Author: कविता बहार

  • कुंवर नारायण की लोकप्रिय कवितायेँ

    कुंवर नारायण की लोकप्रिय कवितायेँ

    यहाँ पर कुंवर नारायण की लोकप्रिय कवितायेँ दिए जा रहे हैं जो भी आपको अच्छी लगे उसे आप कमेंट कर हमें जरुर बताएं

    कुंवर नारायण की लोकप्रिय कवितायेँ

    बीमार नहीं है वह / कुंवर नारायण

    बीमार नहीं है वह
    कभी-कभी बीमार-सा पड़ जाता है
    उनकी ख़ुशी के लिए
    जो सचमुच बीमार रहते हैं।

    किसी दिन मर भी सकता है वह
    उनकी खुशी के लिए
    जो मरे-मरे से रहते हैं।

    कवियों का कोई ठिकाना नहीं
    न जाने कितनी बार वे
    अपनी कविताओं में जीते और मरते हैं।

    उनके कभी न मरने के भी उदाहरण हैं
    उनकी ख़ुशी के लिए
    जो कभी नहीं मरते हैं।

    नीली सतह पर / कुंवर नारायण

    सुख की अनंग पुनरावृत्तियों में,
    जीवन की मोहक परिस्थितियों में,
    कहाँ वे सन्तोष
    जिन्हें आत्मा द्वारा चाहा जाता है ?

    शीघ्र थक जाती देह की तृप्ति में,
    शीघ्र जग पड़ती व्यथा की सुप्ति में,
    कहाँ वे परितोष
    जिन्हें सपनों में पाया जाता है ?

    आत्मा व्योम की ओर उठती रही,
    देह पंगु मिट्टी की ओर गिरती रही,
    कहाँ वह सामर्थ्य
    जिसे दैवी शरीरों में गाया जाता है ?

    पर मैं जानता हूँ कि
    किसी अन्देशे के भयानक किनारे पर बैठा जो मैं
    आकाश की निस्सीम नीली सतह पर तैरती
    इस असंख्य सीपियों को देख रहा हूँ
    डूब जाने को तत्पर
    ये सभी किसी जुए की फेंकी हुई कौड़ियाँ हैं
    जो अभी-अभी बटोर ली जाएँगी :
    फिर भी किसी अन्देशे से आशान्वित
    ये एक असम्भव बूँद के लिए खुली हैं,
    और हमारे पास उन अनन्त ज्योति-संकेतों को भेजती हैं
    जिनसे आकाश नहीं
    धरती की ग़रीब मिट्टी को सजाया जाता है ।

    एक अजीब दिन / कुंवर नारायण

    आज सारे दिन बाहर घूमता रहा

    और कोई दुर्घटना नहीं हुई।

    आज सारे दिन लोगों से मिलता रहा

    और कहीं अपमानित नहीं हुआ।

    आज सारे दिन सच बोलता रहा

    और किसी ने बुरा न माना।

    आज सबका यकीन किया

    और कहीं धोखा नहीं खाया।

    और सबसे बड़ा चमत्कार तो यह

    कि घर लौटकर मैंने किसी और को नहीं

    अपने ही को लौटा हुआ पाया।

    आँकड़ों की बीमारी / कुंवर नारायण

    एक बार मुझे आँकड़ों की उल्टियाँ होने लगीं
    गिनते गिनते जब संख्या
    करोड़ों को पार करने लगी
    मैं बेहोश हो गया

    होश आया तो मैं अस्पताल में था
    खून चढ़ाया जा रहा था
    आँक्सीजन दी जा रही थी
    कि मैं चिल्लाया
    डाक्टर मुझे बुरी तरह हँसी आ रही
    यह हँसानेवाली गैस है शायद
    प्राण बचानेवाली नहीं
    तुम मुझे हँसने पर मजबूर नहीं कर सकते
    इस देश में हर एक को अफ़सोस के साथ जीने का
    पैदाइशी हक़ है वरना
    कोई माने नहीं रखते हमारी आज़ादी और प्रजातंत्र

    बोलिए नहीं – नर्स ने कहा – बेहद कमज़ोर हैं आप
    बड़ी मुश्किल से क़ाबू में आया है रक्तचाप

    डाक्टर ने समझाया – आँकड़ों का वाइरस
    बुरी तरह फैल रहा आजकल
    सीधे दिमाग़ पर असर करता
    भाग्यवान हैं आप कि बच गए
    कुछ भी हो सकता था आपको –

    सन्निपात कि आप बोलते ही चले जाते
    या पक्षाघात कि हमेशा कि लिए बन्द हो जाता
    आपका बोलना
    मस्तिष्क की कोई भी नस फट सकती थी
    इतनी बड़ी संख्या के दबाव से
    हम सब एक नाज़ुक दौर से गुज़र रहे
    तादाद के मामले में उत्तेजना घातक हो सकती है
    आँकड़ों पर कई दवा काम नहीं करती
    शान्ति से काम लें
    अगर बच गए आप तो करोड़ों में एक होंगे …..

    अचानक मुझे लगा
    ख़तरों से सावधान कराते की संकेत-चिह्न में
    बदल गई थी डाक्टर की सूरत
    और मैं आँकड़ों का काटा
    चीख़ता चला जा रहा था
    कि हम आँकड़े नहीं आदमी हैं

    एक हरा जंगल / कुंवर नारायण

    एक हरा जंगल धमनियों में जलता है।
    तुम्हारे आँचल में आग…
    चाहता हूँ झपटकर अलग कर दूँ तुम्हें
    उन तमाम संदर्भों से जिनमें तुम बेचैन हो
    और राख हो जाने से पहले ही
    उस सारे दृश्य को बचाकर
    किसी दूसरी दुनिया के अपने आविष्कार में शामिल कर लूँ

    लपटें एक नए तट की शीतल सदाशयता को छूकर लौट जाएँ।

    कमरे में धूप / कुंवर नारायण

     हवा और दरवाज़ों में बहस होती रही,
    दीवारें सुनती रहीं।
    धूप चुपचाप एक कुरसी पर बैठी
    किरणों के ऊन का स्वेटर बुनती रही।

    सहसा किसी बात पर बिगड़ कर
    हवा ने दरवाज़े को तड़ से
    एक थप्पड़ जड़ दिया !

    खिड़कियाँ गरज उठीं,
    अख़बार उठ कर खड़ा हो गया,
    किताबें मुँह बाये देखती रहीं,
    पानी से भरी सुराही फर्श पर टूट पड़ी,
    मेज़ के हाथ से क़लम छूट पड़ी।

    धूप उठी और बिना कुछ कहे
    कमरे से बाहर चली गई।

    शाम को लौटी तो देखा
    एक कुहराम के बाद घर में ख़ामोशी थी।
    अँगड़ाई लेकर पलँग पर पड़ गई,
    पड़े-पड़े कुछ सोचती रही,
    सोचते-सोचते न जाने कब सो गई,
    आँख खुली तो देखा सुबह हो गई।

    कविता की ज़रूरत / कुंवर नारायण

    बहुत कुछ दे सकती है कविता
    क्यों कि बहुत कुछ हो सकती है कविता
    ज़िन्दगी में

    अगर हम जगह दें उसे
    जैसे फलों को जगह देते हैं पेड़
    जैसे तारों को जगह देती है रात

    हम बचाये रख सकते हैं उसके लिए
    अपने अन्दर कहीं
    ऐसा एक कोना
    जहाँ ज़मीन और आसमान
    जहाँ आदमी और भगवान के बीच दूरी
    कम से कम हो ।

    वैसे कोई चाहे तो जी सकता है
    एक नितान्त कवितारहित ज़िन्दगी
    कर सकता है
    कवितारहित प्रेम

    आदमी का चेहरा / कुंवर नारायण

    “कुली !” पुकारते ही

    कोई मेरे अंदर चौंका ।

    एक आदमी आकर खड़ा हो गया मेरे पास

    सामान सिर पर लादे

    मेरे स्वाभिमान से दस क़दम आगे

    बढ़ने लगा वह

    जो कितनी ही यात्राओं में

    ढ़ो चुका था मेरा सामान

    मैंने उसके चेहरे से उसे

    कभी नहीं पहचाना

    केवल उस नंबर से जाना

    जो उसकी लाल कमीज़ पर टँका होता

    आज जब अपना सामान ख़ुद उठाया

    एक आदमी का चेहरा याद आया

    कोलम्बस का जहाज / कुंवर नारायण


    बार-बार लौटता है
    कोलम्बस का जहाज
    खोज कर एक नई दुनिया,
    नई-नई माल-मंडियाँ,
    हवा में झूमते मस्तूल
    लहराती झंडियाँ।

    बाज़ारों में दूर ही से
    कुछ चमकता तो है −
    हो सकता है सोना
    हो सकती है पालिश
    हो सकता है हीरा
    हो सकता है काँच…
    ज़रूरी है पक्की जाँच।

    ज़रूरी है सावधानी
    पृथ्वी पर लौटा है अभी-अभी
    अंतरिक्ष यान
    खोज कर एक ऐसी दुनिया
    जिसमें न जीवन है − न हवा − न पानी −

    नई किताबें / कुंवर नारायण

    नई नई किताबें पहले तो
    दूर से देखती हैं
    मुझे शरमाती हुईं

    फिर संकोच छोड़ कर
    बैठ जाती हैं फैल कर
    मेरे सामने मेरी पढ़ने की मेज़ पर

    उनसे पहला परिचय…स्पर्श
    हाथ मिलाने जैसी रोमांचक
    एक शुरुआत…

    धीरे धीरे खुलती हैं वे
    पृष्ठ दर पृष्ठ
    घनिष्ठतर निकटता
    कुछ से मित्रता
    कुछ से गहरी मित्रता
    कुछ अनायास ही छू लेतीं मेरे मन को
    कुछ मेरे चिंतन की अंग बन जातीं
    कुछ पूरे परिवार की पसंद
    ज़्यादातर ऐसी जिनसे कुछ न कुछ मिल जाता

    फिर भी
    अपने लिए हमेशा खोजता रहता हूँ
    किताबों की इतनी बड़ी दुनिया में
    एक जीवन-संगिनी
    थोडी अल्हड़-चुलबुली-सुंदर
    आत्मीय किताब
    जिसके सामने मैं भी खुल सकूँ
    एक किताब की तरह पन्ना पन्ना
    और वह मुझे भी
    प्यार से मन लगा कर पढ़े…

  • भारतेंदु हरिश्चंद्र की लोकप्रिय कवितायेँ

    यहाँ पर भारतेंदु हरिश्चंद्र की लोकप्रिय कवितायेँ के पढेंगे . आपको जो भी कविता अच्छी लगे कमेंट करके जरुर बताएं

    कवि परिचय

    भारतेन्दु हरिश्चन्द्र (9 सितंबर 1850-6 जनवरी 1885) आधुनिक हिंदी साहित्य के पितामह कहे जाते हैं। वे हिन्दी में आधुनिकता के पहले रचनाकार थे। इनका मूल नाम ‘हरिश्चन्द्र’ था, ‘भारतेन्दु’ उनकी उपाधि थी। उनका कार्यकाल युग की सन्धि पर खड़ा है। उन्होंने रीतिकाल की विकृत सामन्ती संस्कृति की पोषक वृत्तियों को छोड़कर स्वस्थ परम्परा की भूमि अपनाई और नवीनता के बीज बोये।

    हिन्दी साहित्य में आधुनिक काल का प्रारम्भ भारतेन्दु हरिश्चन्द्र से माना जाता है। भारतीय नवजागरण के अग्रदूत के रूप में प्रसिद्ध भारतेन्दु जी ने देश की गरीबी, पराधीनता, शासकों के अमानवीय शोषण का चित्रण को ही अपने साहित्य का लक्ष्य बनाया। हिन्दी को राष्ट्र-भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने की दिशा में उन्होंने अपनी प्रतिभा का उपयोग किया। ब्रिटिश राज की शोषक प्रकृति का चित्रण करने वाले उनके लेखन के लिए उन्हें युग चारण माना जाता है।

    भारतेंदु हरिश्चंद्र की लोकप्रिय कवितायेँ
    भारतेंदु हरिश्चंद्र की लोकप्रिय कवितायेँ

    भारतेंदु हरिश्चंद्र की लोकप्रिय कवितायेँ

    गंगा-वर्णन/भारतेंदु हरिश्चंद्र

    नव उज्ज्वल जलधार हार हीरक सी सोहति।
    बिच-बिच छहरति बूंद मध्य मुक्ता मनि पोहति॥

    लोल लहर लहि पवन एक पै इक इम आवत ।
    जिमि नर-गन मन बिबिध मनोरथ करत मिटावत॥

    सुभग स्वर्ग-सोपान सरिस सबके मन भावत।
    दरसन मज्जन पान त्रिविध भय दूर मिटावत॥

    श्रीहरि-पद-नख-चंद्रकांत-मनि-द्रवित सुधारस।
    ब्रह्म कमण्डल मण्डन भव खण्डन सुर सरबस॥

    शिवसिर-मालति-माल भगीरथ नृपति-पुण्य-फल।
    एरावत-गत गिरिपति-हिम-नग-कण्ठहार कल॥

    सगर-सुवन सठ सहस परस जल मात्र उधारन।
    अगनित धारा रूप धारि सागर संचारन॥

    यमुना-वर्णन/भारतेंदु हरिश्चंद्र

    तरनि तनूजा तट तमाल तरुवर बहु छाये।
    झुके कूल सों जल-परसन हित मनहु सुहाये॥
    किधौं मुकुर मैं लखत उझकि सब निज-निज सोभा।
    कै प्रनवत जल जानि परम पावन फल लोभा॥
    मनु आतप वारन तीर कौं, सिमिटि सबै छाये रहत।
    कै हरि सेवा हित नै रहे, निरखि नैन मन सुख लहत॥१॥

    तिन पै जेहि छिन चन्द जोति रक निसि आवति ।
    जल मै मिलिकै नभ अवनी लौं तानि तनावति॥
    होत मुकुरमय सबै तबै उज्जल इक ओभा ।
    तन मन नैन जुदात देखि सुन्दर सो सोभा ॥
    सो को कबि जो छबि कहि , सकै ता जमुन नीर की ।
    मिलि अवनि और अम्बर रहत ,छबि इक – सी नभ तीर की ॥२॥

    परत चन्र्द प्रतिबिम्ब कहूँ जल मधि चमकायो ।
    लोल लहर लहि नचत कबहुँ सोइ मन भायो॥
    मनु हरि दरसन हेत चन्र्द जल बसत सुहायो ।
    कै तरंग कर मुकुर लिये सोभित छबि छायो ॥
    कै रास रमन मैं हरि मुकुट आभा जल दिखरात है ।
    कै जल उर हरि मूरति बसति ता प्रतिबिम्ब लखात है ॥३ ॥

    कबहुँ होत सत चन्द कबहुँ प्रगटत दुरि भाजत ।
    पवन गवन बस बिम्ब रूप जल मैं बहु साजत ।।
    मनु ससि भरि अनुराग जामुन जल लोटत डोलै ।
    कै तरंग की डोर हिंडोरनि करत कलोलैं ।।
    कै बालगुड़ी नभ में उड़ी, सोहत इत उत धावती ।
    कई अवगाहत डोलात कोऊ ब्रजरमनी जल आवती ।।४।।

    मनु जुग पच्छ प्रतच्छ होत मिटी जात जामुन जल ।
    कै तारागन ठगन लुकत प्रगटत ससि अबिकल ।।
    कै कालिन्दी नीर तरंग जितौ उपजावत ।
    तितनो ही धरि रूप मिलन हित तासों धावत ।।
    कै बहुत रजत चकई चालत कै फुहार जल उच्छरत ।
    कै निसिपति मल्ल अनेक बिधि उठि बैठत कसरत करत ।।५।।

    कूजत कहुँ कलहंस कहूँ मज्जत पारावत ।
    कहुँ काराणडव उडत कहूँ जल कुक्कुट धावत ।।
    चक्रवाक कहुँ बसत कहूँ बक ध्यान लगावत ।
    सुक पिक जल कहुँ पियत कहूँ भ्रम्रावलि गावत ।।
    तट पर नाचत मोर बहु रोर बिधित पच्छी करत ।
    जल पान न्हान करि सुख भरे तट सोभा सब धरत ।।६।।

    बन्दर सभा/भारतेंदु हरिश्चंद्र

    आना राजा बन्दर का बीच सभा के,
    सभा में दोस्तो बन्दर की आमद आमद है।
    गधे औ फूलों के अफसर जी आमद आमद है।
    मरे जो घोड़े तो गदहा य बादशाह बना।
    उसी मसीह के पैकर की आमद आमद है।
    व मोटा तन व थुँदला थुँदला मू व कुच्ची आँख
    व मोटे ओठ मुछन्दर की आमद आमद है ।।
    हैं खर्च खर्च तो आमद नहीं खर-मुहरे की
    उसी बिचारे नए खर की आमद आमद है ।।1।।

    बोले जवानी राजा बन्दर के बीच अहवाल अपने के,
    पाजी हूँ मं कौम का बन्दर मेरा नाम।
    बिन फुजूल कूदे फिरे मुझे नहीं आराम ।।
    सुनो रे मेरे देव रे दिल को नहीं करार।
    जल्दी मेरे वास्ते सभा करो तैयार ।।
    लाओ जहाँ को मेरे जल्दी जाकर ह्याँ।
    सिर मूड़ैं गारत करैं मुजरा करैं यहाँ ।।2।।

    आना शुतुरमुर्ग परी का बीच सभा में,
    आज महफिल में शुतुरमुर्ग परी आती है।
    गोया गहमिल से व लैली उतरी आती है ।।
    तेल और पानी से पट्टी है सँवारी सिर पर।
    मुँह पै मांझा दिये लल्लादो जरी आती है ।।
    झूठे पट्ठे की है मुबाफ पड़ी चोटी में।
    देखते ही जिसे आंखों में तरी आती है ।।
    पान भी खाया है मिस्सी भी जमाई हैगी।
    हाथ में पायँचा लेकर निखरी आती है ।।
    मार सकते हैं परिन्दे भी नहीं पर जिस तक।
    चिड़िया-वाले के यहाँ अब व परी आती है ।।
    जाते ही लूट लूँ क्या चीज खसोटूँ क्या शै।
    बस इसी फिक्र में यह सोच भरी आती है ।।3।।

    गजल जवानी शुतुरमुर्ग परी हसन हाल अपने के,
    गाती हूँ मैं औ नाच सदा काम है मेरा।
    ऐ लोगो शुतुरमुर्ग परी नाम है मेरा ।।
    फन्दे से मेरे कोई निकले नहीं पाता।
    इस गुलशने आलम में बिछा दाम है मेरा ।।
    दो चार टके ही पै कभी रात गँवा दूँ।
    कारूँ का खजाना कभी इनआम है मेरा ।।
    पहले जो मिले कोई तो जी उसका लुभाना।
    बस कार यही तो सहरो शाम है मेरा ।।
    शुरफा व रुजला एक हैं दरबार में मेरे।
    कुछ सास नहीं फैज तो इक आम है मेरा ।।
    बन जाएँ जुगत् तब तौ उन्हें मूड़ हा लेना।
    खली हों तो कर देना धता काम है मेरा ।।
    जर मजहबो मिल्लत मेरा बन्दी हूँ मैं जर की।
    जर ही मेरा अल्लाह है जर राम है मेरा ।।4।।

    (छन्द जबानी शुतुरमुर्ग परी)

    राजा बन्दर देस मैं रहें इलाही शाद।
    जो मुझ सी नाचीज को किया सभा में याद ।।
    किया सभा में याद मुझे राजा ने आज।
    दौलत माल खजाने की मैं हूँ मुँहताज ।।
    रूपया मिलना चाहिये तख्त न मुझको ताज।
    जग में बात उस्ताद की बनी रहे महराज ।।5।।

    ठुमरी जबानी शुतुरमुर्ग परी के,
    आई हूँ मैं सभा में छोड़ के घर।
    लेना है मुझे इनआम में जर ।।
    दुनिया में है जो कुछ सब जर है।
    बिन जर के आदमी बन्दर है ।।
    बन्दर जर हो तो इन्दर है।
    जर ही के लिये कसबो हुनर है ।।6।।

    गजल शुतुरमुर्ग परी की बहार के मौसिम में,
    आमद से बसंतों के है गुलजार बसंती।
    है फर्श बसंती दरो-दीवार बसंती ।।
    आँखों में हिमाकत का कँवल जब से खिला है।
    आते हैं नजर कूचओ बाजार बसंती ।।
    अफयूँ मदक चरस के व चंडू के बदौलत।
    यारों के सदा रहते हैं रुखसार बसंती ।।
    दे जाम मये गुल के मये जाफरान के।
    दो चार गुलाबी हां तो दो चार बसंती ।।
    तहवील जो खाली हो तो कुछ कर्ज मँगा लो।
    जोड़ा हो परी जान का तैयार बसंती ।।7।।

    होली जबानी शुतुरमुर्ग परी के,
    पा लागों कर जोरी भली कीनी तुम होरी।
    फाग खेलि बहुरंग उड़ायो ओर धूर भरि झोरी ।।
    धूँधर करो भली हिलि मिलि कै अधाधुंध मचोरी।
    न सूझत कहु चहुँ ओरी।
    बने दीवारी के बबुआ पर लाइ भली विधि होरी।
    लगी सलोनो हाथ चरहु अब दसमी चैन करो री ।।
    सबै तेहवार भयो री ।।8।।

    दशरथ विलाप/भारतेंदु हरिश्चंद्र

    कहाँ हौ ऐ हमारे राम प्यारे ।
    किधर तुम छोड़कर मुझको सिधारे ।।

    बुढ़ापे में ये दु:ख भी देखना था।
    इसी के देखने को मैं बचा था ।।

    छिपाई है कहाँ सुन्दर वो मूरत ।
    दिखा दो साँवली-सी मुझको सूरत ।।

    छिपे हो कौन-से परदे में बेटा ।
    निकल आवो कि अब मरता हु बुड्ढा ।।

    बुढ़ापे पर दया जो मेरे करते ।
    तो बन की ओर क्यों तुम पर धरते ।।

    किधर वह बन है जिसमें राम प्यारा ।
    अजुध्या छोड़कर सूना सिधारा ।।

    गई संग में जनक की जो लली है
    इसी में मुझको और बेकली है ।।

    कहेंगे क्या जनक यह हाल सुनकर ।
    कहाँ सीता कहाँ वह बन भयंकर ।।

    गया लछमन भी उसके साथ-ही-साथ ।
    तड़पता रह गया मैं मलते ही हाथ ।।

    मेरी आँखों की पुतली कहाँ है ।
    बुढ़ापे की मेरी लकड़ी कहाँ है ।।

    कहाँ ढूँढ़ौं मुझे कोई बता दो ।
    मेरे बच्चो को बस मुझसे मिला दो ।।

    लगी है आग छाती में हमारे।
    बुझाओ कोई उनका हाल कह के ।।

    मुझे सूना दिखाता है ज़माना ।
    कहीं भी अब नहीं मेरा ठिकाना ।।

    अँधेरा हो गया घर हाय मेरा ।
    हुआ क्या मेरे हाथों का खिलौना ।।

    मेरा धन लूटकर के कौन भागा ।
    भरे घर को मेरे किसने उजाड़ा ।।

    हमारा बोलता तोता कहाँ है ।
    अरे वह राम-सा बेटा कहाँ है ।।

    कमर टूटी, न बस अब उठ सकेंगे ।
    अरे बिन राम के रो-रो मरेंगे ।।

    कोई कुछ हाल तो आकर के कहता ।
    है किस बन में मेरा प्यारा कलेजा ।।

    हवा और धूप में कुम्हका के थककर ।
    कहीं साये में बैठे होंगे रघुवर ।।

    जो डरती देखकर मट्टी का चीता ।
    वो वन-वन फिर रही है आज सीता ।।

    कभी उतरी न सेजों से जमीं पर ।
    वो फिरती है पियोदे आज दर-दर ।।

    न निकली जान अब तक बेहया हूँ ।
    भला मैं राम-बिन क्यों जी रहा हूँ ।।

    मेरा है वज्र का लोगो कलेजा ।
    कि इस दु:ख पर नहीं अब भी य फटता ।।

    मेरे जीने का दिन बस हाय बीता ।
    कहाँ हैं राम लछमन और सीता ।।

    कहीं मुखड़ा तो दिखला जायँ प्यारे ।
    न रह जाये हविस जी में हमारे ।।

    कहाँ हो राम मेरे राम-ए-राम ।
    मेरे प्यारे मेरे बच्चे मेरे श्याम ।।

    मेरे जीवन मेरे सरबस मेरे प्रान ।
    हुए क्या हाय मेरे राम भगवान ।।

    कहाँ हो राम हा प्रानों के प्यारे ।
    यह कह दशरथ जी सुरपुर सिधारे ।।

    बसंत होली/भारतेंदु हरिश्चंद्र

    जोर भयो तन काम को आयो प्रकट बसंत ।
    बाढ़यो तन में अति बिरह भो सब सुख को अंत ।।1।।

    चैन मिटायो नारि को मैन सैन निज साज ।
    याद परी सुख देन की रैन कठिन भई आज ।।2।।

    परम सुहावन से भए सबै बिरिछ बन बाग ।
    तृबिध पवन लहरत चलत दहकावत उर आग ।।3।।

    कोहल अरु पपिहा गगन रटि रटि खायो प्रान ।
    सोवन निसि नहिं देत है तलपत होत बिहान ।।4।।

    है न सरन तृभुवन कहूँ कहु बिरहिन कित जाय ।
    साथी दुख को जगत में कोऊ नहीं लखाय ।।5।।

    रखे पथिक तुम कित विलम बेग आइ सुख देहु ।
    हम तुम-बिन ब्याकुल भई धाइ भुवन भरि लेहु ।।6।।

    मारत मैन मरोरि कै दाहत हैं रितुराज ।
    रहि न सकत बिन मिलौ कित गहरत बिन काज ।।7।।

    गमन कियो मोहि छोड़ि कै प्रान-पियारे हाय ।
    दरकत छतिया नाह बिन कीजै कौन उपाय ।।8।।

    हा पिय प्यारे प्रानपति प्राननाथ पिय हाय ।
    मूरति मोहन मैन के दूर बसे कित जाय ।।9।।

    रहत सदा रोवत परी फिर फिर लेत उसास ।
    खरी जरी बिनु नाथ के मरी दरस के प्यास ।।10।।

    चूमि चूमि धीरज धरत तुव भूषन अरु चित्र ।
    तिनहीं को गर लाइकै सोइ रहत निज मित्र ।।11।।

    यार तुम्हारे बिनु कुसुम भए बिष-बुझे बान ।
    चौदिसि टेसू फूलि कै दाहत हैं मम प्रान ।।12।।

    परी सेज सफरी सरिस करवट लै पछतात ।
    टप टप टपकत नैन जल मुरि मुरि पछरा खात ।।13।।

    निसि कारी साँपिन भई डसत उलटि फिरि जात ।
    पटकि पटकि पाटी करन रोइ रोइ अकुलात ।।14।।

    टरै न छाती सौं दुसह दुख नहिं आयौ कंत ।
    गमन कियो केहि देस कों बीती हाय बसंत ।।15।।

    वारों तन मन आपुनों दुहुँ कर लेहुँ बलाय ।
    रति-रंजन ‘हरिचंद’ पिय जो मोहि देहु मिलाय ।।16।।

    उर्दू का स्यापा/भारतेंदु हरिश्चंद्र

    है है उर्दू हाय हाय । कहाँ सिधारी हाय हाय ।
    मेरी प्यारी हाय हाय । मुंशी मुल्ला हाय हाय ।
    बल्ला बिल्ला हाय हाय । रोये पीटें हाय हाय ।
    टाँग घसीटैं हाय हाय । सब छिन सोचैं हाय हाय ।
    डाढ़ी नोचैं हाय हाय । दुनिया उल्टी हाय हाय ।
    रोजी बिल्टी हाय हाय । सब मुखतारी हाय हाय ।
    किसने मारी हाय हाय । खबर नवीसी हाय हाय ।
    दाँत पीसी हाय हाय । एडिटर पोसी हाय हाय ।
    बात फरोशी हाय हाय । वह लस्सानी हाय हाय ।
    चरब-जुबानी हाय हाय । शोख बयानि हाय हाय ।
    फिर नहीं आनी हाय हाय ।

    अब और प्रेम के फंद परे/भारतेंदु हरिश्चंद्र

    अब और प्रेम के फंद परे
    हमें पूछत- कौन, कहाँ तू रहै ।
    अहै मेरेह भाग की बात अहो तुम
    सों न कछु ‘हरिचन्द’ कहै ।
    यह कौन सी रीति अहै हरिजू तेहि
    भारत हौ तुमको जो चहै ।
    चह भूलि गयो जो कही तुमने हम
    तेरे अहै तू हमारी अहै ।
    होली/भारतेंदु हरिश्चंद्र
    कैसी होरी खिलाई।
    आग तन-मन में लगाई॥

    पानी की बूँदी से पिंड प्रकट कियो सुंदर रूप बनाई।
    पेट अधम के कारन मोहन घर-घर नाच नचाई॥
    तबौ नहिं हबस बुझाई।

    भूँजी भाँग नहीं घर भीतर, का पहिनी का खाई।
    टिकस पिया मोरी लाज का रखल्यो, ऐसे बनो न कसाई॥
    तुम्हें कैसर दोहाई।

    कर जोरत हौं बिनती करत हूँ छाँड़ो टिकस कन्हाई।
    आन लगी ऐसे फाग के ऊपर भूखन जान गँवाई॥
    तुन्हें कछु लाज न आई।

    चूरन का लटका/भारतेंदु हरिश्चंद्र

    चूरन अलमबेद का भारी, जिसको खाते कृष्ण मुरारी।।
    मेरा पाचक है पचलोना, जिसको खाता श्याम सलोना।।
    चूरन बना मसालेदार, जिसमें खट्टे की बहार।।
    मेरा चूरन जो कोई खाए, मुझको छोड़ कहीं नहि जाए।।
    हिंदू चूरन इसका नाम, विलायत पूरन इसका काम।।
    चूरन जब से हिंद में आया, इसका धन-बल सभी घटाया।।
    चूरन ऐसा हट्टा-कट्टा, कीन्हा दाँत सभी का खट्टा।।
    चूरन चला डाल की मंडी, इसको खाएँगी सब रंडी।।
    चूरन अमले सब जो खावैं, दूनी रिश्वत तुरत पचावैं।।
    चूरन नाटकवाले खाते, उसकी नकल पचाकर लाते।।
    चूरन सभी महाजन खाते, जिससे जमा हजम कर जाते।।
    चूरन खाते लाला लोग, जिनको अकिल अजीरन रोग।।
    चूरन खाएँ एडिटर जात, जिनके पेट पचै नहीं बात।।
    चूरन साहेब लोग जो खाता, सारा हिंद हजम कर जाता।।
    चूरन पुलिसवाले खाते, सब कानून हजम कर जाते।।

    चने का लटका/भारतेंदु हरिश्चंद्र

    चना जोर गरम।
    चना बनावैं घासी राम। जिनकी झोली में दूकान।।
    चना चुरमुर-चुरमुर बोलै। बाबू खाने को मुँह खोलै।।
    चना खावैं तोकी मैना। बोलैं अच्छा बना चबैना।।
    चना खाएँ गफूरन, मुन्ना। बोलैं और नहिं कुछ सुन्ना।।
    चना खाते सब बंगाली। जिनकी धोती ढीली-ढाली।।
    चना खाते मियाँ जुलाहे। दाढ़ी हिलती गाहे-बगाहे।।
    चना हाकिम सब खा जाते। सब पर दूना टैक्स लगाते।।
    चना जोर गरम।।

    हरी हुई सब भूमि/भारतेंदु हरिश्चंद्र

    बरषा सिर पर आ गई हरी हुई सब भूमि
    बागों में झूले पड़े, रहे भ्रमण-गण झूमि
    करके याद कुटुंब की फिरे विदेशी लोग
    बिछड़े प्रीतमवालियों के सिर पर छाया सोग
    खोल-खोल छाता चले लोग सड़क के बीच
    कीचड़ में जूते फँसे जैसे अघ में नीच.

    भारतेंदु हरिश्चंद्र की लोकप्रिय कवितायेँ कैसी लगी जरुर कमेन्ट करके बताएं

  • सोहनलाल द्विवेदी की लोकप्रिय कवितायेँ

    सोहनलाल द्विवेदी की लोकप्रिय कवितायेँ
    hindi poet and their poetry

    जी होता चिड़िया बन जाऊँ / सोहनलाल द्विवेदी

    जी होता, चिड़िया बन जाऊँ!
    मैं नभ में उड़कर सुख पाऊँ!

    मैं फुदक-फुदककर डाली पर,
    डोलूँ तरु की हरियाली पर,
    फिर कुतर-कुतरकर फल खाऊँ!
    जी होता चिड़िया बन जाऊँ!

    कितना अच्छा इनका जीवन?
    आज़ाद सदा इनका तन-मन!
    मैं भी इन-सा गाना गाऊँ!
    जी होता, चिड़िया बन जाऊँ!

    जंगल-जंगल में उड़ विचरूँ,
    पर्वत घाटी की सैर करूँ,
    सब जग को देखूँ इठलाऊँ!
    जी होता चिड़िया बन जाऊँ!

    कितना स्वतंत्र इनका जीवन?
    इनको न कहीं कोई बंधन!
    मैं भी इनका जीवन पाऊँ!
    जी होता चिड़िया बन जाऊँ!

    हिमालय / सोहनलाल द्विवेदी

    युग युग से है अपने पथ पर
    देखो कैसा खड़ा हिमालय!
    डिगता कभी न अपने प्रण से
    रहता प्रण पर अड़ा हिमालय!

    जो जो भी बाधायें आईं
    उन सब से ही लड़ा हिमालय,
    इसीलिए तो दुनिया भर में
    हुआ सभी से बड़ा हिमालय!

    अगर न करता काम कभी कुछ
    रहता हरदम पड़ा हिमालय
    तो भारत के शीश चमकता
    नहीं मुकुट–सा जड़ा हिमालय!

    खड़ा हिमालय बता रहा है
    डरो न आँधी पानी में,
    खड़े रहो अपने पथ पर
    सब कठिनाई तूफानी में!

    डिगो न अपने प्रण से तो ––
    सब कुछ पा सकते हो प्यारे!
    तुम भी ऊँचे हो सकते हो
    छू सकते नभ के तारे!!

    अचल रहा जो अपने पथ पर
    लाख मुसीबत आने में,
    मिली सफलता जग में उसको
    जीने में मर जाने में!

    आया वसंत आया वसंत / सोहनलाल द्विवेदी

    आया वसंत आया वसंत
    छाई जग में शोभा अनंत।

    सरसों खेतों में उठी फूल
    बौरें आमों में उठीं झूल
    बेलों में फूले नये फूल

    पल में पतझड़ का हुआ अंत
    आया वसंत आया वसंत।

    लेकर सुगंध बह रहा पवन
    हरियाली छाई है बन बन,
    सुंदर लगता है घर आँगन

    है आज मधुर सब दिग दिगंत
    आया वसंत आया वसंत।

    भौरे गाते हैं नया गान,
    कोकिला छेड़ती कुहू तान
    हैं सब जीवों के सुखी प्राण,

    इस सुख का हो अब नही अंत
    घर-घर में छाये नित वसंत।

    बढे़ चलो, बढे़ चलो / सोहनलाल द्विवेदी

    न हाथ एक शस्त्र हो,
    न हाथ एक अस्त्र हो,
    न अन्न वीर वस्त्र हो,
    हटो नहीं, डरो नहीं, बढ़े चलो, बढ़े चलो ।

    रहे समक्ष हिम-शिखर,
    तुम्हारा प्रण उठे निखर,
    भले ही जाए जन बिखर,
    रुको नहीं, झुको नहीं, बढ़े चलो, बढ़े चलो ।

    घटा घिरी अटूट हो,
    अधर में कालकूट हो,
    वही सुधा का घूंट हो,
    जिये चलो, मरे चलो, बढ़े चलो, बढ़े चलो ।

    गगन उगलता आग हो,
    छिड़ा मरण का राग हो,
    लहू का अपने फाग हो,
    अड़ो वहीं, गड़ो वहीं, बढ़े चलो, बढ़े चलो ।

    चलो नई मिसाल हो,
    जलो नई मिसाल हो,
    बढो़ नया कमाल हो,
    झुको नही, रूको नही, बढ़े चलो, बढ़े चलो ।

    अशेष रक्त तोल दो,
    स्वतंत्रता का मोल दो,
    कड़ी युगों की खोल दो,
    डरो नही, मरो नहीं, बढ़े चलो, बढ़े चलो ।

    जय राष्ट्रीय निशान / सोहनलाल द्विवेदी

    जय राष्ट्रीय निशान!
    जय राष्ट्रीय निशान!!!
    लहर लहर तू मलय पवन में,
    फहर फहर तू नील गगन में,
    छहर छहर जग के आंगन में,
    सबसे उच्च महान!
    सबसे उच्च महान!
    जय राष्ट्रीय निशान!!
    जब तक एक रक्त कण तन में,

    डिगे न तिल भर अपने प्रण में,हाहाकार मचावें रण में,
    जननी की संतान
    जय राष्ट्रीय निशान!
    मस्तक पर शोभित हो रोली,
    बढे शुरवीरों की टोली,
    खेलें आज मरण की होली,
    बूढे और जवान
    बूढे और जवान!
    जय राष्ट्रीय निशान!
    मन में दीन-दुःखी की ममता,
    हममें हो मरने की क्षमता,
    मानव मानव में हो समता,
    धनी गरीब समान
    गूंजे नभ में तान
    जय राष्ट्रीय निशान!
    तेरा मेरा मेरुदंड हो कर में,
    स्वतन्त्रता के महासमर में,
    वज्र शक्ति बन व्यापे उस में,
    दे दें जीवन-प्राण!
    दे दें जीवन प्राण!
    जय राष्ट्रीय निशान!!

    युगावतार गांधी / सोहनलाल द्विवेदी

    चल पड़े जिधर दो डग मग में
    चल पड़े कोटि पग उसी ओर,
    पड़ गई जिधर भी एक दृष्टि
    गड़ गये कोटि दृग उसी ओर,
    जिसके शिर पर निज धरा हाथ
    उसके शिर-रक्षक कोटि हाथ,
    जिस पर निज मस्तक झुका दिया
    झुक गये उसी पर कोटि माथ;
    हे कोटिचरण, हे कोटिबाहु!
    हे कोटिरूप, हे कोटिनाम!
    तुम एकमूर्ति, प्रतिमूर्ति कोटि
    हे कोटिमूर्ति, तुमको प्रणाम!
    युग बढ़ा तुम्हारी हँसी देख
    युग हटा तुम्हारी भृकुटि देख,
    तुम अचल मेखला बन भू की
    खींचते काल पर अमिट रेख;
    तुम बोल उठे, युग बोल उठा,
    तुम मौन बने, युग मौन बना,
    कुछ कर्म तुम्हारे संचित कर
    युगकर्म जगा, युगधर्म तना;
    युग-परिवर्तक, युग-संस्थापक,
    युग-संचालक, हे युगाधार!
    युग-निर्माता, युग-मूर्ति! तुम्हें
    युग-युग तक युग का नमस्कार!
    तुम युग-युग की रूढ़ियाँ तोड़
    रचते रहते नित नई सृष्टि,
    उठती नवजीवन की नींवें
    ले नवचेतन की दिव्य-दृष्टि;
    धर्माडंबर के खँडहर पर
    कर पद-प्रहार, कर धराध्वस्त
    मानवता का पावन मंदिर
    निर्माण कर रहे सृजनव्यस्त!
    बढ़ते ही जाते दिग्विजयी!
    गढ़ते तुम अपना रामराज,
    आत्माहुति के मणिमाणिक से
    मढ़ते जननी का स्वर्णताज!
    तुम कालचक्र के रक्त सने
    दशनों को कर से पकड़ सुदृढ़,
    मानव को दानव के मुँह से
    ला रहे खींच बाहर बढ़ बढ़;
    पिसती कराहती जगती के
    प्राणों में भरते अभय दान,
    अधमरे देखते हैं तुमको,
    किसने आकर यह किया त्राण?
    दृढ़ चरण, सुदृढ़ करसंपुट से
    तुम कालचक्र की चाल रोक,
    नित महाकाल की छाती पर
    लिखते करुणा के पुण्य श्लोक!
    कँपता असत्य, कँपती मिथ्या,
    बर्बरता कँपती है थरथर!
    कँपते सिंहासन, राजमुकुट
    कँपते, खिसके आते भू पर,
    हैं अस्त्र-शस्त्र कुंठित लुंठित,
    सेनायें करती गृह-प्रयाण!
    रणभेरी तेरी बजती है,
    उड़ता है तेरा ध्वज निशान!
    हे युग-दृष्टा, हे युग-स्रष्टा,
    पढ़ते कैसा यह मोक्ष-मंत्र?
    इस राजतंत्र के खँडहर में
    उगता अभिनव भारत स्वतंत्र!

    जगमग जगमग / सोहनलाल द्विवेदी

    हर घर, हर दर, बाहर, भीतर,
    नीचे ऊपर, हर जगह सुघर,
    कैसी उजियाली है पग-पग?
    जगमग जगमग जगमग जगमग!

    छज्जों में, छत में, आले में,
    तुलसी के नन्हें थाले में,
    यह कौन रहा है दृग को ठग?
    जगमग जगमग जगमग जगमग!

    पर्वत में, नदियों, नहरों में,
    प्यारी प्यारी सी लहरों में,
    तैरते दीप कैसे भग-भग!
    जगमग जगमग जगमग जगमग!

    राजा के घर, कंगले के घर,
    हैं वही दीप सुंदर सुंदर!
    दीवाली की श्री है पग-पग,
    जगमग जगमग जगमग जगमग!

    नववर्ष / सोहनलाल द्विवेदी

    स्वागत! जीवन के नवल वर्ष
    आओ, नूतन-निर्माण लिये,
    इस महा जागरण के युग में
    जाग्रत जीवन अभिमान लिये;

    दीनों दुखियों का त्राण लिये
    मानवता का कल्याण लिये,
    स्वागत! नवयुग के नवल वर्ष!
    तुम आओ स्वर्ण-विहान लिये।

    संसार क्षितिज पर महाक्रान्ति
    की ज्वालाओं के गान लिये,
    मेरे भारत के लिये नई
    प्रेरणा नया उत्थान लिये;

    मुर्दा शरीर में नये प्राण
    प्राणों में नव अरमान लिये,
    स्वागत!स्वागत! मेरे आगत!
    तुम आओ स्वर्ण विहान लिये!

    युग-युग तक पिसते आये
    कृषकों को जीवन-दान लिये,
    कंकाल-मात्र रह गये शेष
    मजदूरों का नव त्राण लिये;

    श्रमिकों का नव संगठन लिये,
    पददलितों का उत्थान लिये;
    स्वागत!स्वागत! मेरे आगत!
    तुम आओ स्वर्ण विहान लिये!

    सत्ताधारी साम्राज्यवाद के
    मद का चिर-अवसान लिये,
    दुर्बल को अभयदान,
    भूखे को रोटी का सामान लिये;

    जीवन में नूतन क्रान्ति
    क्रान्ति में नये-नये बलिदान लिये,
    स्वागत! जीवन के नवल वर्ष
    आओ, तुम स्वर्ण विहान लिये!

    पूजा-गीत / सोहनलाल द्विवेदी

    वंदना के इन स्वरों में एक स्वर मेरा मिला लो।
    राग में जब मत्त झूलो
    तो कभी माँ को न भूलो,
    अर्चना के रत्नकण में एक कण मेरा मिला लो।
    जब हृदय का तार बोले,
    शृंखला के बंद खोले;
    हों जहाँ बलि शीश अगणित, एक शिर मेरा मिला लो।

    कोशिश करने वालों की हार नहीं होती / सोहनलाल द्विवेदी

    लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती
    कोशिश करने वालों की हार नहीं होती

    नन्हीं चींटी जब दाना लेकर चलती है
    चढ़ती दीवारों पर, सौ बार फिसलती है
    मन का विश्वास रगों में साहस भरता है
    चढ़कर गिरना, गिरकर चढ़ना न अखरता है
    आख़िर उसकी मेहनत बेकार नहीं होती
    कोशिश करने वालों की हार नहीं होती

    डुबकियां सिंधु में गोताखोर लगाता है
    जा जाकर खाली हाथ लौटकर आता है
    मिलते नहीं सहज ही मोती गहरे पानी में
    बढ़ता दुगना उत्साह इसी हैरानी में
    मुट्ठी उसकी खाली हर बार नहीं होती
    कोशिश करने वालों की हार नहीं होती

    असफलता एक चुनौती है, स्वीकार करो
    क्या कमी रह गई, देखो और सुधार करो
    जब तक न सफल हो, नींद चैन को त्यागो तुम
    संघर्ष का मैदान छोड़ मत भागो तुम
    कुछ किये बिना ही जय जयकार नहीं होती
    कोशिश करने वालों की हार नहीं होती

  • हर तरफ है भ्रष्टाचार – आशीष कुमार

    हर तरफ है भ्रष्टाचार – आशीष कुमार

    लूट खसोट का है व्यवहार
    हर तरफ है भ्रष्टाचार
    समाज का हो गया बंटाधार
    हर तरफ है भ्रष्टाचार

    लंबी लंबी लगी कतार
    चढ़ावा यहां अब शिष्टाचार
    काम निकाले चाटुकार
    हर तरफ है भ्रष्टाचार

    मेधा हो गई है बेकार
    मजा ले रहे पैरोकार
    हो रहे सपने उनके साकार
    हर तरफ है भ्रष्टाचार.

    डूबी लुटिया जो हैं ईमानदार
    कुंठा के हो रहे शिकार
    नौकरी तरक्की सबसे बेजार
    हर तरफ है भ्रष्टाचार.

    बदल रहा आचार-विचार
    रिश्वत लगाती नैया पार
    काले धन का है कारोबार
    हर तरफ है भ्रष्टाचार.

    निष्ठा हो गई तार तार
    सब कुछ लेते हैं डकार
    व्यवस्था हो गई है लाचार
    हर तरफ है भ्रष्टाचार.

    न्याय की है सबको दरकार
    आंख मूंदे बैठी सरकार
    पट्टी खुले तो मिटे अंधकार
    हर तरफ है भ्रष्टाचार.

  • विनोद सिल्ला की व्यंग्य कवितायेँ

    यहाँ पर विनोद सिल्ला की व्यंग्य कवितायेँ प्रकाशित की गयी हैं आपको कौन सी अच्छी लगी कमेंट कर जरुर बताएँगे

    कविता संग्रह
    कविता संग्रह

    दो-दो भारत

    वंचितों  की  बस्तियां  इस  ओर  हैं,
    सम्पन्नों  की  बस्तियां  उस ओर  हैं,

    उधर महके  सम्पन्नता  में  छोर-छोर,
    इधर अभावग्रस्त  है  हर  कोर-कोर,

    उधर पकवानों की  महक  उठी  है,
    इधर पतीली उपेक्षित  सी  पड़ी  है,

    उधर पालतू कुत्ते भी गोश्त खाते हैं,
    इधर के बच्चे कुपोषित हो  जाते हैं,

    वो  नित  छोड़ते  हैं  झूठन थाली में,
    इधर  फाके  हो  जाते  हैं कंगाली में,

    उधर  अय्याशी  पे  खर्च हो जाता है,
    इधर  बालक  भूखा  ही सो जाता है,

    सिल्ला  इस  धरा  पे दो-दो भारत हैं,
    इधर  झुग्गियां  उधर ऊंची इमारत हैं,

    -विनोद सिल्ला©

    संवेदनहीन क्यों?

    पशु आपस में
    लङते हैं खूब
    पंछी भी आपस में
    भिङते हैं खूब
    कीट-पतंग भी
    करते हैं संघर्ष
    इनके गुण
    इनके स्वभाव
    इनकी आदत
    इनका खानपान
    इनकी प्रवृत्ति
    अलग-अलग हैं
    पर इनमें
    छूत-अछूत
    अगङे-पिछङे
    हिन्दू-मुस्लिम
    अमीर-गरीब
    छोटे-बङे
    श्वेत-अश्वेत
    का भेद नहीं
    मात्र इन्सान ही
    है संवेदनहीन
    क्यों????? -विनोद सिल्ला

    अल्लाहदीन का चिराग

    अल्लाहदीन का वही चिराग
    लग   जाए   जो   मेरे   हाथ
    इलाज करूंगा  एक मिनट मे
    आतंकवाद   हुआ  लाइलाज
    भ्रष्टाचार    पे    रोक     होगी
    हर   नागरिक  जाएगा   जाग
    कन्या भ्रुण  हत्या बंद  होगी
    सुनवा    दूंगा    ऐसा    राग
    महकेंगी  अमन  की  फसलें
    उपजे शान्ति की सब्जी साग
    नैतिक   मूल्य  स्थापित  होंगे
    पवित्र  होंगे   हंस  और  काग
    जाति पांति को खत्म करूंगा
    सब     हो     जांएगे   बेलाग
    हिंदू-मुस्लिम  न  होगा  कोई
    बुझ जाए साम्प्रदायिक आग
    यौन   शोषण   नही   होएगा
    महक    उठेगा   प्रेम   पराग
    सिल्ला   भाषावाद   मिटेगा
    व्यवस्थित होगा  हर  विभाग
    -विनोद सिल्ला

    छोटी मछली

    मैं  हूँ  एक  छोटी  सी  मछली।
    सपनों  के   सागर  में  मचली।।
    सोचा  था   सारा   सागर   मेरा,
    ले आजादी का सपना निकली।।
    बङे- बङे  मगरमच्छ  वहां  थे,
    था आजादी का सपना नकली।।
    बङी  मछली  छोटी  को  खाए,
    इनका  राग  इन्हीं  की  ढफली।।
    छोटी   का   न   होता    गुजारा,
    बङी   खाती  है  काजू  कतली।।
    सिल्ला’  इस  सोच  में  है  डूबा,
    भेद नहीं  क्या  असली  नकली।।
    -विनोद सिल्ला

    मैं हूँ साक्षी

    बन रहे हैं
    वक्त के
    नए-नए सांचे
    ढल रहा है इंसान
    इन नए-नए
    सांचों में
    गुजर रहा है इंसान
    परिवर्तन के दौर से
    बदल रही हैं
    पुरातन परम्पराएं
    आमजन की मान्यताएं
    सबकी आकांक्षाएं
    हो रहे हैं परिवर्तन
    सुखद व दुखद
    मैं हूँ साक्षी
    इन परिवर्तनों का -विनोद सिल्ला©

    शहीद हो गई

    वो सैनिक
    हो गया शहीद
    सीमा पर अपना
    कर्तव्य निभाते-निभाते
    सिर्फ वही
    शहीद नहीं हुआ
    शहीद हो गई
    सदा के लिए
    एक घर की खुशियाँ
    शहीद हो गया
    दूधमुंहे नवजातों के
    सिर का साया
    शहीद हो गई
    बूढ़े मां-बाप की
    बुढा़पे की लाठी
    शहीद हो गई
    उन राजनेताओं की
    शर्मो-लाज
    जो शहीद की
    अंतेष्ठी में भी
    साध रहे हैं वोट-बैंक -विनोद सिल्ला©

    चुनाव की तैयारी      

    बस्तियां
    जल रही थी
    जय श्री राम
    अल्लाह हू अकबर
    की आवाजें
    सुनाई दे रहे थी
    सभी राजनैतिक दल
    एक-दूसरे को
    दंगों के लिए
    दोषी ठहरा रहे थे
    ये सब
    निकट भविष्य के
    चुनाव की
    तैयारी चल रही थी

    -विनोद सिल्ला©

    धर्म की खिचड़ी        

    सुबह-सुबह
    पड़ती है कानों में
    गुरद्वारे से आती
    गुरबाणी की आवाज
    तभी हो जाती है शुरु
    मंदिर की आरती
    दूसरी ओर से
    आती हैं आवाजें
    अजानों की
    नहीं समझ पाता
    किस से
    मिल रही है
    क्या शिक्षा
    सब आवाजें मिलकर
    बना डालती हैं
    धर्म की खिचड़ी

    विनोद सिल्ला©

    हवा का रुख मोङने वाले

    हर लचकदार वस्तु
    अपने आपको
    हवा के रुख के साथ
    मोङ लेती है
    कुछ एक
    सख्त प्रवृति के
    जिन्हें अक्सर
    सूखे ठूँठ
    अकङे हुए ठूँठ
    कहा जाता है
    जो सीधे खङे रहते हैं
    अक्सर टूट जाते हैं
    पर झुकते नहीं
    उनका प्रयास
    हवा के रुख को
    मोङने का होता है
    और जो इस प्रयास में
    कामयाब हो जाते हैं
    उन्हें लोग
    कार्ल मार्क्स
    नैल्सन मण्डेला
    अम्बेडकर
    कहने लगते हैं
    -विनोद सिल्ला

    जीत गया चुनाव

    जीत कर चुनाव
    किए वादों की
    करते-करते वादाखिलाफी
    बीत गए साढे़ चार साल
    अब नेता जी को
    आए पसीने
    पृथ्वी देने लगी दिखाई
    छोटी-सी
    लगने लगा
    निर्वाचन क्षेत्र भयावह
    दरकता नजर आया
    जनसमर्थन का किला
    तो खोल दिए
    उस तहखाने के मुंह
    जिसमें रखी थी
    काली कमाई की
    काली दौलत
    कुछ टिकट के बदले
    हाईकमान को दे दी
    कुछ को मीडिया कर्मी
    चाट गए
    कुछ को बूथ कैप्चर
    आपस में बांट गए
    और नेता जी
    फिर से चुनाव जीत गए।
    ••••••••√••••••••
    -विनोद सिल्ला©

    शूरवीर

    शूरवीर वह नहीं
    जो करके नरसंहार
    जीत ले कलिंग-युद्ध
    जो बहा दे
    लहू का दरिया
    जो मचा दे चहूंओर
    त्राही-त्राही
    जो कर दे अनाथ
    अबोध बच्चों को
    जो कर दे विधवा
    नवयुवतियों को
    जो छीन ले
    बुढ़ापे की लाठी
    वृद्ध माता-पिता से
    निसंदेह वह
    शूरवीर है जो
    फैला दे अमन संदेश
    पूरी दुनिया में
    बुद्ध बनकर
    जो दे शिक्षा
    मानव-मानव
    एक समान होने की


    -विनोद सिल्ला

    द्रौणों की फौज

    यहाँ द्रौणों  की  फौज  हो  गई।
    अर्जुनों की  भी  मौज  हो  गई।।

    एकलव्य  को नहीं मिला  प्रवेश,
    डोनेशन  वाले  ही  बने   विशेष,
    शिक्षा नीलाम यहाँ रोज हो गई।।

    घर बैठे टैक्नीकल कोर्स  करिए,
    पर नोन अटैंडिंग के पैसे  भरिए,
    प्रतिभा क्यों यहाँ बोझ  हो  गई।।

    फेल  नहीं  करना  है  यहाँ  कोई,
    लम्बी  तान  के   व्यवस्था   सोई,
    भ्रष्ट  तरीकों  की  खोज  हो गई।।

    शिक्षा भी आज व्यापार  बन  गई,
    पूंजीपति का  अधिकार  बन  गई,
    बस जेब भरने की सोच  हो  गई।।


    सिल्ला’ भी  इसकी एक  इकाई है,
    न  राहत  कहीं  भी नजर आई  है,
    सारी  व्यवस्था  विनोद   हो   गई।।


    -विनोद सिल्ला©

    गवाही शंबुक रीषि की

    गवाही शंबुक रीषि की
    कटी गर्दन
    एकलव्य का
    कटा अंगूठा
    टूटे व जीर्ण-शीर्ण
    बौद्ध स्तूप
    खंडित बुद्ध की प्रतिमाएं
    धवस्त तक्षशिला व नालंदा
    तहस-नहस
    बौद्ध साहित्य
    धूमिल बौद्ध इतिहास
    दे रहा है गवाही
    कितना असहिष्णु
    कितना भयावह
    था अतीत

    -विनोद सिल्ला©

    जंगली कौन      

    कितना भाग्यशाली था
    आदिमानव
    तब न कोई अगड़ा था
    न कोई पिछड़ा था
    हिन्दू-मुसलमान का
    न कोई झगड़ा था
    छूत-अछूत का
    न कोई मसला था
    अभावग्रस्त जीवन चाहे
    लाख मजबूर था
    पर धरने-प्रदर्शनों से
    कोसों दूर था
    कन्या भ्रूण-हत्या का
    पाप नहीं था
    किसी ईश्वर-अल्लाह का
    जाप नहीं था
    न भेदभावकारी
    वर्णव्यवस्था थी
    मानव जीवन की वो
    मूल अवस्था थी
    मूल मानव को ।
    जंगली कहने वालो
    जंगली कौन है
    पता लगा लो। -विनोद सिल्ला

    खोई हुई आजादी

    मैं ढूंढ रहा हूँ
    अपनी खोई आजादी
    मजहबी नारों के बीच
    न्याधीश के दिए निर्णयों में
    संविधान के संशोधनों में
    लालकिले की
    प्रचीर से दिए
    प्रधानमंत्री के भाषणों में
    चुनाव पूर्व
    राजनेताओं द्वारा
    किए वादों में
    लेकिन नित के
    ऑनर कीलिंग के समाचार
    अनियन्त्रित-हिंसक
    दंगाई भीड
    उजड़ती झुग्गी-बस्तियाँ
    यौन पीड़िता की चीखें
    दे रही हैं
    सशक्त गवाही
    कहीं भी
    आजादी न होने की


    -विनोद सिल्ला©

    कमाल के समीक्षक

    एक मेरा मित्र
    बात-बात पर
    कोसता है, संविधान को
    ठहराता है, इसे कॉपी-पेस्ट।
    एक दिन मैंने
    पूछ ही लिया,
    कितनी बार पढ़ा है, संविधान।
    उसने कहा
    एक बार भी नहीं।
    कभी देखा है? दूर से
    भारतीय संविधान
    उसका जवाब था
    कभी नहीं देखा।
    न कभी पढ़ा,
    न कभी देखा,
    फिर भी, कर डाली
    संविधान की समीक्षा।
    कमाल के समीक्षक हैं।

    -विनोद सिल्ला©