मैं छोटी सी टिवंकल

मैं छोटी सी टिवंकल

मैं छोटी सी टिवंकल,
क्या बताऊ क्या भोगा,
आदमी के रूप में,
राक्षस है ये लोगा ।
मैं तो समझी उसको चाचा,
मैं मुनियाँ छोटी सी,
मैंने नही उसको बाँचा,
गोद में बैठ चली गई,
उस दरिंदे से छली गई ,
दो उस कुत्तेको बद्दुआ
उस कुत्ते ने देखो मुझको
कहाँ कहाँ नही छुआ ,
उसके बाद भी देखो उसका
नही भरा था मन ,
टुकड़े टुकड़े काट दिया ,
उसने मेरा तन ।
पूछ रही है ये टिवंकल
क्या न्याय दिलवाओगे
इतना तो जानती हूं मैं,
जैसे औरों को भूले हो तुम
मुझको भी भूल जाओगे
राजनीति भी ,
चुप्पी साधे देखो कैसी बैठी है,
न्याय की कुर्सी भी,
बंद आँखे देखो कैसी लेटी है,
सबके स्वार्थ आड़े है,
सबके अपने पहाड़े है,
फिर भी कहती –
ये टिवंकल,
अपने अपने बच्चों को
इनसे तुम बचा लेना,
हो सके तो इन दरिंदों को
सरे राह, सरे आम फांसी देना,
यही मेरी आत्मा का
शान्ति का उपाय होगा ।
मैं छोटी सी टिवंकल
क्या बताऊ क्या भोगा
आदमी के रूप में,
राक्षस है ये लोगा ।
–सुनील उपमन्यु,खण्डवा

कविता बहार से जुड़ने के लिये धन्यवाद

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