आख़िर गुस्तागी पर कविता

आख़िर गुस्तागी पर कविता

अहम से भरा मूर्तिमान
राजन ऊँचे आसन पर
विराजमान था
चाटुकार मंत्रीगण
उनके नीचे इर्द गिर्द बैठे हुए थे

दरबार में मेरी पेशी थी
मुझे ही मेरी गुस्ताख़ी पता नहीं था
मुझ पर कुछ आरोप भी नहीं थे
मन ही मन सोचा–
आख़िर मेरी पेशगी क्यों..?
मन से ही उत्तर मिला
हाँ ! यह पेशगी राजा के ‘अहम’ के वास्ते होगा

राजन बस लगातार
चिल्लाता रहा
घुड़कता रहा
बकता रहा
घूरता रहा

मैं था एकदम खामोश
नतमस्तक
बस लगातार
सुनता रहा
गुनता रहा
और ढूँढता रहा
शायद हो या न हो
फिर भी
अपने जिस्म के एक-एक कोने में
शरीर की प्रत्येक कोशिकाओं में
तलाशता ही रहा
अपने ‘अहम’ का बचा खुचा कोई अंश

आखिरकार मिला मुझे
मेरे ‘अहम’ का एक छोटा-सा अंश
जो था बिलकुल
निष्क्रिय, निस्तेज और अनुपयोगी
कुरेदा उसे बार-बार
और जगाया उसे जैसे-तैसे

जब मेरा ‘अहम’ जागा
मैंने भी नज़रें उठाई
तीख़ी नज़रों से
ऊँचे आसन पर विराजे
राजन को घूरा

सहम गया वह सहसा
उसकी गोल-गोल,बड़ी-बड़ी आँखें सिकुड़ गई
उसका ‘अहम’ कहीं दुबक गया

वह अपनी दबी ज़ुबान से
बस इतना कहा–
“आज दरबार की कार्यवाही यहीं पर मुलतवी की जाती है।”

फिर दरबार नहीं लगा
मुझे दोबारा बुलाया भी नहीं गया
बिना अपील, बिना दलील के
मुझ पर कार्यवाही हुई
तड़ीपार किया गया मुझे

मुझे अपनी गुस्ताख़ी अब भी नहीं पता है
सिवाय इसके कि दरबार में पहली बार
आज मैंने नज़रें उठाई थी
और ललकारा था राजन के ‘अहम’से भरे साम्राज्य को।

— नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
9755852479

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