Author: कविता बहार

  • कुंडलियाँ – बेटी पर कविता

      बेटी पर कविता

    beti mahila
    बेटी की व्यथा

    बेटी जा पिया के घर ,

               गुड़िया नहीं रोना ।

    सजा उस घरोंदे को,

               साफ सुथरा रखना।।

    साफ सुथरा रखना, 

           पति सेवा तुम करना।

    रखना इतनी चाह,

           झगड़ा कभी न करना ।।

    कह डिजेन्द्र करजोरि,

             धन संग्रह रखना बेटी ।

    रख ख्याल नाती का,

                खुश रहें मेरी बेटी।।

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    डिजेन्द्र कुर्रे”कोहिनूर”

  • मिलकर पुकारें आओ -नरेन्द्र कुमार कुलमित्र

    मिलकर पुकारें आओ !


    फिर मिलकर पुकारें आओ
    गांधी, टालस्टाय और नेल्सन मंडेला
    या भगत सिंह, चन्द्रशेखर आजाद और सुभाष चन्द्र बोस की
    दिवंगत आत्माओं को
    ताकि हमारी चीखें सुन उनकी आत्माएं
    हमारे बेज़ान जिस्म में समाकर जान फूंक दे
    ताकि गूंजे फिर कोई आवाजें जिस्म की इस खण्डहर में
    ताकि लाश बन चुकी जिस्म में लौटे फिर कोई धड़कन
    ताकि जिस्म में सोया हुआ विवेक जागे,सुने,समझे
    और अनुत्तरित आत्मा के सवालों का जवाब दे
    ताकि एक बार फिर उदासीन जिस्म से फूटे कोई प्रतिरोध का स्वर
    इसीलिए दिवंगत आत्माओं को
    फिर मिलकर पुकारें आओ !

    — नरेन्द्र कुमार कुलमित्र

     9755852479
    
  • बेटी का दर्द पर कविता

    बेटी का दर्द पर कविता

    beti mahila
    बेटी की व्यथा

    अब तो लगने लगा है मुझको,
    कोख में ही माँ मुझको कुचलो।
    बाहर का संसार है सुंदर,
    ऐसा लगता है कोख के अंदर।
    पर जब पढ़ती हो तुम खबरें,
    हत्या, बलात्कार, जेल और झगड़े।
    नन्हा सा ये तन मेरा,भर उठता है पीड़ा से।
    विदीर्ण हो उठता कलेजा मेरा,अंतर में होती है पीड़ा।

    सुनकर माँ मुझको तकलीफ,
    जब होती है कोख के अंदर।
    सोचो क्या बीती होगी ?
    हुआ बलात्कार जिसके शरीर पर,
    शरीर की तो माँ छोड़ो बात,
    आत्मा तक हो गई घायल।

    पहले ही मर चुकी है जो,

    और उसे क्यूँ मारे हैं?
    विभत्स तरीके से करके हत्या
    रूह को उसके तड़पाते हैं।
    सहन नहीं होगा माँ,

    मुझसे ऐसा वातावरण जहाँ का।

    गर लाना चाहो मुझको धरती पर
    रणचंडी तुमको बनना होगा
    शीश नहीं अब जड़ को काटो
    मर्द बना जो फिरता है,

    नामर्द बनाकर उसको पटको।

    एक पक्ष की बात नहीं माँ
    मैं दोनों पक्षों को रखती हूँ।
    आधुनिकता की आड़ में माँ
    अश्लीलता मुझको दिखती है ।

    क्या?

    पहले कोई नारी सफलता सोपान पर चढ़ी नहीं।
    क्या?

    पहले की शिक्षाएं मार्ग भटकाया करती थीं।
    क्या?

    अश्लील कपड़ों में ही माँ,

    सुंदरता झलकती है।
    भारतीय परिधानों में भी ,

    नारी विश्व सुंदरी लगती है।
    कड़वा है पर सत्य है माँ,

    आग हवा से बढ़ती है
    किसी एक की बात नहीं
    पर गेंहू के साथ में माँ,

    घुन भी अक्सर पिसता है

    ना हो गंदा यह संसार,

    इसलिए पावन संस्कार बने।
    पावन विवाह को रखे बगल में,

    ये दुष्ट पापाचार करें।
    कई ऐसी जगहें निर्धारित है इस संसार में।
    ऐसी जगहों पर जाकर,

    मन अपना क्यूँ नहीं बहलाते।
    पर विकृत मानसिकता का,

    कोई इलाज नहीं है माँ
    हाथ जोड़ कर करूँ विनती मैं,
    हे मातृ शक्ति अब जागो तुम।
    मै बेटी हूँ मेरा दर्द अब माँ पहचानो तुम।
    **********************

    वर्षा जैन “प्रखर”

    दुर्ग (छत्तीसगढ़)
  • हम तो उनके बयानों में रहे -नरेन्द्र कुमार कुलमित्र

    हम तो उनके बयानों में रहे

    हम जब तक रहे बंद मकानों में रहे।
    वे कहते हैं हम उनके ज़बानों में रहे।1।

    उनके लिए बस बाज़ार है ये दुनियाँ
    गिनती हमारी उनके सामानों में रहे।2।

    मुफ़लिसी हमारी तो गई नहीं मगर
    हमारी अमीरी उनके तरानों में रहे।3।

    जो बड़े जाने-पहचाने लगते हैं अब
    कभी हम भी उनके बेगानों में रहे ।4।

    उसने घास नहीं डाली ये और बात है
    कभी हम भी उनके दीवानों में रहे।5।

    पूछो मत हमारे हालात की हकीकत
    हम तो केवल उनके बयानों में रहे।6।

    — नरेन्द्र कुमार कुलमित्र

    9755852479

  • समय का चक्र डॉ. पुष्पा सिंह’प्रेरणा’ की कविता

    समय का चक्र

    चिता की लकड़ियाँ,
    ठहाके लगा रही थीं,
    शक्तिशाली मानव को निःशब्द जला रही थीं!

    रोकती रही मैं मगर सताता रहा
    ताकत पर अपनी इतराता रहा!

    भूल जाता बचपन में तुझे

    खिलौना बन रिझाती रही,
    थक जाता जब रो-रो कर
    पलना बनकर झुलाती रही!

    बुढ़ापे में असमर्थ हुआ तो
    लाठी बनकर चलाती रही,
    जीवन के संसाधनों में तेरे
    हरदम काम आती रही!

    देख समय का चक्र कैसे चलता है
    निःसहाय हो मानव तू भी
    एक दिन जलता है!

    मेरी चेतावनी है,मुझे पलने दे,
    पुष्पित,पल्लवित होकर फलने दे!

    वृक्ष का मित्र बनकर
    जीने का अधिकार दे,
    प्यार से जीना सीख!
    मुझे भी स्नेह,दुलार दे!

    डॉ. पुष्पा सिंह’प्रेरणा’