Category: हिंदी कविता

  • जलती धरती /रितु झा वत्स

    जलती धरती /रितु झा वत्स

    “जलती धरती” नामक कविता, जिसे रितु झा वत्स द्वारा रचा गया है, एक व्यक्तिगत अनुभव को अभिव्यक्ति देती है। इस कविता में, रचनाकार ने जलती धरती के माध्यम से मानव जीवन के अनेक पहलुओं को व्यक्त किया है। धरती की गर्मी, उसकी आत्मा को दहला देती है, जो हमें अपने कर्तव्यों के प्रति जागरूक करती है। यह कविता हमें प्राकृतिक संतुलन की महत्व को समझाती है और हमें धरती के संरक्षण के लिए सक्रिय रहने का प्रेरणा देती है। रितु झा वत्स की कविता “जलती धरती” के माध्यम से हमें पर्यावरण के प्रति जिम्मेदारी और सहयोग की महत्व को अनुभव कराती है।

    जलती धरती/ रितु झा वत्स

    विशुद्ध वातावारण हर ओर

    मची त्रास जलती धरती धूमिल

    आकाश पेड़ पौधे की क्षति हो रही

    दिन रात धरती की तपिश

    कर रही पुकार ना जाने कब बरसेगी

    शीतल बयार प्लास्टिक

    की उपयोग हो रही लगातार

    दूषित हो रही हर कोना बदहाल

    जलती धरती सह रही प्रहार सूख रही

    कुऑं पोखरा तालाब

    बूंद भर पानी की धरती को

    तलाश प्रकृति के बीच मची ये

    कैसा हाहाकार जलती धरती
    धूमिल आकाश बढ़ रही ये

    हर पल हुंकार धरती की पीड़ा
    स्नेहिल उद्गार मानव पर सदैव

    बरसाते दुलार उठो मनुज

    स्वप्न से सुनने धरती की पुकार

    श्यामल सुभाषित धरती सह
    रही कितनी अत्याचार “

    रितु झा वत्स, बिहार

  • जलती धरती/ आशा बैजल

    जलती धरती/ आशा बैजल


    आशा बैजल की जलती धरती नामक हिंदी कविता में विभिन्न भावनाओं और संवेदनाओं को समाहित है। “जलती धरती” एक कविता है जो धरती की संताप और विपदाओं को बयान करती है।

    “जलती धरती” में, कविताकार धरती के विभिन्न प्राकृतिक विपदाओं की चर्चा करते हैं, जैसे कि वन जलन, भूकंप, बाढ़, और वायु प्रदूषण। यह कविता जनता को प्रेरित करती है कि वे पर्यावरण के प्रति सजग और सावधान रहें, ताकि हम स्वस्थ और सुरक्षित रह सकें।

    इस कविता के माध्यम से, हमें धरती की सुरक्षा की महत्ता को समझने की प्रेरणा मिलती है, और हमें इसे सुरक्षित और स्वस्थ रखने के लिए अपना योगदान देने की जरूरत है।

    जलती धरती/आशा बैजल


    सूरज उगता ,ढलता अंधियारा
    रोज सुबह लगता बहुत प्यारा
    साफ आसमान , फैला उजियारा
    चमक रहा तेजपुंज का गोला
    चहचहाती चिड़िया ,टें-टें करते तोते
    नील गगन में उड़ते, पाखी छोटे-छोटे
    पेडों की हरियाली,
    रंगबिरंगे फूलों की ड़ाली,
    गुनगुनाते भौंरे , रस पान करती वो तितली
    झर झर बहते झरने, कलकल करती नदियाँ
    पशुओं को लुभा रहा,
    घने जंगलों का डेरा
    अबाध चक्का घूम रहा था,
    प्रकृति संतुलन बना हुआ था,
    स्वार्थी मानव बन गया दानव
    तोड़े पहाड़, काटे जंगल ,
    बाँध दिया नदियों का जल,
    कम हुई हरियाली ,विशुद्ध हुआ पानी,
    बंजर बनी ज़मीन, विलुप्त हुए प्राणी,
    न रहा आसमान धवल ,
    न चमचम चमकते तारे अब,
    आदित्य भी धुँधला रहा,
    वायु में ज़हर घुल रहा,
    प्रकृति को मानव ने छेड़ा है,
    वसुधा का रूप बिगाड़ा है,
    धरती पर आग लगाई है
    बच न सकेगा अब विनाश से
    जलती धरती का अभिशाप हैै

    आशा बैजल
    ग्वालियर (M.P)

  • पशु-पक्षियों की करुण पुकार

    पशु-पक्षियों की करुण पुकार

    पशु-पक्षियों की करुण पुकार

    पशु-पक्षियों की करुण पुकार

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    रचनाकार-महदीप जंघेल
    विधा- कविता

    हे मानव!
    अपने स्वार्थ के लिए,
    हमें मारते हो क्यों?
    पर्यावरण का संतुलन
    बिगाड़ते हो क्यों?

    हमसे ही तो है,अस्तित्व
    धरती और जंगल का।
    जीते हो खुशियों भरा जीवन
    करते कामना तुम्हारे मंगल का।
    जीना तो हम भी चाहते है,
    हमें भी बेफिक्र होकर जीने दो।
    हे मानव!
    अपने स्वार्थ के लिए,
    हमें मारते हो क्यों?

    छीन लेते हो ,हमारी सारी खुशियाँ,
    उजाड़ देते हो ,हमारी प्यारी सी दुनियाँ।
    बच्चे हमारे हो जाते है अनाथ,
    दया नही आती, न आती तुम्हे लाज।
    जीवन उस ईश्वर ने दिया हमें,
    तो,तुम उसे उजाड़ते हो क्यों?
    हे मानव !
    अपने स्वार्थ के लिए,
    हमें मारते हो क्यों?

    ईश्वर ने दिया तुम्हे ज्ञान,
    सृष्टि में है तुम्हारी पहचान
    थोड़ा रहम ,हम पर भी कर दो,
    बढ़े हमारा मान सम्मान।
    पर्यावरण की सुरक्षा,
    हम सबकी है जिम्मेदारी,
    फिर अपनी शक्ति का प्रयोग,
    हम पर करते हो क्यों?
    हे मानव!
    अपने स्वार्थ के लिए,
    हमें मारते हो क्यों?

    मूक प्राणी है हम,
    कि कुछ बोल नही पाते।
    बेबसी और लाचारी ऐसी ,
    कि कुछ तोल नही पाते।
    स्वार्थ और लोभ में हो चूका तू अँधा,
    हमारा शिकार बना लिया तूने धंधा।
    हे मानव!
    तू इतना बेरहम है क्यों?
    अपने स्वार्थ के लिए,
    हमें मारते हो क्यों?
    अपने स्वार्थ के लिए……….

    (पशु -पक्षी भी पर्यावरण का अभिन्न अंग है।उनकी सुरक्षा हमारी जिम्मेदारी है।अतःउनसे प्रेम करे।)
    ✍️महदीप जंघेल ,खमतराई ,खैरागढ़

  • छत्तीसगढ़ शासकीय भवनों के नाम

    छत्तीसगढ़ शासकीय भवनों के नाम

    छत्तीसगढ़ शासकीय भवनों के नाम

    छत्तीसगढ़ शासकीय भवनों के नाम

    ये नाम छत्तीसगढ़ी हरे हैं ।
    है स्वाद मीठे रस से भरे हैं ।।
    जानो सभा आज विधान के हैं ।
    देवी ” मिनीमातु ” सियान से हैं ।।

    अध्यक्ष के धाम बने सियासी ।
    ” संवेदना ” है गृह के निवासी ।।
    ये गेह मंत्रालय हैं सुहाते ।
    आमोद ” कल्याण निवास ” भाते ।।

    है मुख्यमंत्री रनिवास प्यारा ।
    जानें सभी ये ” करुणा ” दुलारा ।।
    विश्राम मुख्यालय बनी पियारी ।
    जाने सभी आलय ” संगवारी ” ।।

    पंचायती राज जिला निकेता ।
    आवास संदेश ” मितान ” वेता ।।
    जो खास हैं वो ” पहुना ” मिलेंगे ।
    हाऊस ये गेस्ट सदा खिलेंगे ।।

    ये नव्य मंत्रालय है सदी का  ।
    है नाम भी दिव्य ” महानदी ” का ।।
    है नाम ” नंदी शुचि राज ” लीजै ।
    देखो लिखा आज प्रणाम कीजै ।।

  • जलती धरती / भावना मोहन विधानी

    जलती धरती / भावना मोहन विधानी

    जलती धरती / भावना मोहन विधानी

    JALATI DHARATI


    वृक्ष होते हैं धरती का सुंदर गहना,
    हरियाली के रूप में धरा ने इसे पहना
    हरे भरे वृक्षों को काट दिया मनुष्य ने,
    मनुष्य की क्रूरता का क्या कहना?
    तेज गर्मी से जलती जा रही धरती,
    अंदर ही अंदर वह आहे हैं भरती,
    कौन सुनेगा अब पुकार उसकी
    मनुष्य जाति उसके लिए कुछ नहीं करती।
    पेड़ों को काट भवन बनाए जा रहे हैं,
    शहर धरती की सुंदरता को खा रहे हैं,
    आधुनिकरण से धरती बंजर हो गई,
    मनुष्य सारे चैन की नींद में सो रहे हैं।
    अभी वक्त है नींद से जाग जाओ सब,
    पेड़ लगाओ खुश हो जाएगा तुमसे रब
    धरती बंजर हो जाएगी तो पछताओगे
    अभी नहीं तो समय मिलेगा फिर कब
    जलती धरती को कुछ तो राहत दे दो,
    हरे भरे वृक्षों की उसको सौगात दे दो
    चारों ओर खुशहाली छा सी जाएगी,
    धरती का दामन खुशियों से भर दो।

    भावना मोहन विधानी
    अमरावती