एक बात है जो भूलती नहीं

एक बात है जो भूलती नहीं

उम्र बढ़ रही है अक्ल नहीं अंकों के फेर में ।
फिर भी इन्सान मशगूल है अपनी अंदरुनी उलटफेर में ।
वास्तविकता से रूबरू होने का नाम नहीं होता।
एक दूसरे को चोट पहुंचाए बिना काम नहीं होता।
क्या थे तुम क्या हो गए नए थे तुम पुराने हो गए।
होश कब संभलेगा जब अक्ल पर काल मंडराएगा।
होश में आ जाओ वरना ये भ्रम तुम्हे बार बार डराएगा।
जीवन के इस नव वसंत का सुख ना भोग पाओगे।
जीते जी तुम इस परम सुख का अमृत पान न कर पाओगे।
वसुंधरा के उपवन के तुम एक पुष्प हो।
जानो अपनी अहमियत तुम अपने आप में एक कल्पवृक्ष हो।
सदियों से चली आ रही परंपरा को एक क्षण में नष्ट करोगे।
परंपरा संस्कृति को नष्ट करके तुम कैसे हष्ट पुष्ट रह पाओगे।

Prakash Singh Bisht
Khatima udham Singh Nagar Uttarakhand

दिवस आधारित कविता