Category: हिंदी कविता

  • पिता होने की जिम्मेदारी – नरेन्द्र कुमार कुलमित्र

    पिता होने की जिम्मेदारी

    दो बच्चों का पिता हूँ

    मेरे बच्चे अक्सर रात में
    ओढ़ाए हुए चादर फेंक देते है
    ओढ़ाता हूँ फिर-फिर
    वे फिर-फिर फेंकते जाते हैं

    उन्हें ओढ़ाए बिना…

    मानता ही नहीं मेरा मन

    वे होते है गहरी नींद में
    उनके लिए 
    अक्सर टूट जाती हैं
    मेरी नींदें…

    एक दिन 

    गया था गाँव

    रात के शायद एक या दो बजे हों
    गरमी-सी लग रही थी मुझे
    नहीं ओढ़ा था चादर
    मेरी आँखें मुंदी हुई थी
    पर मैं जाग रहा था…

    रात के अन्धेरे में

    किसी हाथ ने ओढ़ा दिए चादर

    उनकी पास आती साँसों को टटोला
    पता चला वे मेरे पिता थे

    गरमी थी

    मगर मैंने चादर नहीं फेंकी

    चुपचाप ओढ़े रहा
    मैं महसूस कर रहा था
    बच्चा होने का सुख…
    और
    पिता होने की जिम्मेदारी…
    दोनों साथ-साथ..।

    — नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
    कविता बहार से जुड़ने के लिये धन्यवाद

  • पितृ पक्ष का सच्चा श्राद्ध-धनंजय सिते(राही)

    पितृ पक्ष का सच्चा श्राद्ध

    आजका बच्चा कलका यूवा
    और परसो बुढ़ा होना है!
    ये प्रकृती का नियम है सबको
    एक दिन इससे गुजरना है!!
                      २
    आजकी बेटी कल पत्नी माता
    परसो वह भी बनेगी सास!
    बेटा आजका कल पती,पिता है
    दादा,नाना परसो का खास!!
                       ३
    यही परिवार का चक्र है मित्रो
    यह सबके साथ ही होना है!
    कद्र करो सब बुजूर्गो की तुम
    हम सबको ही बुढ़ा होना है!!
                        ४
    जिवित है जबतक मात पिता
    या हम सबके वो सास ससुर!
    जितनी भी होती सेवा कर लो
    ना जीवन लगे उनको मज़बुर!!
                       ५
    खान पान का ध्यान रखो तुम
    दुध दवाई समय पर दो!
    जिंदे है तब तक जीवन मे उनके
    सारी खूशिया तुम भर दो!!
                        ६
    बोझ जिन्दगी उन्हे ना लगे
    व्यवहार ही ऎसा करना तुम!
    मान रख सम्मान भी करना
    मन माफिक सारा करना तुम!!
                       ७
    अंत समय जब उनका आए तो
    बहू,बेटा कहने हो वो बाध्य!
    मरने पे दिखावा करने से अच्छा
    यही पितृ पक्ष का सच्चा श्राद्ध!!
    ””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””’

    कवि-धनंजय सिते(राही)
    जिला-छिन्दवाड़ा(म.प्र.)
    सम्पर्क-9893415829
       
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  • इंतज़ार आँखे में

    इंतज़ार आँखे में

    इंतज़ार करती है आँखे
    हर उस शक्श की, 
    जिसकी जेब भरी हो,
    किस्मत मरी हो, लूट सके जिसे,
    छल सके जिसे, 
    इंतज़ार करती है आँखे।

    इंतज़ार करती है आँखे
    हर उस बीमार की, 
    जो जूझ रहा है मर्ज में,
    औंधे पड़ा है फर्श में, 
    कर सके जिससे अपनी जेब गर्म,
    लूट सके इलाज के बहाने, 
    इंतज़ार करती है आँखे।

    इंतज़ार करती है आँखे
    हर उस मुजरिम की, 
    जो आ चुका सलाखों के भीतर,
    किया गुनाह, जज्बातो में आकर,
    भोग रहा अपने अतीत को,
    झपट सके जिससे वे लाखो।
    इंतज़ार करती है आँखे।

    ये सभी आ गए, आकर चले गए
    मगर अफ़सोस वे क्यों नहीं आ रहे,
    जो अबलाओं की अस्मत बचा सके,
    सड़क किनारे भूखे बच्चों को रोटी खिला सके,
    बुजुर्ग अपंग असहाय की सेवा कर सके।
    जो नहीं आ रहे उनको इंतज़ार करती है ये आँखे….
    इंतज़ार करती है ये आँखे।

    रोहित शर्मा, छत्तीसगढ़
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  • मेरे गांव का बरगद – नरेन्द्र कुमार कुलमित्र

    मेरे गांव का बरगद – नरेन्द्र कुमार कुलमित्र

    मेरे गांव का बरगद 

    मेरे गाँव का बरगद
    आज भी 
    वैसे ही खड़ा है
    जैसे बचपन में देखा करता था
    जब से मैंने होश संभाला है
    अविचल
    वैसे ही पाया है

    village based Poem

    हम बचपन में 
    उनकी लटों से झूला करते थे
    उनकी मोटी-मोटी शाखाओं
    के इर्द-गिर्द छुप जाया करते थे
    धूप हो या बारिश
    उसके नीचे
    घर-सा
    निश्चिंत होते थे 

    तब हम लड़खड़ाते थे
    अब खड़े हो गए
    तब हम बच्चे थे
    अब बड़े हो गए
    तब हम तुतलाते थे 
    अब बोलना सीख गए
    तब हम अबोध थे
    अब समझदार हो गए
    तब अवलंबित थे
    अब आत्मनिर्भर हो गए
    तब हम बेपरवाह थे
    अब जिम्मेदार हो गए
    तब पास-पास थे
    अब कितने दूर-दूर हो गए

    बरगद आज भी
    वैसा ही खड़ा है 
    अपनी आँखों से
    न जाने कितनी पीढियां देखी होगी
    न जाने कितने
    उतार-चढ़ाव झेले होंगे
    अपने भीतर
    न जाने कितने
    अनगिनत
    यादों को सहेजे होंगे
    पर अब
    एकदम उदास-सा
    अकेला खड़ा होता है
    जैसे किसी के इंतिजार में हो…
    अब कोई नहीं होते
    उनके आसपास
    न चिड़ियाँ, न बच्चे, न बूढ़े
    न कलरव, न कोलाहल, न हँसी…

    साल में एक या दो बार
    जब जाता हूँ गाँव
    बरगद के करीब से 
    अज़नबी की तरह गुजर जाता हूँ
    कभी-कभी लगता है
    ये बड़प्पन
    ये समझदारी
    ये आत्मनिर्भरता
    ये जिम्मेदारी
    और ये दूरी…
    आख़िर किस काम के
    जो अपनों को अज़नबी बना दे
    हम रोज़मर्रा में 
    इतने मशगूल हो गए
    कि हमारे पास इतना भी वक्त नहीं
    कि मधुर यादों को 
    याद कर सके ,जी सकें…

    हमारे गाँव में
    न जाने कितने लोग
    हमारी मधुर यादों से जुड़े हुए
    करते होंगे हमें याद…
    हमारा इंतिजार…
    पर 
    हम ‘काम’ के मारे हैं
    उनके अकेलेपन और उदासी के लिए
    हमारे पास वक्त नहीं
    तुम्हें हमारी यादों के सहारे
    अकेले ही जीना होगा
    हे! मेरे गाँव के बरगद…।

    — नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
       
    कविता बहार से जुड़ने के लिये धन्यवाद

  • जीवन रुपी रेलगाड़ी – सावित्री मिश्रा

    जीवन रुपी रेलगाड़ी


    कभी लगता है जीवन एक खेल है,
    कभी लगता है जीवन एक जेल है।
    पर  मुझे लगता है कि ये जीवन
    दो पटरियों पर दौड़ती रेल है।
    भगवान ने जीवन रुपी रेल का
    जितनी साँसों का टिकट दिया है,
    उससे आगे किसी ने सफर नहीं किया
    सुख और दुख जीवन की दो पटरियाँ,
    शरीर के अंग जीवन रुपी रेल के डिब्बे हैं।
    जीवन रुपी रेल के डिब्बे जब तक,
    जवानी की स्पीड पकडते हैं,
    तब तक माँ बाप गार्ड की
    भूमिका में पीछे -पीछे चलते हैं।
    जीवन रुपी रेल के डिब्बों मे जो
    बिमारियों की तकनीकी खराबी आती है,
    वो हमें कमजोर आना जाती है।
    जीवन रुपी ये रेल अन्तिम स्टेशन पहुँचे
    और हमेशा के लिये  ब्रेक लग जाए ।
    आओ मिल कर एक दुसरे के काम आएं,
    जीवन रुपी रेल के सफर को सुहाना बनाएं।

    सावित्री मिश्रा
    झारसुगुड़ा ,ओडिशा