Category: हिंदी कविता

  • भावी पीढ़ी का आगामी भविष्य

    भावी पीढ़ी का आगामी भविष्य


    हमें सोचना तो पड़ेगा।
    परिवार की परंपरा
    समाज की संस्कृति
    मान्यताओं का दर्शन
    व्यवहारिक कुशलता
    आदर्शों की स्थापना।
    निरुद्देश्य तो नहीं!
    महती भूमिका है इनकी
    सुन्दर,संतुलित और सफल
    जीवन जीने में।


    जो बढता निरंतर
    प्रगति की ओर
    देता स्वस्थ शरीर ,
    सफल जीवन और सर्वहितकारी चिन्तन।
    हम रूढियों के संवाहक न बने।
    कुरीतियों की हामी भी क्यों भरें।


    बचें छिछले ,गँदले गड्ढों के कीचड़ से।
    अपनाये नवीन उन्नत्त विचार,
    संग अद्यतन नूतन आविष्कार।
    पर छोड़ें नहीं ,
    हमारे पुरुखों के चरित्रों की
    हीरक, मणिमुक्तामाल।
    जिसके बलबूते पर बनी हुई
    आज भी हमारी विशिष्ट पहचान।


    फिर क्षेत्र कोई भी हो
    सामाजिक, राजनैतिक या आर्थिक।
    सभी स्थानों पर अपेक्षित है
    हमारे व्यवहार की शालीनता।
    हमारी मान्यताओं, आदर्शों की जीवन्तता।
    मर्यादाओं की महानता
    हमें सोचना तो पड़ेगा ।
    भारत की भावी पीढी का
    आगामी भविष्य।

    पुष्पा शर्मा “कुसुम”

  • एक बार लौट कर आ जाते

    अगर वह एक बार लौट कर आ जाते

    तालाब के जल पर एक अस्पष्ट सा,
    उन तैरते पत्तों के बीच
    एक प्रतिबिम्ब दिखाई पड़ा,
    तभी जाना… मेरा भी तो अस्तित्व है।
    झुर्रियों ने चेहरे पर पहरा देना शुरू कर दिया था।
    कुछ गड्ढे थे.


    जो चेहरे पर अटके पड़े थें
    जिस पर आँखों से गिरी कुछ बूंदें अपना बसेरा बनाए हुए थीं।
    वह बूंदें पीले रंग की थीं।
    पत्र शुष्क पड़े थें,
    पुष्प झर चुके थें,
    मेरी छाँव में कुछ पंछी पले थें,
    पर खुलते ही वह आसमान में कहीं दूर उड़ गए थें।
    हालांकि अब छाँव नहीं है,
    पर फिर भी….


    अगर वह एक बार लौटकर आ जाते;
    अगर वह एक बार लौटकर
    अपनी बाहों में मुझे समा लेते;
    अगर वह एक बार आकर प्यार से
    ‘पिता’ कह देते
    तो शायद….
    पत्ते फिर उमड़ पड़ते;
    कलियाँ फिर फूट पड़तीं;
    शुष्क नब्ज़ में खुशियों का संचार होने लगता;
    मुझमें चेतना आ जाती।
    पर जड़ कमजोर हो चुकी है,
    पैर टिक नहीं पा रहें,
    अब लोगों के मुँह से भी
    मेरे लिए दुआ के कुछ शब्द सुनायी पड़ते हैं.


    “जीते जी सबका भला किया,
    भगवान इसे अच्छी मौत दे।”
    आज शायद भगवान ने उनकी सुन ली,
    बच्चे पास थें; मेरे सामने।
    उनके सामने एक ‘घर’ था;
    जो वर्षों से उनका इंतजार कर रहा था,
    ‘बगीचे’ थें;
    जो उनके आने के आँंखों में सपने संजोए हुए थें,
    ‘जमीन’ थी;
    जो उनके कदम की आहट सुनने के लिए
    कब से व्याकुल थी।


    हाँ! आखिर उन्हें भी तो लौटकर एक दिन इन्हीं
    अपनों के पास आना था।
    उन्हें वह घर चाहिए था;
    जिसकी जगह उन्हें वहाँ अपना महल बनवाना था।
    उन्हें वह बगीचे चाहिए थे;
    जिसकी जगह उन्हें वहाँ अपना कारखाना खड़ा करना था,
    उन्हें वह जमीन चाहिए थी;
    जिसके जरिए उन्हें करोड़ो कमाना था।
    किनारे पर वहीं खाट पड़ी हुई थी,
    लोगों से घिरा उसी खाट पर मैं लेटा हुआ था,
    शायद उन्होंने मुझे देखा ही नहीं था,
    जो कुछ समय पहले ही
    अपनी जायदाद पाने की चाह में
    अपनी जायदाद ही सौंप गया…।


    -कीर्ति जायसवाल
    प्रयागराज

  • प्रातःकाल पर कविता

    प्रातःकाल पर कविता

    प्रातःकाल पर कविता

    morning

    श्याम जलद की ओढ
    चुनरिया प्राची मुस्काई।
    ऊषा भी अवगुण्ठन में
    रंगों संग नहीं आ पाई।

    सोई हुई बालरवि किरणे
    अर्ध निमीलित अलसाई।
    छितराये बदरा संग खेले
    भुवन भास्कर छवि छाई।

    नीड़ छोड़  चली अब तो
    पंछियों की सुरमई पाँत।
    हर मौसम में  रहें कर्मरत
    समझा जाती है यह बात।

    पुष्पा शर्मा “कुसुम”

  • छूकर मुझे बसंत कर दो

    छूकर मुझे बसंत कर दो – निमाई प्रधान

    छूकर मुझे बसंत कर दो
    HINDI KAVITA || हिंदी कविता

    तुम बिन महज़ एक शून्य-सा मैं
    जीकर मुझे अनंत कर दो ….।

    पतझर-पतझर जीवन है
    छूकर मुझे बसंत कर दो ।।

    इन्द्रधनुष एक खिल रहा है,
    मेरे हृदय के कोने में…..
    बस जरुरत एक ‘हाँ’ की …
    शून्य से अनंत होने में ।
    छू लो ज़रा लबों को मेरे..
    शंकाओं का अंत कर दो ।

    जीकर मुझे अनंत कर दो ..
    छूकर मुझे बसंत कर दो ।।

    जीवन के हर सम-विषम में ,
    मैं रहूँ तुम्हारे संग …..
    मयूरपंखी इस ‘क्षितिज’ को,
    मैं रंगूँ तुम्हारे रंग …


    स्वर बनो तुम , बनूँ मैं व्यंजन
    रहूँ तुम बिन हरदम अधूरा
    मुझको स्वरे ! हलंत कर दो ।

    जीकर मुझे अनंत कर दो…
    छूकर मुझे बसंत कर दो ।।

    तुम्हारे अश्क़ गिरे जब मेरे हृदय में
    मैं तो हो गया न्यारा …..
    सौंधी-सौंधी महक उठा फिर
    तन-मन-जीवन सारा..
    हो रहा हूँ….मैं तुम्हारा ..
    ये चर्चा दिक्-दिगंत कर दो ।

    जीकर मुझे अनंत कर दो…
    छूकर मुझे बसंत कर दो ।।

    निमाई प्रधान’क्षितिज

    कविताबहार की कुछ अन्य कविताए :मनीभाई के प्रेम कविता

  • दिलीप कुमार पाठक सरस का ग़ज़ल

    दिलीप कुमार पाठक सरस का ग़ज़ल

    hindi gajal
    kavita bahar

    जिंदादिली जिसकी बदौलत गीत गाना फिर नया |
    हँसके ग़ज़ल गाते रहो छेड़ो तराना फिर नया ||

    है जिंदगी जी लो अभी फिर वक्त का कोई भरोसा है नहीं |
    पल भर ख़ुशी का जो मिले किस्सा सुनाना फिर नया ||

    हँसना हँसाना रूठ जाना फिर मनाना आ गया |
    अच्छा लगे  ऐसा बनाना तुम बहाना फिर नया ||

    दीदार पहले हुस्न का जी भर जरा कर लीजिए |
    लिपटी लता का ख़्वाब आँखों में सजाना फिर नया ||

    खींचातनी में रात बीती कह रही है आँख सब |
    महके बदन उस गुलबदन का गुल खिलाना फिर नया ||

    तबदीलियाँ होने लगी हैं देख लेना ऐ “सरस”|
    है गुनगुनाती गूँज आयेगा ज़माना फिर नया ||

    दिलीप कुमार पाठक “सरस”