“जलती धरती” नामक कविता, जिसे रितु झा वत्स द्वारा रचा गया है, एक व्यक्तिगत अनुभव को अभिव्यक्ति देती है। इस कविता में, रचनाकार ने जलती धरती के माध्यम से मानव जीवन के अनेक पहलुओं को व्यक्त किया है। धरती की गर्मी, उसकी आत्मा को दहला देती है, जो हमें अपने कर्तव्यों के प्रति जागरूक करती है। यह कविता हमें प्राकृतिक संतुलन की महत्व को समझाती है और हमें धरती के संरक्षण के लिए सक्रिय रहने का प्रेरणा देती है। रितु झा वत्स की कविता “जलती धरती” के माध्यम से हमें पर्यावरण के प्रति जिम्मेदारी और सहयोग की महत्व को अनुभव कराती है।
जलती धरती/ रितु झा वत्स
विशुद्ध वातावारण हर ओर
मची त्रास जलती धरती धूमिल
आकाश पेड़ पौधे की क्षति हो रही
दिन रात धरती की तपिश
कर रही पुकार ना जाने कब बरसेगी
शीतल बयार प्लास्टिक
की उपयोग हो रही लगातार
दूषित हो रही हर कोना बदहाल
जलती धरती सह रही प्रहार सूख रही
कुऑं पोखरा तालाब
बूंद भर पानी की धरती को
तलाश प्रकृति के बीच मची ये
कैसा हाहाकार जलती धरती
धूमिल आकाश बढ़ रही ये
हर पल हुंकार धरती की पीड़ा
स्नेहिल उद्गार मानव पर सदैव
बरसाते दुलार उठो मनुज
स्वप्न से सुनने धरती की पुकार
श्यामल सुभाषित धरती सह
रही कितनी अत्याचार “
रितु झा वत्स, बिहार