Author: मनीभाई नवरत्न

  • स्काउट जम्बुरी गीत

    स्काउट जम्बुरी गीत

    स्काउट जम्बुरी गीत

    यह गीत स्काउट गाइड और जम्बूरी के महत्व और मूल्यों को दर्शाता है। यहां इस गीत को आगे बढ़ाते हुए प्रस्तुत है:

    स्काउट जम्बुरी गीत

    जम्बूरी गीत

    सबसे अपना गहरा नाता है,
    सबसे अपनी है प्रीति।
    आओ एक दूजे को मान दें,
    समझें सबकी संस्कृति।

    स्काउट गाइड सिखाता
    अनुशासन का पाठ,
    चलो हिलमिल जाएं हम सब
    मिटाके आपस की दूरी।

    जम्बूरी… मिलके रहना सिखाए…
    जम्बूरी… सेवा भाव जगाए…
    जम्बूरी… हम सबके लिए यादगार बने,
    आज प्रकृति रक्षा के लिए है जरूरी…

    प्रकृति की सुंदरता को बचाना है,
    हरियाली का सपना फिर से सजाना है।
    साफ-सुथरा हो हर कोना,
    हर जगह हो शांति का सोना।

    जम्बूरी का संदेश हम फैलाएं,
    हर दिल में प्रेम और सद्भावना जगाएं।
    आओ मिलकर करें हम ये प्रयास,
    धरती को स्वच्छ बनाएं, हरित आवास।

    मिलकर चलें हम इस राह पर,
    दोस्ती का हो हर जगह पर पहरा।
    हम सब मिलकर खड़े हों साथ,
    प्रकृति की रक्षा का लें संकल्प।

    जम्बूरी… नया जोश लाए…
    जम्बूरी… नई राह दिखाए…
    जम्बूरी… हम सबके लिए यादगार बने,
    आज प्रकृति रक्षा के लिए है जरूरी…

    स्काउट गाइड की ये प्यारी टोली,
    हर मुश्किल में साथ, कभी न डोली।
    सेवा, सहयोग, और समर्पण से भरपूर,
    हम करें हर चुनौती को दूर।

    आओ मिलकर बढ़ाएं ये कारवां,
    सपनों को सच करने का हो इरादा।
    हर बच्चे के दिल में हो ये उमंग,
    जम्बूरी के साथ बढ़े हम संग।

    जम्बूरी… दोस्ती की कड़ी बनाए…
    जम्बूरी… हमें साथ चलना सिखाए…
    जम्बूरी… हम सबके लिए यादगार बने,
    आज प्रकृति रक्षा के लिए है जरूरी…


    यह गीत स्काउट गाइड के अनुशासन, सेवा, और प्रकृति की रक्षा के महत्व को उजागर करता है और यह भी दर्शाता है कि कैसे जम्बूरी हमें एकजुट होकर प्रकृति और समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारियों को निभाने के लिए प्रेरित करता है।

  • मनीभाई नवरत्न के भक्ति गीत

    मनीभाई नवरत्न के भक्ति गीत

    मनीभाई नवरत्न के भक्ति गीत

    manibhai Navratna
    मनीभाई पटेल नवरत्न

    भक्ति है जिनके रगों में

    भक्ति है जिनके रगों में, आये तेरे दर पे।
    आशीष दे ओ मंइया …..छाया दे नजर पे।
    माँ की ज्योति जले जिस घर
    गम का अंधियारा दूर हो ।
    कष्ट संकट दूर हो, कोई ना मजबूर हो।
    सुख शांति फले फूले ।
    तू चाहे तो सब मंजूर हो।
    कष्ट संकट दूर हो, कोई ना मजबूर हो।
    बड़ी शक्ति है माँ तेरी आँखों में।।
    बिगड़ी बना दे मां तेरी हाथों में।।
    जग में पावन तेरा नाम… ओ मंइया
    तेरा नाम बसे अब तो जयकारो में।
    जिसने मांगी तेरी भक्ति
    चेहरे में चमक और नैनों में नूर हो।
    कष्ट संकट दूर हो, कोई ना मजबूर हो।
    तेरी भक्ति है मां, मेरी सांसों में ।
    मैंने दिन बिताये मां उपवासों में।
    हाथों में लिये पूजा थाल …ओ मंइया
    रात गुजारे मैंने तेरे जगरातों में।
    जिसने मांगी तुझे सद्भाव से
    उनकी मनोकामना पूरी जरूर हो।
    कष्ट संकट दूर हो, कोई ना मजबूर हो।

    ✍मनीभाई”नवरत्न”

  • सेदोका कैसे लिखें (How to write SEDOKA)

    सेदोका कैसे लिखें (How to write SEDOKA)

    सेदोका कैसे लिखें (How to write SEDOKA)

    literature in hindi
    literature in hindi

    सेदोका रचना विधान
    सेदोका 05/07/07 – 05/07/07 वर्णक्रम की षट्पदी – छः चरणीय एक प्राचीन जापानी काव्य विधा है । इसमें कुल 38 वर्ण होते हैं , व्यतिक्रम स्वीकार नहीं है । इस काव्य के कथ्य कवि की संवेदना से जुड़ कर भाव प्रवलता के साथ प्रस्तुत होने वाली यह एक प्रसिद्ध काव्य विधा है, जिसके आगमन से हिन्दी काव्य साहित्य की श्रीवृद्धि हुई है । उदाहरण स्वरूप मेरी एक सेदोका रचना यहाँ प्रस्तुत है, अवश्य देखें ——-

    मरु प्रदेश
    मेघों का आगमन
    है, जीवन संदेश
    सूखे तरु का
    तन मन हर्षित
    अलौकिक ये वेश ।

    टीप : वर्णक्रम – 05,07,07 – 05,07,07 । निर्दिष्ट भाव से आश्रित प्रत्येक पंक्तियाँ “हाइकु” की तरह स्वतंत्र होना इसकी एक महत्वपूर्ण विशेषता होती है । दो कतौते से एक सेदोका पूर्ण होता है । आपके श्रेष्ठ सेदोका कविता बहार पर आमंत्रित हैं ।

    और पढ़ें : मनीभाई नवरत्न के सेदोका

    प्रदीप कुमार दाश दीपक के सेदोका

    01)
    कोमल फूल 
    सह जाते हैं सब
    व्यक्तित्व अनुकूल 
    वरना कभी 
    मसल कर देखो
    लहू निकालें शूल ।

    02)
    कंटक पथ
    सफर पथरीला
    साथी संग जीवन 
    कर लो साझा 
    होगा लक्ष्य आसान
    मिलेगी सफलता ।

    03)
    मरु प्रदेश 
    मेघों का आगमन
    है, जीवन संदेश 
    सूखे तरु का
    तन मन हर्षित 
    अलौकिक ये वेश ।

    04)
    बस गईं वे  —-
    खयालों में जब से 
    भले वो साथ नहीं 
    पर हम तो
    उनके साथ रहे
    कभी अकेले नहीं ।

    05)
    यादों के साये
    हवा के संग संग
    मानो खुशबू हैं ये
    भीतर आते
    बंद कर लो चाहे 
    खिड़की दरवाजे ।

    06)
    क्रय-विक्रय
    जीवन के सफर 
    कुछ नहीं हासिल 
    केवल व्यय 
    जिम्मेदारी के हाट
    गिरवी पड़े ठाठ ।

    07)
    बड़े अजीब
    खण्डहर निर्जीव
    देखने आते लोग
    चले जाते हैं 
    यही अकेलापन
    है उसका नसीब ।

    {08}

    पेड़ों का दुःख 
    कुल्हाड़ी की आवाज 
    सुन कर मनुष्य 
    रहता चुप
    धूप से तड़पती
    बूढ़ी पृथ्वी है मूक ।

        ~~●~~

        {09}

    मौसमी मार
    पेड़ हुए निर्वस्त्र 
    पत्तियाँ समा गईं 
    काल के गाल
    फूटो नई कोंपलें 
    क्यों करो इंतजार ?

       ~~●~~

    □ प्रदीप कुमार दाश “दीपक”

    पद्ममुख पंडा स्वार्थी के सेदोका

    प्रचण्ड गर्मी
    सहता गिरिराज
    पहन हिमताज
    रक्षक वह
    है हमारे देश का
    हमको तो है नाज़

    वृक्षारोपण
    एक अभिवादन
    जो बना देता  वन
    पर्यावरण 
    सुरक्षित रखने
    खुश हो जाता मन

    नाप सकते
    मन की गहराई
    काश संभव होता
    समुद्र में भी
    हो फसल उगाई
    ग़रीबी की विदाई
     

    सत्यवादी जो
    परेशान रहता
    अग्नि परीक्षा देता
    पूरी दुनिया
    उसे हंसी उड़ाती
    वो चूं नहीं करता

    अंधा आदमी
    मन्दिर चला जाता
    खुद को समझाता
    उसे देखने
    जो दिखता ही नहीं
    आंखों के होते हुए

    उसके घर
    देर भी है सर्वदा
    अंधेर भी है सदा
    न्याय से परे
    मिलता परिणाम
    खास हो या कि आम

    जो करते हैं
    अथक परिश्रम
    क्या थकते नहीं हैं?
    सच तो यह
    कि बिना थके कभी
    काम ही नहीं होता!!

    अनवरत
    जीवन  रथ चले
    सुबह सांझ ढले
    मज़ाक नहीं
    कि परिवार पले
    बिना आह निकले

    मेरी कुटिया
    मुझे आराम देती
    मेरी खबर लेती
    बिजली नहीं
    तो भी प्रकाश देती
    ठंडक बरसाती

    सत्यवादी जो
    परेशान रहता
    अग्नि परीक्षा देता
    पूरी दुनिया
    उसे हंसी उड़ाती
    वो चूं नहीं करता

    अंधा आदमी
    मन्दिर चला जाता
    खुद को समझाता
    उसे देखने
    जो दिखता ही नहीं
    आंखों के होते हुए

    उसके घर
    देर भी है सर्वदा
    अंधेर भी है सदा
    न्याय से परे
    मिलता परिणाम
    खास हो या कि आम

    जो करते हैं
    अथक परिश्रम
    क्या थकते नहीं हैं?
    सच तो यह
    कि बिना थके कभी
    काम ही नहीं होता!!

    अनवरत
    जीवन  रथ चले
    सुबह सांझ ढले
    मज़ाक नहीं
    कि परिवार पले
    बिना आह निकले

    मेरी कुटिया
    मुझे आराम देती
    मेरी खबर लेती
    बिजली नहीं
    तो भी प्रकाश देती
    ठंडक बरसाती

    पद्म मुख पंडा स्वार्थी

    धनेश्वरी देवांगन धरा के सेदोका

    खिले कलियाँ
      नहा शबनम‌ में
      फूलों के मौसम में
      अलि  बहके
      बसंती बयार है
      अनोखा त्यौहार है
      **
      कली मुस्काये
      कैसी है आवारगी?
      छायी है दीवानगी
      दिल दहके
      उमंग अपार है
      प्यारा -सा संसार है
      **
      समा है हसीं
      मौसम है फूलों का 
      आनंद है झूलों का
      गुल महके 
      बागों में बहार है
      सोलह श्रृंगार है
      **
      शाम‌ मस्तानी‌

    रूत है जवां- जवां 
      गुल करे है  बयां
      पिक चहके
      कली में निखार है
      फिज़ा में खुमार है

    धनेश्वरी देवांगन ” धरा”

    क्रांति की सेदोका रचना

    जमाना झूठा
    बना साधु इंसान
    बेच रहा ईमान
    पैसों के लिए
    बन रहा हैवान
    होता  है बदनाम।।

    घिसे किस्मत
    चप्पल की तरह
    बदलता इंसान
    क्षण भर में
    बन जाता हैवान
    पैसों के लालच में।।

    मां की मूरत
    लगे खूबसूरत
    चंद्रमा की तरह
    रौशन करें
    बच्चों के जीवन से
    छंटता अंधियारा।।

    बने अमीर
    बेचकर जमीर
    कमाता है रुपया
    आज इंसान
    चैन के तलाश में
    खो बैठा है खुशियां।।

    बगैर वस्त्र
    सड़क के किनारे
    ठिठुर रहा बच्चा
    कठिन घड़ी
    कोई न देता साथ
    जरूरत के वक्त।।

    सड़क पर
    पेपरों से लिपटा
    अबोध बच्चा मिला
    सूरत प्यारा
    किस्मत का है मारा
    है कोई बेसहारा।।

    होते सबेरे
    खगों का कलरव
    लगता बड़ा न्यारा
    नन्हा परिंदा
    भर रहा उड़ान
    गगन की तरफ।।

    क्रान्ति, सीतापुर, सरगुजा छग

    सायली कैसे लिखें ( How to write SAYLI )

  • सामाजिक बदलाव पर छत्तीसगढ़ी कविता

    सामाजिक बदलाव पर छत्तीसगढ़ी कविता

    सामाजिक बदलाव पर छत्तीसगढ़ी कविता

    सामाजिक बदलाव पर छत्तीसगढ़ी कविता
    छत्तीसगढ़ी कविता

    करलई होगे संगी ,करलई होगे गा।
    छानी होगे ढलई ,करलई होगे गा ।।
    पहिली के माटी घर ,मोला एसी लागे।
    करसी के पानी म ,मोर पियास भागे।
    मंझन पहा दन, ताश अऊ कसाड़ी म।
    टेढ़ा फंसे रे ,   हमर बिरथा-बाड़ी म।
    ए जमाना बदलई ,  करलई होगे गा ।
    करलई होगे संगी ,   करलई होगे गा ॥


    टीवी म झंपाके, लईका,सियान तको ।
    रेसटीप अउ फुगड़ी खेल नंदागे सबो।
    कइसे होही, हामर लइका के भविष्य ?
    मोबाईल गेम म आंखी बटरागे  दूनो।
    नइ होत गोठ बतरई,करलई होगे गा ।
    करलई होगे संगी,   करलई होगे गा ॥


    बईलागाड़ी लुकागे ,आ गय हे ट्रेक्टर ।
    फटफटी कुदात हें ,सइकिल हे पंक्चर।
    खरचा बढ़ा के ,बनथें अपन म सयाना।
    गरीबी कार्ड के रहत लें, मनमाने खाना।
    नइ होत हे कमई-धमई ,करलई होगे गा ।
    करलई होगे संगी,    करलई होगे गा ।।


    पहिली कस पहुना , कोई आवत नईये।
    बबा ह लईका ल,  कथा सुनावत नईये।
    कोठी म धान उछलत ,  भरावत नईये।
    गुरुमन ल चेला हर ,     डरावत नईये।
    मुर्रा लई कस होगे दवई,करलई होगे गा।
    करलई होगे संगी,     करलई होगे गा ॥
    (रचयिता :- मनी भाई भौंरादादर, बसना)

    मनीभाई नवरत्न की १० कवितायेँ

     मनीभाई ‘नवरत्न’, छत्तीसगढ़

  • विदाई के पल पर कविता

    विदाई के पल पर कविता

    विदाई के पल पर कविता

    विदाई के पल पर कविता

    वर्षों से जुड़े हुए कुछ पत्ते
    आज बसंत में टूट रहे हैं ।
    जरूरत ही जिनकी पेड़ में
    फिर भी नाता छूट रहे हैं।

    यह पत्ते होते तो बनती पेड़ की ताकत ।
    इन की छाया में मिलती सबको राहत ।
    पर सबको मंजिल तक जाना है।
    सबने बनाई है अपनी-अपनी चाहत ।
    इन की विदाई से डाल-डाल सुख रहे हैं।
    जरूरत थी जिनकी पेड़ में
    फिर भी नाता छूट रहे हैं ।

    इन पत्तों से ही पेड़ में होती जान ।
    आखिर पत्तों से ही पेड़ को मिलती पहचान।
    यह पत्ते ही भोजन पानी हवा दिला कर ।
    बनते हैं जग में महान ।
    इनके बिना पेड़ के दम घुट रहे हैं ।
    जरूरत थी जिनकी पेड़ में
    फिर भी नाता छुट  रहे हैं ।

    मानो तो जीवन की यही परिभाषा ।
    हर निराशा में छुपी रहती आशा ।
    इनके जगह लेने कोई तो आएगा ।
    यही भरोसा और यही दिलासा।
    पतझड़ के बाद नई कोपले फूट रहे हैं ।

    बरसों से जुड़े हुए पत्ते
    आज बसंत में टूट रहे हैं।
    जरूरत थी जिनकी पेड़ में
    फिर भी नाता छूट रहे हैं।

    मनीभाई ‘नवरत्न’, छत्तीसगढ़