धरा पर कविता
आज धरा में प्रेम ही,
मानवता का सार।।
जिनके मन में प्रेम हो,
करता नित उपकार।।१।।
प्रेम मिले तो दुष्ट भी,
बने धरा में संत।।
इसकी महिमा क्या कहूंँ,
पावन अतुल अनंत।।२।।
*अपनी जननी हैं धरा,*
प्रेम करे बरसात।।
सब कुछ सहकर दें हमें,
सुख की सब सौगात।।३।।
तरु तरुवर भी प्रेम से,
पनपे जग में रोज।।
और धरा सुरभित करें,
हरियाली की ओज।।४।।
प्रेम धरा पर लिख दिया,
प्रेम चंद्र मैं साव।।
प्रेम भोज ही नित करूंँ,
प्रेम का ही पहनाव।।५।।
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प्रेमचन्द साव “प्रेम”
बसना, महासमुंद
मो.नं. 8720030700
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