Author: कविता बहार

  • बंधन पर कविता

    बंधन पर कविता

    बंधन बांधो ईश से, और सभी बेकार।
    केवल ब्रह्म सत्य है,पूरा जगत असार।।


    बंधन केवल प्यार का,होता बड़ा अनूप।
    स्वार्थ भावना से रहित,होता इसका रूप।।


    कर्मों का बंधन हमे,बांधे इस संसार।
    कर्म करें निष्काम तो,होते भव से पार।।


    मर्यादा में जो बंधे,वह सच्चा इंसान।
    जो मर्यादा रहित है,पाय नही सम्मान।।


    मर्यादा में थे बँधे, पुरुषोत्तम श्रीराम।
    चले गए वनवास को,सीता जिनके वाम।।


    ©डॉ एन के सेठी

  • शादी पर गीत

    शादी पर गीत

    शादी पर गीत

    मैं चूल्हे की नाँब घुमाऊँ , लाइटर तुम जला दो ना।
    सब्जी मैंने छौंकी हैं जी , आकर इसे चला दो ना।

    प्यार करें हैं कब से दोनों , लाज रखेंगे हम इसकी।
    महामिलन कर सीमा तोड़े , टिकट कटा जीवन बस की।

    एतबार की मुहर लगाकर , छपवा देता हूँ पर्चा।
    जब हो जाएगी तू मेरी , खुलके करना फिर खर्चा।

    थक कर आया तो बोलूँगा , थोड़ी चाय पिला दो ना।
    मैं चूल्हे की नाँब घुमाऊँ , लाइटर तुम जला दो ना।

    बंजारों सा प्यार हमारा , झेलें लोगों का ताना।
    नदी किनारे घर अपना लें , गाऐं खिड़की में गाना।

    नैनों में यह ख्वाब सजा है , हम दोनों की हो डीपी ।
    कभी शाम को चाय बनाऊँ , लेना तू उसको भी पी।

    तनख्वाह सारी देके बोलूँ , मुझको पेंट सिला दो ना।
    मैं चूल्हे की नाँब घुमाओ , लाइटर तुम जला दो ना।

    दोनों मिलकर दान करेंगे , साथ करेंगे हम पूजा।
    मैं कितना भोला भंडारी , तू भी बन मेरी गिरजा।

    सच कहता हूँ जाना तुझसे , दूर नहीं मैं भागूँगा।
    मेरे घर तुझको रख के भी , नहीं किराया माँगूँगा।

    हे प्रभु केवल मेरी है वो , भरोसा यह दिला दो ना।

    मैं चूल्हे की नाँब घुमाऊँ , लाइटर तुम जला दो ना।

    राम शर्मा’कापरेन’

  • रजत विषय पर दोहा

    रजत विषय पर दोहा

    रजत वर्ण की चाँदनी,फैल रही चहुँओर।
    चमक रहा है चंद्रमा, लगे रात भी भोर।।


    रात अमावस बाद ही , होता पूर्ण उजास।
    दुग्ध धवल सी पूर्णिमा,करती रजत प्रकाश।।


    कर्म सभी ऐसा करो , हो जाए जो खास।
    रजत पट्टिका में पढ़े,स्वर्णिम सा इतिहास।।


    रजत आब वृषभानुजा,श्याम वर्ण के श्याम।
    दर्शन दोनो के मिले,मिले नयन विश्राम।।


    भूषण रजत व स्वर्ण के ,धारे नारी देह।
    सजती है पति के लिए,करती उसको नेह।।

    ©डॉ एन के सेठी

  • दंगों से पहले पर कविता

    दंगों से पहले पर कविता

    दंगों से पहले

    शांत महौल था
    इस शहर का
    दंगों से पहले

    नाम निशान
    नहीँ था वैर का
    दंगों से पहले

    अंकुरित नहीँ था
    बीज जहर का
    दंगों से पहले

    सौहार्द-सदभाव का
    हर पहर था
    दंगों से पहले

    न साम्प्रदायिकता
    का कहर था
    दंगों से पहले

    सियासतदानों से
    दूर शहर था
    दंगों से पहले

    असलम रामलाल से
    कहाँ गैर था
    दंगों से पहले

    चुनाव ने ही
    घोला जहर था
    दंगों से पहले

    -विनोद सिल्ला©

  • जाति धर्म पर कविता

    जाति धर्म पर कविता

    इंसान-इंसान के बीच
    कितनी हैं दूरियां
    इंसान-इंसान को
    नहीं मानता इंसान
    मानता है
    किसी न किसी
    जाति का
    धर्म का
    प्रतिनिधि
    इंसान की पहचान
    इंसानियत न होकर
    बन गई पहचान
    जाति व धर्म

    हो गई परिस्थितियां
    बड़ी विकट
    विवाह-शादी
    कार-व्यवहार
    क्रय-विक्रय
    सब कुछ में
    दी जाती है वरीयता
    अपनी जाति को
    अपने धर्म को
    जाति-धर्म ही
    सबसे बड़ी बाधा है
    मानव के विकास में

    -विनोद सिल्ला©