हो गई।
देख रहे हो बापूजी,
धीरे-धीरे शिक्षा व्यवस्था का भी विकास हो रहा है।
विद्यालयीन पाठ्यक्रम से अब तो,
नैतिक मूल्यों का ह्रास हो रहा है।
देख रहे हो बापूजी,
मानवीय ऊर्जा सुषुप्त हो रहे है।
अब आम जन के मन से,
स्वावलंबन के भाव विलुप्त हो रहे हैं।
देख रहे हो बापूजी,
आजकल अपनों में ही ऐसा द्वंद है।
अहिंसा डरी-सहमी बैठी है,
हिंसा घूमती स्वच्छंद है।
विनोद कुमार चौहान “जोगी”