Category: हिंदी कविता

  • शानदार पार्टी

    शानदार पार्टी

    चल रही थी खूब,
    अमीर दिलदार लोगों की पार्टी ,
    जहां शामिल होने के लिए ,
    किसी अनुमति की आवश्यकता नहीं ,
    और ना ही आवश्यकता है,
    निश्चित राशि की।
    बस एक मुस्कान के साथ कह दो ,
    मुझे भी शामिल करोगे यार।
    मां ने बस दस रुपए दिए हैं ,
    एक साथ आवाज आई ,
    “आ जाओ!”
    पैसे की भी जरूरत नहीं ,
    पूरी तैयारी है ,
    देखो कुरकुरे चिप्स बिस्किट,
    पानी के छोटे-छोटे पाउच ,
    जरूरत के सारे सामान
    जो किसी शानदार पार्टी में रहती है।
    उससे भी कहीं अधिक,
    यहां था प्यार,
    जहां कोई ऊंच- नीच,न भेदभाव।
    उनकी पार्टी देख
    मेरा दिल
    गदगद हो उठा,
    तैर गई ,
    होठों पर एक मुस्कुराहट।
    शामिल होने की इच्छा भी थी,
    शानदार पार्टी में ।
    शायद पर मै उन ,
    बच्चों सी अमीर नही,
    मै उसमें शामिल होने के योग्य न थी।

            जागृति मिश्रा रानी
    कविता बहार से जुड़ने के लिये धन्यवाद

  • रोज ही देखता हूँ सूरज को ढलते हुए

    रोज ही देखता हूँ सूरज को ढलते हुए

    दरख्त

    रोज ही देखता हूँ
    सूरज को ढलते हुए!
    फिर अगली सुबह ,
    निकल आता है मुस्कुराकर!
    नयी उम्मीद और विश्वास लिए,
    मेरे पास अब उम्मीद भी नहीं बची
    मेरे सारे पत्तों की तरह!
    सपने टूटने लगते हैं
    जब देखता हूँ
    कुल्हाड़ी लिये,
    बढ़ रहा है कोई मेरी ओर..
    मैं लाचार…
    विवश…
    उसे रोक नहीं सकता
    क्योंकि–
    उस इंसान की तरह ही हूँ मैं!
    उसके भी अपने उसे छोड़ जाते हैं,
    अकेला,असहाय
    लाचार,विवश…
    फर्क है बस इतना
    पतझर के मौसम में ही
    दरख्त सूखते हैं
    मगर–
    इंसानी रिश्ते किसी भी मौसम में……..

    डॉ. पुष्पा सिंह’प्रेरणा’
    कविता बहार से जुड़ने के लिये धन्यवाद

  • बसन्त और पलाश

    बसन्त और पलाश

    दहके झूम पलाश सब, रतनारे हों आज।
    मानो खेलन फाग को, आया है ऋतुराज।
    आया है ऋतुराज, चाव में मोद मनाता।
    संग खेलने फाग, वधू सी प्रकृति सजाता।
    लता वृक्ष सब आज, नये पल्लव पा महके।
    लख बसन्त का साज, हृदय रसिकों के दहके।।
    शाखा सब कचनार की, लगती कंटक जाल।
    फागुन की मनुहार में, हुई फूल के लाल।
    हुई फूल के लाल, बैंगनी और गुलाबी।
    आया देख बसंत, छटा भी हुई शराबी।
    ‘बासुदेव’ है मग्न, रूप जिसने यह चाखा।
    आमों की हर एक, लदी बौरों से शाखा।।
    हर पतझड़ के बाद में, आती सदा बहार।
    परिवर्तन पर जग टिका, हँस के कर स्वीकार।
    हँस के कर स्वीकार, शुष्क पतझड़ की ज्वाला।
    चाहो सुख-रस-धार, पियो दुख का विष-प्याला।
    कहे ‘बासु’ समझाय, देत शिक्षा हर तरुवर।
    सेवा कर निष्काम, जगत में सब के दुख हर।।
    कागज की सी पंखुड़ी, संख्या बहुल पलास।
    शोभा सभी दिखावटी, थोड़ी भी न सुवास।
    थोड़ी भी न सुवास, वृक्ष पे पूरे छाते।
    झड़ के यूँ ही व्यर्थ, पैर से कुचले जाते।
    झूठी शोभा ओढ़, बने बैठे हो दिग्गज।
    करना चाहो नाम, भरो सार्थक लिख कागज।।

    बासुदेव अग्रवाल ‘नमन’
    तिनसुकिया
    कविता बहार से जुड़ने के लिये धन्यवाद

  • तुम्हारे प्यार में कब-कब बिखरा नहीं हूँ मैं

    तुम्हारे प्यार में कब-कब बिखरा नहीं हूँ मैं

    नैनों की झील में इश्क़ का पतवार लिये
    कौन कहता है कि कभी उतरा नहीं हूँ मैं ?
    बिखरा तो बहुत हूँ ज़िंदगी के जद्दोजहद में
    तुम्हारे प्यार में कब-कब बिखरा नहीं हूँ मैं ?
    तब मेरे बालों पे उंगलियाँ क्या फेर दीं तुमने
    उस आइने से पूछिए कब से संवरा नहीं हूँ मैं ?
    इश्क़ में होके फ़ना हम उड़ चले अंबर तलक
    पर ज़माने से फिर भी भूला-बिसरा नहीं हूँ मैं !
    ‘क्षितिज’  क्या  करेगा  तनहाईयों  से लिपटकर
    कहे,एहसास-ए-शून्य-सा अभी पसरा नहीं हूँ मैं ।।
    -@निमाई प्रधान ‘क्षितिज’
             रायगढ़,छत्तीसगढ़
    कविता बहार से जुड़ने के लिये धन्यवाद

  • कटुक वचन है ज़हर सम

    कटुक वचन है ज़हर सम

    वाणी ही है खींचती भला बुरा छवि चित्र
    वाणी से बैरी बने वाणी से ही मित्र
    संयम राखिए वाणी पर वाणी है अनमोल
    निकसत है इक बार तो विष रस देती घोल।


    कटुक वचन है ज़हर सम मीठे हैं अनमोल
    वाणी ही पहचान कराती तोल मोल कर बोल
    कटु वाणी हृदय चुभे जैसे तीर कटार के
    घाव भरे न कटु वाणी के भर जाए तलवार के।


    मृदु वचन से अपना बने कटु वचनों  से  गैर
    मीठी रखिए वाणी भाव कभी न होगा बैर
    वाणी है वरदान इक वाणी से सब दाँव
    मधुर वाणी देती खुशी कर्कश देती घाव।


    कोयल कागा एक से अंतर दोनों के बोल
    वशीकरण है मंत्र इक मृदु वचन अनमोल
    कटु वाणी सुन लोग सब आपा  देते खोय
    बोया पेड़ बबूल का तो आम कहां से होय।


    मीठी वाणी औषधि मरहम देत लगाय
    कटु वाणी है कंटीली नश्तर देत चुभाय
    जख़्म देती कटु वाणी मन को चैन न आय
    मीठी वाणी हृदय को अमृत सम सुहाय।


    कटु वाणी दुख देत है बिन भानु ज्यों भोर
    मीठी वाणी अनंत सी जिसका न कोई छोर
    कटु वाणी कर्कश सदा ज्यों मेघों का रोर
    सुख जीवन में चाहो तो तज दे वचन कठोर।


    कटु वाणी से जगत में शहद भी नहीं बिक पाता
    मीठी वाणी के आगे नीम नहीं टिक पाता
    कह ”कुसुम” वाणी मधुर कर दे मन झंकार।
    तज दे वाणी कटु सदा संबंधों का आधार।

    कुसुम लता पुंडोरा
    आर के पुरम
    नई दिल्ली