खिली गुनगुनी धूप
खिली गुनगुनी धूप, खिल गई अलसाई सी धरती |
है निसर्ग की माया ये, ऋतुओं ने सृष्टि भर दी |
लगे चहकने सभी पखेरू, भरने लगे उड़ान,
लगे महकने सभी प्रसून, महकी हर मुस्कान,
तितली के पंखों ने दुनिया,
रंग-बिरंगी कर दी |
खिली गुनगुनी धूप, खिल गई अलसाई सी धरती |
पतझर का मौसम बीता, आया अब मधुमास
कलियों ने आँखें खोली, मधुप की जागी प्यास
छत की सभी मुंडेरों पर आकर,
अठखेली सी करती |
खिली गुनगुनी धूप, खिल गई अलसाई सी धरती |
मैंने भी अंजुरी में भर ली, आज गुनगुनी धूप,
आस-पास का सब अँधियारा, डाल दिया है कूप,
मन वीणा के तारों में,
इक झंकार सी भरती |
खिली गुनगुनी धूप, खिल गई अलसाई सी धरती |
– उमा विश्वकर्मा , कानपुर, उत्तरप्रदेश